बरस रहा है | Geet Baras Raha hai
बरस रहा है
( Baras raha hai )
बरस रहा है जड़-चेतन से,सुधियों का अनुराग ।
मिलन-ज्योति भी लगा रही है, राजभवन में आग।।
🥇
पाती एक न आयी उसकी, नहीं कभी संदेश ।
चला गया वह मनभावन क्या, जाने किस परदेश ।
डसा जा रहा साधक मन को, विरह क्षणों का नाग ।।
बरस रहा है—-
🥈
आज जिधर भी जाता पड़ते, विष व्यंग्य के छींटे ।
क्या बतलाऊँ नेह फलों को, कड़वे हैं कि मीठे ।
लगा गया है मन-मस्तक पर, जन्म जन्म के दाग ।।
बरस रहा है——
🥉
हमने भी खेली थी होली, मनमोहन के संग ।
उमड़ रहा है मन-श्वासों में, वह मादक सा रंग ।
अन्तर्द्वन्द्व का नायक बनकर, आया है फिर फाग।।
बरस रहा है—–
🎖️
मन करता था यही खेल हम, खेलें आठों याम ।
शीशम देवदार पर लिखना, इक दूजे का नाम ।
मन-वीणा ने छेड़ दिया है, वही पुराना राग ।।
बरस रहा है——
🥈
क्या संदेशा लाया उनका, मुझको बता तो दे ।
हाव भाव से ही अपने तू ,उ नका पता तो दे ।
क्यों बैठा है मौन साधकर, नीम वृक्ष पर काग ।।
बरस रहा है——
🥉
फूलों के अब पेड़ खोजना, है कितना अवसाद ।
नागफनी का सदन-सदन में, साग़र है उन्माद ।
भँवरों के अधरों तक आये, कैसे यहाँ पराग ।।
बरस रहा है——–
मिलन ज्योति भी—-