हिज़्र भी वस्ल सा लगा है ये
हिज़्र भी वस्ल सा लगा है ये
इक नया तजरिबा हुआ है ये
हिज़्र भी वस्ल सा लगा है ये
अश्कों को भी समेट कर रखता
लोग कहते हैं मसख़रा है ये
वास्ते तेरे बस ग़ज़ल कहते
इस सुख़न -साजी ने किया है ये
दाल रोटी के रोज़ चक्कर में
इश्क़ तो अब हुआ हवा है ये
गुम तो.होशो-ख़िरद हुए हैं अब
प्यार करने का फ़लसफ़ा है ये
लफ़्ज़ों का खेल काग़ज़ों में बस
जाँ लुटा के भी क्या मिला है ये
कोई सूरत नहीं है बचने की
क़ैद से अब हुआ रिहा है ये
लुत्फ़ बस मीर की ग़ज़ल का लो
बस उसी का ही क़ाफ़िया है ये
दलबदल करते रोज़ हैं नेता
सब सियासत का पैंतरा है ये
बैठे दामन पसार के मीना
इश्क़ में अब तो इंतिहा है ये

कवियत्री: मीना भट्ट सिद्धार्थ
( जबलपुर )
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