इन्हीं दिनों | Inhi Dino
इन्हीं दिनों
( Inhi Dino )
अक्टूबर फिर गुज़रने को है
मेरे ज़ख़्म हरे करने को हैं
पारिजात की बेलों पर
नीले फूल महक रहे थे
उम्मीद की शाख़ों पर
आरज़ू के पंछी चहक रहे थे
तुम ने इन्हीं दिनों दबे स्वर में कहा
जा रहा हूँ सात समन्दर पार
यदि हो सके तो
तुम करना इन्तज़ार
तुम्हें कैसे बताऊँ
उस लम्हे की कसक
ज़मीं पे गिर गया था
मेरी कल्पनाओं का फ़लक ।
डॉ जसप्रीत कौर फ़लक
( लुधियाना )