जाने कहां चले गए

जाने कहां चले गए ?

जाने कहां चले गए ?

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महंगाई महंगाई का शोर करने वाले,

सड़क और संसद पर धरना देने वाले!

नहीं दिख रहे आजकल?

जो बात बात पर करते थे बंद का आह्वान,

प्याज की माला गले में डाल-

चलते थे सीना तान।

जाने कहां चले गए?

सो रहे होंगे शायद?

या फिर खो गए होंगे ?

उन्हें तो मिल ही जाता है-

कैंटीन में किफायत!

पेट्रोल डीजल गैस टमाटर की महंगाई

अब नहीं दिखती ?

भले ही पंपों पर 90 पार-

और 50 की हो बिकती !

आमजन भी है खामोश?

कुछ कोरोना ने भी कर दिया है,

जीवन चिंताओं से भर दिया है।

जैसे तैसे घर की गृहस्थी चला रहे हैं,

कुछ समझ नहीं पा रहे हैं।

आमदनी कम है?

फिर भी कुछ कहने से कतरा रहे हैं।

पूछने पर दबी जुबान में बतला रहे हैं-

लगे हाथ कोरोना को वजह बता रहे हैं,

व्यवसाय मंद है , ठप्प हैं काम धंधा,

भला हो सस्ते मूल्य के राशन का!

महीने में 20 किलो गेहूं/चावल मिल जा रहे हैं ,

उसे ही पीस/पका कर खा रहे हैं ।

वरना गृहस्थी भी ठप हो जाती?

गृहणीयां बेवजह बेलन उठाती ।

कुछ ना कुछ कर जाती,

शासन प्रशासन को हिलाती;

कुर्सियां कितनों की गिराती ।

शुक्र है ऐसा नहीं है ,

लेकिन धरना देने वालों का-

इतना भी खामोश रहना ठीक नहीं है ।

क्या अब महंगाई नहीं है डायन?

या फिर बन गई है समधन!

 

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नवाब मंजूर

लेखक-मो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर

सलेमपुर, छपरा, बिहार ।

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कर्मफल

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