जहां चाहता हूं
( Jahan chahta hoon )
न नफ़रत का कोई जहां चाहता हूं!
सियासत की मीठी जुबां चाहता हूं!
मिटे जात मजहब के झगड़े वतन से
मुल्क हो मुहब्बत का बागवा चाहता हूं!
रहे मुसलसल आदमी मेरे अंदर लेकिन
हो जाना मैं इक इंसा चाहता हूं!
नुमाइश बहुत हो चुकी यारों अब
ख़त्म गुर्बत की हो दास्तां चाहता हूं!!
शायर: मोहम्मद मुमताज़ हसन
रिकाबगंज, टिकारी, गया
बिहार-824236