हाड़ कपावै थर थर ठण्डी
माह दिसम्बर
चहुं दिगम्बर
छाया कुहरा
धरती अम्बर,
न आगे न पीछे सूझै
काव करी कुछ मन न बूझै
ठंडी कै
बढ़ि गै प्रकोप
बाप रे बप्पा
होइ गै लोप
भइल रात दिन
एक समान
कइसे बचै
बाप रे जान
ठंडी ठंडी
बहय बयार
बाहर निकलब
भय दुस्वार
हाड़ कपावै
थर थर ठण्डी
जले रात दिन
लकड़ी कण्डी।
कट कट कट कट
बाजै दांत
दिन बीतै न
बीतै रात,
टप टप टप टप
कुहरा चूवै
परै बदन तो
जैसे मूंवै,
सुर सुर सुर सुर
बहै पुरवाई
लागै जैइसै
देइ मुवाई,
बाप रे बप्पा
अइसन ठण्डी
जलै रात दिन
लकड़ी कण्डी।
गोरू चौउवा
भयल बेहाल,
पुरनियन कै
पूंछा न हाल,
कुड़-कुड़-कुड़-कुड़
लड़िकै कापैं
तापै ताइन
सबही डाटैं,
लड़िकै बंदर
एक समान
एक जगह
न बइठै आन,
दादौ बोलैं
दादिव बोलैं
तबहुं न बच्चैं
तनिको डोलैं,
कब निकलै दिन
कब भै सांझ
होइ पावै न
एकव काज,
तापैं तपता
सब दिन रात
तनिकौ ठण्डी
तबो न जात,
ठप्प भयल सब
धंधा धंधी,
जलै रात दिन
लकड़ी कण्डी।
औरत बैठि
बैठि बतियात
खतम होय न
केहू कै बात,
नहाब धोय सब
होइ गै सपना
जान बचावै
सब कोइ अपना
छींक छां कोई
छींकत आवै
सट पट कोई
नाक बहावै
ओढ़े बेढ़े
पुंछै हाल
केहू कहय जो
है खुशहाल
काम काज सब
कइ कै बंदी,
जलै रात दिन
लकड़ी कण्डी।
रचनाकार –रामबृक्ष बहादुरपुरी
( अम्बेडकरनगर )