कईसन बाड़ऽ तुऽ | Kaisan baral tu

कईसन बाड़ऽ तुऽ

( Kaisan baral tu ) 

 

अपन घर छोड़ि के
दूसरे के घर ताड़अ ताड़ऽ।
कईसन बाड़ऽ तुऽ
केहू के बात न मानऽ ताड़ऽ,

लईका बह गईल,
लईकनि बह गईलऽ
खेत, मेड़ खलिहान दह गईल।
तबहुं न सम्भल ताड़ऽ,
कईसन बाड़ऽ तुऽ
केहू के बात न मानऽ ताड़ऽ।

मोंछि पर तॉव देऽ,
बपौती पर शेखी बघांड़ऽ।
बेचि बेचि के पियत खात
भविष्य न सुधारऽ ताड़ऽ।
कईसन बाड़ऽ तुऽ
केहू के बात न मानऽ ताड़ऽ।

सांझ-बिहान लोग देता ताना
केसे कौनऽ करि बहाना,
ठॅठात हँसत आवेलीऽ लाली
बानी बुझावतऽ बजावेलीऽ ताली।
हियरा के आह न समझत ताड़ऽ
कईसन बाड़ऽ तुऽ
केहू के बात न मानऽ ताड़ऽ।

बनऽ बड़का होशियार
दूसरे के समझावऽ,
अपने माथा कुऑ में गिरावऽ
मेहरारू के गरिआवतऽ
समाज में धाक जमावऽ ताड़ऽ,
कईसन बाड़ऽ तुऽ
केहू के बात न मानऽ ताड़ऽ।

अबोऽ से संभरि जईत
पर घर के गुन ना गईतऽ,
होईत नया दिन के नया बिहान
सज्जित घर गृहस्थी और परिधान।

 

लेखक: त्रिवेणी कुशवाहा “त्रिवेणी”
खड्डा – कुशीनगर

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