
ऐसी वो अनपढ़ पीढ़ी
( Aisi wo anpadh pidhi )
हम है! हिन्दी भाषा के लेखक,
कोई न समझे हमें चाहें बेशक।
घूमती है यह एक बात मस्तक,
कोई मिल जाये नूतन शीर्षक।।
दिन में मिलता ना हमें आराम,
रात्रि लिखनें में करतें है ख़राब।
कब हुई आधी कब भौर ये हुई,
मुझे लगा आज रात्रि नही हुई।।
वो थी भारत की अनपढ़ पीढ़ी,
समय से सोती थी और जगती।
सुबह २ तुलसी में जल चढ़ाती,
कैला-बरगद व पीपल पूजती।।
पक्षियों को दाना-पानी वो देती,
जितना खाएं थाली में वो लेती।
अन्न व्यर्थ नाली में नही बहाती,
बची हुई रोटी गाय को वे देती।।
वो थी पीढ़ी बिलकुल में सच्ची,
दुःख-सुख में हाथ वही बटाती।
गलती कबूल की हिम्मत रहती,
सुधार करने का प्रयत्न करती।।
पेड़-पौधों का ध्यान वह रखती,
सुबह से शाम यें मेहनत करती।
पूरी रात सुख की नींद में सोती,
ऐसी वो देश की अनपढ़ पीढ़ी।।
रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )
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