अपने ही घर में बेगाने लगते हैं | Kavita Apne hi Ghar mein
अपने ही घर में बेगाने लगते हैं
( Apne hi ghar mein begane lagte hain )
मान मर्यादा इज्जत पाने में जाने कितने जमाने लगते हैं।
कैसी करवट ली वक्त ने अपने ही घर में बेगाने लगते हैं।
जान छिड़कने वाले ही हमको जानी दुश्मन लगते हैं।
मधुर मधुर मुस्कान बिखेरे भीतर काले मन रखते हैं।
जहर घुल रहा रिश्तो में विश्वास डगमगा रहा सारा।
नैन दिखाते नयनतारे कैसे होंगे बुढ़ापे का सहारा।
स्वार्थ की मनुहार हो रही मतलब की सब रिश्तेदारी।
अपना उल्लू सीधा करने अब दौड़ रही दुनिया सारी।
जिंदगी के सफर में मुसाफिर को ध्यान रखना है।
तय करनी हो लंबी दूरी संग कम सामान रखना है।
रचनाकार : रमाकांत सोनी सुदर्शन
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )
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