Kavita Deewaar

दीवार | Kavita Deewaar

दीवार

( Deewaar )

( 2 )

होते थे कभी मकान मिट्टी के कच्चे
मगर उनमे पलते थे प्यार पक्के
आज बढ़ने लगे हैं मकान पक्के
मगर रिश्ते दिल के हो गये हैं कच्चे

कभी होते थे रिश्ते खून के अपने
अब अपने ही करने लगे खून रिश्तों का
चलने लगे हैं खेल चौसर के अपने ही
शकुनि मरकर की भी आज जिंदा है दिलों मे

एक दीवार सी खिंच गई है रिश्तों के बीच
जहाँ बेबाक अल्फाज नहीं चलते
अपनों की तलाश खत्म हि नही होती
कोई किसी के अपने बनकर भी नहीं मिलते

जहाँ बरतनी हो सावधानी हर बात पर
जहाँ सोचना हो कि अब क्या कहा जाय
अपनापन कितना भी गहरा हो वहाँ
पर, ऐसे रिश्तों को क्या कहा जाय

धन, ज्ञान , वैभव, पद प्रतिष्ठा
सब व्यर्थ है विश्वास हि न हो जहाँ
लगन, भरोसा, उम्मीद क्या करें
निर्मलता का बहाव हि न हो जहाँ

( 1 )

गुड़िया सी जिंदगी होती नहीं
हर इंसान मे बंदगी होती नहीं
मिलते हैं काफ़िर भी नमाजीभी
एक सी सब की हस्ती होती नही

राहे उल्फत भी है बेवफाई भी
कहीं मातम है कहीं शहनाई भी
बहकने के रास्ते तो बहुत हैं यहाँ
मिलते हैं खंजर् भी रहनुमाई भी

तुमपर है चुनाव खुद के मंजिल का
मिल हि जाता है पता साहिल का
भीतर आपके जिद्द होनी चाहिये
जला दे मुश्किल को आग होनी चाहिये

जहन्नुम भी यहीं जन्नत भी यहीं
नफरत भी यहीं मुहब्बत भी यहीं
फैसला है कल का हाथ आपके
ऊँचाई भी यहीं गहराई भी यहीं

बंदिशें तो लगी हैं सभी पर यहाँ
आप भी अलग तो हो नही सकते
थक हार कर बैठ गये यदि तुम कभी
दीवार को तब फतह कर नही सकते

मोहन तिवारी

( मुंबई )

यह भी पढ़ें :-

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *