महल अपनी गाते हैं | Kavita
महल अपनी गाते हैं
( Mahal apni gate hain )
ऊंचे महलों के कंगूरे, आलीशान दमक वाले।
रौब जमाते मिल जाते, चकाचौंध चमक वाले।
मेहनतकश लोगों पर भारी, अकड़ दिखाते हैं।
मोन रहती मजबूरी तब, महल अपनी गाते हैं।
शानो शौकत ऊंचा रुतबा, ऊंचे महल अटारी।
झोपड़ियों को आंख दिखाते, बन ऊंचे अधिकारी।
गाड़ी मोटर बंगला कारें, ठाट बाट दिखलाते हैं।
खून पसीना वो क्या जाने, महल अपनी गाते हैं।
नीले अंबर नीचे कितने, कड़ी मेहनत करते होंगे।
सह धूप आंधी तूफ़ान को, उदर पूर्ति करते होंगे।
बड़े-बड़े मंच दिग्गजों के, बड़े आयोजन भारी।
बड़ी-बड़ी पार्टियां होती, खिलती महल फुलवारी।
जरूरतमंद भूल से दर पर, दरवाजे तक जाते हैं।
सब दीवारों के कान गूंगे, महल अपनी गाते हैं।
कोई दुखियारा जाता है, अपना दर्द सुनाने को।
तकलीफों का मारा कोई, जरा सहारा पाने को।
देते हैं दुत्कार महल से, अति शीघ्र भगाते हैं।
दया धर्म का नाम नहीं, महल अपनी गाते हैं।
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )