पत्थर | Kavita patthar
पत्थर
( Patthar )
उकेरते जाते हैं अक्स,
तो सितम ढाती हैं छैनी
यहां दर्द की परिभाषा
मेरी ,जाने भला कौन
हूं मोन ही बस मोन।।
बिखरी पड़ी है इमारतों पर
कई सालो से भाषाओं की ,
उकेरी गई हर प्रतिलिपि यहां
मेरी दर्द की तस्वीर की तरह ।।
में तराशा गया ,तुम्हारे लिए
कभी गुम्मद हुआ मकबरे का
कभी सजाया गया मंदिरों में,
कभी दीवार तो कभी मीनार
और कभी नीव का पत्थर बना ।।
जरूरतें तुम्हारी ही रही सदैव
और काटकर लाया गया मुझे
दास्तान तो तुम्हारी ही रही हैं
तराशा गया हमेशा ही मुझे ।।
मेरे दर्द से तुझे न मतलब रहा
इंसान तू बहुत खुदगर्ज रहा
तू टुकड़े करता रहा लाख मेरे
पर मैं भी मजबूत हूं दिल से ।।
अपनी जरूरत के लिए पूजा ,
मैं दिल से सालेग्राम हो गया
तूने अपनाया जब भी मुझे
में तेरा मकान की दीवार हो गया ।।
प्रतिभा दुबे (स्वतंत्र लेखिका)
ग्वालियर – मध्य प्रदेश