लेखनी
( Lekhni )
जाती ही नही लेखनी कल्पना के लोक मे
कैसे करूं श्रृंगार,समय के इस वियोग मे
खमोशभाईं बच्चे,बेटियां भी हैं सहमी हुई
अधरों पर आए हंसी कैसे,अपनों के शोक मे
सुना था की ,देश को मिल गई है आजादी
पर,हुए हैं आज़ाद कौन इस मुल्क में
सिसक रही झोपड़ी,आज भी महलों के नीचे
अनाथ मांग रहे भीख, ले कटोरा हाथ में
वस्त्र नही ढकने को, कोई फाड़ पहन रहा
नग्न सी हो रही नारियां,आज अपने देश में
मिट न जात पात,गरीबी अमीरी का द्वंद्व है
छल कपट मचे शोर मे,केवल रोष ही रोष है
अन्याय,अनाचार मे भी ,अदालतें बंद हैं
गाउं मैं गजल गीत कैसे,इस हालते दौर में
कलम को हो सुकून कैसे, इस समाज में
कैसे करूं श्रृंगार अब,समय के वियोग में
( मुंबई )