कविता परिवर्तन | Kavita Privartan
कविता परिवर्तन
( Kavita Parivartan )
सोचने को मजबूर एक सोच
सुबह के आठ बजे आते हुए
देखा एक बेटी को शौच करते हुए
नजरें मैंने घुमा ली शर्म उसे ना आए
मुझे देख कहीं लज्जित ना हो जाए
बना है घर पर शौचालय नहीं
शादी के लिए सोना तो जोड़ा
पर सुरक्षा के लिए शौचालय नहीं
पर्यावरण भी होता प्रदूषित यही
यह सोच मन में विकसित नहीं
मुद्दे कई होते कोई बोलता नहीं
रात में जाएं बेटियां सुरक्षित नहीं
पढ़ते हैं पेपरों में घटना यही
मिले सरकार से रुपए बराबर
पर शौचालय बन गया
देखो तो उपला घर
बच्चियां बेखौफ बाहर नहीं
सांझ ढले घटती है घटनाएं
आज भी गांव के यही हाल है
समझते नहीं तभी बेहाल हैl समझाइश की इन्हे
सख्त जरूरत हैl
अपराधों, को बढ़ता क्रम थोड़ा कम कर पाए हम
सोना चाहे ना पहनाए
गहने चाहे ना बनवाएं
हादसों को कम करने
घर में शौचालय बनवाएं
पुरानी सोच को आओ
थोड़ा बदल डालो,
कुछ जिम्मेदारी अपनी भी
समझ अपनी इसे निभा दो
पुरानी परंपरा में एक परिवर्तन कर डालो