कहां गई?
वो सोन चिरैया!
रहती थी जो सबके घर आंगन
चाहे महल हो या हो मड़ैया!
कहां गई??
क्या खो हो गई?
या रूठ कर हमसे दूर हो गई?
भारत मां की थी तू लाडली,
मिलजुलकर सबने जिसे थी पाली।
करती थी तू रक्षा हमारे अर्थव्यवस्था की,
सदियों पहले हमने व्यवस्था ऐसी बना ली थी।
घर घर में खनकती थी तब स्वर्ण मुद्राएं,
देख हमारी समृद्धि विदेशी ललचाए।
लोभवश ही वो भारत में आए,
अपनी चालबाजियों से हमें सताए।
दुरंगी नीतियों से हमें आपस में लड़ाया,
संसाधनों पर चुपके से कब्जा जमाया।
कला शिल्प के हुनर हमसे चुराए,
विदेशी माल से बाजार भर दिए;
उद्योग धंधे हमारे चौपट किए।
हमसे कर सहुलियत ले-
कर हमीं पर लाद दिए,
देशी राजे रजवाड़ों पर पकड़ बना लिए।
देकर सुशासन की दुहाई!
दौलत इंग्लैंड सब पहुंचाई।
सैन्य नीति कुछ ऐसे बनाए,
सम्पूर्ण भारत पर काबिज हो गए।
सौ वर्षों तक हमको लूटा,
बना लिया गुलाम,
फिर किए आजादी को हम आंदोलन।
स्वतंत्रता प्रेमियों को मनभर कूटा,
पाप का घड़ा उनका एक दिन फूटा;
कैद से उनके हर एक भारतीय छूटा।
देश हुआ आज़ाद,
परन्तु तब तक अर्थव्यवस्था हमारी
हो चुकी थी खाक?
देख ये अपना हाल,
याद आ जाए बरबस वो स्वर्ण काल ;
जब थे हम आत्मनिर्भर खुशहाल।
गर आपस में न लड़ते
तो ये दिन देखने न पड़ते।
अपनी सोन चिरैया घर घर में रहती,
सुबह शाम फुदकती चहकती।
चहकती फुदकती हमारी अर्थव्यवस्था,
देख आंसू आ जाते हैं आज की व्यवस्था!
कहां हो ओ सोन चिरैया?
आ जा ! लौट आ तू ,
ढ़ूंढ़े तेरी मड़ैया।