कुछ खतायें है अक्स-ए-रुखसार में | Ghazal kuch khataayen
कुछ खतायें है अक्स-ए-रुखसार में
( Kuch khataayen hai aks e rukhsaar mein )
कुछ खतायें है अक्स-ए-रुखसार में
हम बिगड़ चुके है निगाह-ए-यार में
चस्म-ए-क़ातिल से हमे भला कौन बचाये
अब इस पयाम के मलाल-ए-यार में
खूब हो तुम भी के नाराज़ हो हमसे
और हम पे ही ऐब है ऐतवार में
खुदा जाने की क्या कमाल है उनमें
वही एक दिखती है गुल-ए-ज़ार में
कुछ आप क़सूर-वार है मुहब्बत में
कुछ हम भी कफील है दिल की दरार में
थोड़ी देर सही बिछा दीजिये अपना नैन हुजूर
मुहब्बत पे निसार इस अधूरी किरदार में
भूले नहीं भुलाये ये दुरुस्तगी, कैसे भुलाये
वो क्या जाने, क्या हाल है उनकी इन्तिज़ार में
ना होश रहा, ना तकमील-ए-नशा रहा
बदन लेट गया है, बिस्तर नाम की खार में
खुद का खुद ही सुनता नहीं बे-चारा ‘अनंत’
बाक़ी नहीं बचा दुसरो के इख्तियार में
शायर: स्वामी ध्यान अनंता