कुछ खतायें है अक्स-ए-रुखसार में
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कुछ खतायें है अक्स-ए-रुखसार में
हम बिगड़ चुके है निगाह-ए-यार में
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चस्म-ए-क़ातिल से हमे भला कौन बचाये
अब इस पयाम के मलाल-ए-यार में
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खूब हो तुम भी के नाराज़ हो हमसे
और हम पे ही ऐब है ऐतवार में
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खुदा जाने की क्या कमाल है उनमें
वही एक दिखती है गुल-ए-ज़ार में
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कुछ आप क़सूर-वार है मुहब्बत में
कुछ हम भी कफील है दिल की दरार में
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थोड़ी देर सही बिछा दीजिये अपना नैन हुजूर
मुहब्बत पे निसार इस अधूरी किरदार में
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भूले नहीं भुलाये ये दुरुस्तगी, कैसे भुलाये
वो क्या जाने, क्या हाल है उनकी इन्तिज़ार में
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ना होश रहा, ना तकमील-ए-नशा रहा
बदन लेट गया है, बिस्तर नाम की खार में
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खुद का खुद ही सुनता नहीं बे-चारा ‘अनंत’
बाक़ी नहीं बचा दुसरो के इख्तियार में
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शायर: स्वामी ध्यान अनंता