Lahoo se

लहू से ये दुनिया कब तक नहाये ?

( Lahoo se ye duniya kab tak nahaye ) 

 नज़्म 

 

बारूद को मैं बुझाने चला हूँ,
चराग़-ए-मोहब्बत जलाने चला हूँ।

दुनिया है फानी, दो पल की साँसें,
बिछा दी है लोगों ने लोगों की लाशें।
रोती फिजा को हँसाने चला हूँ,
चराग़-ए-मोहब्बत जलाने चला हूँ,
बारूद को मैं बुझाने चला हूँ।

किसी के मुताबिक हवा क्यों चले ये?
किसी के मुताबिक जहां क्यों जले ये?
नासमझी से परदा उठाने चला हूँ,
चराग़-ए-मोहब्बत जलाने चला हूँ,
बारूद को मैं बुझाने चला हूँ।

चाँद-सितारे खफ़ा हैं जहां से,
लाऊँ मैं इंशा बोलो कहाँ से।
खुदा को कमी ये बताने चला हूँ,
चराग़-ए-मोहब्बत जलाने चला हूँ,
बारूद को मैं बुझाने चला हूँ।

लहू से ये दुनिया कब तक नहाये,
नफरत की आँधी न कोई चलाये।
जख्मों पे मरहम लगाने चला हूँ,
चराग़-ए-मोहब्बत जलाने चला हूँ,
बारूद को मैं बुझाने चला हूँ।

फूल और खुशबू जहां में बसे फिर,
जीने की लज्जत सबकी बढ़े फिर।
गुफ़्तगू अमन की बढ़ाने चला हूँ,
चराग़-ए-मोहब्बत जलाने चला हूँ,
बारूद को मैं बुझाने चला हूँ।

 

लेखक : रामकेश एम. यादव , मुंबई
( रॉयल्टी प्राप्त कवि व लेखक )

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