मज़दूरों की दिवाली और कामकाज
कात्तक बदी अमावस आई,
दिन था खास दिवाळी का
कार्तिक के महीने में फसल व पशु बेचने से पैसा कमाकर उससे ताजा ब्याए हुए पशु (दुधारू गाय – भैस) को ख़रीद कर दूध-दही-घी व उनसे बने हुए पकवान खाने का आनंद लेते व किसान के घर धन आने का उल्लास अब धनतेरस है।
अपने पशुओं के सींगों को तेल लगाकर, उनके गले में घुंघरू गुंद कर मोर पंख से बनाए हुए पशुओं के गहनें चौरासी, गाण्डली व पटवे बांधकर अपने बच्चों की तरह सजाने-संवारने तथा देर रात के अंधेरे में पौधों की कॉख में मशरूम की तरह उगने वाले “सतपुड़े” पर घी डालकर उसमें आग जलाकर हिड़ो-रै-हिड़ो” गाते हुए तथा 40-50 साल पहले तक गेंहू की बालियों, चने की टाटों, बाजरें की सरटिओं, तिलहनों व दलहणों की फलियों तथा जमीन के मोटे-मोटे डळों को मसलकर किसानों की मदद करने वाले औजार “गिरिडी” के नाम पर मनाया जाने वाला त्यौहार ”गिरड़ी” अब छोटी दिवाली है।
कातक के महीने में गन्ने का रस में मिठास हो जाता है तथा मौस (अमावस) जिस दिन हाळी अपने बैलों की छुट्टी (Compulsory Rest) करता है को कोल्हू की साफ सफाई करके, तेल वगैरा लगाकर, नट बोल्ट को टाइट करके गन्ने की पिड़ाई के लिए तैयार किया जाता था और पूरी फसल की पिड़ाई ठीक-ठाक से हो जाए इस कामना के रूप में की जाने वाली कोल्हू-धोक अब दिवाली बन चुकी है। “धोक” को पूजा ना समझे इन दोनों में बहुत फर्क होता है।
सर छोटू राम कहा करते थे कि “फंडी और मंडी की नजर तुम्हारी जेब पर रहती है जब भी तुम्हारी जेब में पैसा आएगा फंडी कोई नया पाखंड लेकर आएगा और मंडी कोई नया कबाड़ लेकर आएगा। आपकी जेब से पैसा निकाल कर फंडी-मंडी लेकर जाएगा बदले में पाखंड और कबाड़ तुमको पकड़ा जाएगा।“
गणेश, लक्ष्मी और कुबेर जैसे काल्पनिक देवी-देवताओं की पूजा करने पर धन वर्षा होने का भ्रम फैलाया जाता है।
फंडी अपने सहायक मंडी की आमदनी का प्रबंध करने के लिए धनतेरस पर बर्तन, सोने-चांदी, वाहन, लग्जरी वस्तुओं और बेजरूरत या कम जरूरत की अन्य दूसरी चीजों की खरीदारी करने के लिए यह कहकर प्रेरित करता है कि धनतेरस के दिन खरीदी गई वस्तुओं में तेरह गुणा वृद्धि होती है। इसके साथ-साथ कुबेर यन्त्र जैसी पाखंड फैलाने वाली चीजों की खरीदारी करवा कर पाखंड फैलाने का पक्का इंतजाम भी करता है।
स्वाभाविक है फंडी और मंडी के जाल में फंसकर किसान व खेती किसानी पर आधारित वर्ग अपने आप की बर्बादी का न्योंता देता है और बर्बाद हुए खेती किसानी के सबसे अहम किरदार हाळी के घर दिवाली के दिन की हालत को महान लोक कवि ज्ञानी राम जी ने ऐसे ब्यान किया है:
“कात्तक बदी अमावस आई, दिन था खास दिवाळी का
आंख्यां के म्हां आंसू आग्ये, घर देख्या जब हाळी का
सभी पड़ौसी बाळकां खातर, खील-खेलणे ल्यावैं थे
दो बाळक देहळियां म्हं बैठे, उनकी तरफ लखावैं थे
जळी रात की बची खीचड़ी, घोळ सीत म्हं खावैं थे
आंख मूंद दो कुत्ते बैठे, भूखे कान हिलावैं थे
एक बखोरा, एक कटोरा, काम नहीं था थाळी का
किते बणै थी खीर किते, हलवे की खुशबू ऊठ रही
हाळी की बहू एक कूण म्हं, खड़ी बाजरा कूट रही
हाळी नै एक खाट बिछाई, पैंद थी जिसकी टूट रही
होक्का भरकै बैठ गया वा, चिलम तळै तै फूट रही
चक्की धोरै डन्डूक पड्या था, जर लाग्या फाळी का
दोनों बाळक आशा करकै, अपणी मां कै पास गए
मां धोरै बिल पेह्स करया, फेर पूरी ला कै आस गए
थारे बाप के जी नै रोल्यो, सो जिसके थाम नास गए
माता की सुण बात बाळक फेर, फट बाब्बू कै पास गए
इतणी सुणकै बाहर लिकड़ग्या, वो पति कमाणे आळी का
तावळ करकै गया सेठ कै, कुछ भी सौदा ना थ्याया
भूखा प्यासा गरीब बेचारा, बहोत घणा दुख पाया
के आई करड़ाई सिर पै, मन म्हं न्यूं घबराया
हाळी घर नै छोड़ डिगरग्या, फेर बोहड़ कै ना आया
ज्ञानीराम कहै चमन उजड़ग्या, पता चाल्या ना माळी का”
कारपोरेट जगत की मुनाफाखोरी की मानसिकता को कार्ल मार्क्स ने बयान करते हुए कहा है कि वो अपनी फांसी की हालत में भी रस्सी बेचने की फिराक में रहता है और ये तो उल्लास का मौका है इसलिए:
देशभक्ति व राष्ट्रीयता का ड्रामा करने वाले लोग सेल के नाम पर पूरे साल के कबाड़ (रिजेक्टेड माल) तथा भारत के स्वाभाविक विरोधी चीन में बनी हुई निम्न स्तर की वस्तुओं को बेचने के लिए बाजार को सजा देते हैं।
इतिहास को हिंदू और मुसलमान के नजरिए से परोसने वाले लोग मंगोल द्वारा ईजाद किए गए उस बारूद से बने पटाखों की बाकायदा स्टाल लगाकर बिक्री करते हैं जिसको तोप में भरकर बाबर ने हिंदुस्तान पर फतह हासिल की थी। आज से 30-35 साल पहले तक दिवाली पर कोई पटाखा नहीं बजाया जाता था, थोड़े बहुत पटाखे होली पर जरूर बजाए जाते थे।
वातावरण को धुंए व कानफोड़ू शोर-सराबा पैदा करके बच्चों, वृद्धों व श्वास के रोगियों का जीना दूभर करके बीमार इंसान को केवल पैसा कमाने का जरिया समझने वाले डॉक्टरों के लिए भी अवसर पैदा कर दिए जाते हैं।
जालिम के जुल्म पर उंगली ना उठे इसलिए धुंए को पराली जलाने से पैदा हुआ बताकर व कुछ किसानों को कृषि अवशेषों को जलाने के आरोप में जेल में डाल कर यह साबित कर दिया जाता है कि वातावरण प्रदूषण में लछमी पुजारिओं का कोई दोष नही है।
जिस तेल के रसोई में न होने की वजह से गरीब औरतें अपने बच्चों के लिए साधारण से व्यंजन भी नहीं बना सकती है उस तेल को करोड़ों दियों में डालकर बर्बाद कर दिया जाता है। फिर कोई मासूम व लाचार बच्ची उस बर्बाद तेल को अपनी रसोई के लिए किसी बर्तन में इकट्ठा कर रही होती है।
संस्कृति, अपने त्यौहार, अपनी परंपराओं तथा अपनी सरमाएदारी को बर्बाद करके खुशियां मनाई जा रही है व एक दूसरे को शुभकामनाएं दी जा रही है।
ऐसा भी बिल्कुल नहीं है कि इस पर साहित्यकारों ने कोई उंगली ना उठाई हो। हिंदी के महान कवि हरिवंश राय बच्चन जी की कविता इस आडंबर पर करारी चोट करती है व अंदर तक झकझोर देती है :…..
ना दिवाली होती, और ना पठाखे बजते
ना ईद की अलामत, ना बकरे शहीद होते
तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता,
…….काश कोई धर्म ना होता….
…….काश कोई मजहब ना होता….
ना अर्ध देते, ना स्नान होता
ना मुर्दे बहाए जाते, ना विसर्जन होता
जब भी प्यास लगती, नदीओं का पानी पीते
पेड़ों की छाव होती, नदीओं का गर्जन होता
ना भगवानों की लीला होती, ना अवतारों
का नाटक होता
ना देशों की सीमा होती , ना दिलों का
फाटक होता
ना कोई झुठा काजी होता, ना लफंगा साधु होता
ईन्सानीयत के दरबार मे, सबका भला होता
तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता,
…….काश कोई धर्म ना होता…..
…….काश कोई मजहब ना होता….
कोई मस्जिद ना होती, कोई मंदिर ना होता
कोई दलित ना होता, कोई काफ़िर ना होता
कोई बेबस ना होता, कोई बेघर ना होता
किसी के दर्द से कोई बेखबर ना होता
ना ही गीता होती , और ना कुरान होती,
ना ही अल्लाह होता, ना भगवान होता
तुझको जो जख्म होता, मेरा दिल तड़पता.
ना मैं हिन्दू होता, ना तू भी मुसलमान होता
तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता।
काश ऐसा होता,
तो पूरी दुनिया एक परिवार होता
मानवता इंसानियत और प्रेम का अनंत विस्तार होता।
मनजीत सिंह
सहायक प्राध्यापक उर्दू
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय ( कुरुक्षेत्र )