मर्द का दर्द

( Mard ka dard ) 

 

थाली बजी, खुशियां मनाई,
लड़के होने पर सबने बधाईयां बांटी,
बलाइया ली, काला टीका लगाया,
परिवार का वंश देने पर सबने मां को गले लगाया,
धीरे-धीरे वक्त बीता,
राजकुमार की तरह मैं रहा जीता,
यौवन के पड़ाव पर खुद से जब रूबरू हुआ,
एक राजकुमार से खुद को मजदूर होते पाया,
घर की जिम्मेदारी का भार कंधों पर आया,
देखकर मतलबी चेहरे अपनो के
अपनो के बीच भी खुद को अकेला पाया,
दर्द हुआ चोट लगी, मगर बचपन की तरह किसी ने मरहम नहीं लगाया,
दिल टूटा,ख्वाब छूटे,मगर बचपन के जैसे मां को दिल का दर्द नहीं बता पाया,
काम मिला,काम छूटा, बेइज्जती हुई,हर अपना रूठा,
जितना चाहा साबित करना खुद को,
करार कर दिया गया तब तब मुझे झूठा,
कह देते है अब सब मर्द को दर्द नहीं होता,
वजह भी तो जानो वो क्यों सबके सामने नहीं रोता,
दर्द उसे भी चार गुना ज्यादा होता है,
पर जिम्मेदारियों के भार तले वो दब जाता है,
जिसके होने पर बधाई बांटी गई,
बड़े होने पर उसे खुद ही करनी पड़ी अपने साथ साथ सबके लिए कमाई,
बेटे से पति बना, पति से बना बाप,
ज़िंदगी हमारी भी सरल नहीं है,
कहीं ना कहीं हमारा होना भी बन जाता है हमारे लिए एक अभिशाप।।

रचनाकार : योगेश किराड़ू
बीकानेर ( राजस्थान )

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