ओढ़कर धानी चुनरिया | Thesahitya Special
ओढ़कर धानी चुनरिया
( Odh Ke Dhani Chunariya )
ओढ़कर धानी चुनरिया, धरा यू हरसा रही।
काली घटाएं नीले अंबर, व्योम घिरकर छा रही।
आ गया सावन सुहाना, गीत कोयल गा रही।
वन उपवन पर्वत नदियां, भावन घटायें छा रही।
मादक सरितायें बहती, सागर मिलन को जा रही।
बलखाती सी बहती धारा, मन ही मन इठला रही।
बारिश की बूंदे रिमझिम, मल्हार गीत सुना रही।
ओढ़कर धानी चुनरिया, धरा यूं हरसा रही।
बाग में झूले लगे हैं, बह रही पुरवाई है।
सोलह कर सिंगार सुंदरी, झूला झूलन आई है।
गौरी मेहंदी रचकर आई, आया मनभावन सावन।
खिल गए पुष्प मोहक, महक रहा सारा उपवन।
सारी सखियां खुशियां लेकर, गीत सावन गा रही।
उमड़ घुमड़कर काली बदरी, रससुधा बरसा रही।
ठंडी ठंडी बूंदे सबके, तन मन को हर्षा रही।
ओढ़कर धानी चुनरिया, धरा यूं हरसा रही।
खेतों में हरियाली आई, खुशियां छाई घर-घर में।
गड़ गड़ मेंघ गर्जन करते, दामिनी दमके अंबर में।
उर में उठती नेह लहरें, नैनों से बरसता प्यार।
भाई-बहन प्रेम सूचक, पावन राखी का त्यौहार।
तीज सुहानी मनभावन सी, मस्त चले पुरवाई।
झूम झूम बांसुरिया धुन पर, नाचे लोग लुगाई।
गीतों की मधुर लहरिया, आसमां तक गुंजा रही।
ओढ़कर धानी चुनरिया, धरा यूं हरसा रही।
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )
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