पैसों की जुबा सुनलो | Kavita paison ki zuban
पैसों की जुबा सुनलो
( Paison ki zuban sunlo )
हर बार कसूर क्यों
मुझ पर ठहराते हो?
मेरे लिए क्यों इंसान
अपनों से अलग हो जाते हो ?
मैं आज हुँ कल नहीं
फिर क्यों इतना इतराते हो ?
मेरी मामूली किमत
रिश्तों से क्यों लगाते हो ?
तुम्हारी बेमतलब की चाह के
हेतु अपना मान क्यों गवाते हो ?
मेरा तोल लवण जैसा फिर क्यों
हकीकत से अंजान बने रह जाते हो?
माना की मैं जरूरी हुँ जीवन में,पर क्यों
सबसे किमती माँ बाप मुंह मोड जाते हो ?
मैंने तो तुम्हें उठाया है, क्यों बरसो का दिया
सहारा कुछ क्षण भर में गवाते हो ?
लेखक : दिनेश कुमावत
( सुरत गुजरात )
यह भी पढ़ें :