फूल बिछाना आ गया !

( नज़्म )

तेरे आते ही मौसम सुहाना आ गया,
इनकार में इकरार का जमाना आ गया।
वही रस, वही लहजे में खनक, वही अदा,
मानों फिर से अनार में दाना आ गया।

मैं चुमूँगा इन जुल्फों की घटाओं को,
मेरे कूचे में फिर मयखाना आ गया।
छलकेगी मदिरा उन हसीं नजरों से,
रोज-रोज पीने का बहाना आ गया।

इश्क़ और हुस्न को कोई रुसवा न करे,
हुस्न का वो बोझ फिर उठाना आ गया।
रफ्ता-रफ्ता मिट जाएँगी सारी दूरियाँ,
मुझे अब गिले-शिकवे भुलाना आ गया।

मत छिड़को मेरे जख्मों पे कोई नमक,
हर मुश्किल से मुझे टकराना आ गया।
ऐब अब दूसरों में मुझे दिखता ही नहीं,
जब से मेरे सामने आईना आ गया।

पत्थर की तरह चुप रहना छोड़ दिया मैंने,
हुस्न की दरिया में नहाना आ गया।
खुशबू आती है मेरे घर तक उसके बदन से,
मुझे भी अब तकदीर सजाना आ गया।

झाँक करके देखो मेरी आँखों का ख्वाब,
सलीके से मुझे अब जीना आ गया।
इकठ्ठा करता हूँ साया, उसे धूप न लगे,
कांटे हटाकर फूल बिछाना आ गया।

 

लेखक : रामकेश एम. यादव , मुंबई
( रॉयल्टी प्राप्त कवि व लेखक )

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