पिता | Pita par kavita
पिता
( Pita : Kavita )
रोज सवेरे निकल पड़ता
पिता परिवार की खातिर
कठिन परिश्रम पसीना बहाता
घर संसार की खातिर
बच्चों की शिक्षा ऊपर से
मोटी फीस का चक्कर
बारिश के मौसम में होती
टूटे छप्पर की फिकर
जीवन भर पूरी करता रहता
सारी फरमाइशें घर की
लगता है ऐसा मुश्किलें
पिता की होती नहीं हल्की
खुद के खाने की सुध नहीं
हर सुविधा जुटाता है
औलाद एक बार कहे
फिर वही चीज घर लाता है
बुढ़ापे की दहलीज पर
पिता जोर का झटका खाता है
जिस औलाद को पाला पोसा
फिर वो ही आंख दिखाता है
तीखी वाणी के तीर चलाते
सभ्यता संस्कार भुलाते
बुढ़ापे की लाठी होना था
पुत्र पिता की कमर तोड़ जाते
कोई शर्म रही ना बाकी
सच से मुंह को मोड रहे हैं
मात-पिता सेवा को तरसे
वृद्धाश्रम तक छोड़ रहे हैं
पिता को भगवान का दर्जा दे
करुणानिधि सो जाता है
जीवन की प्रचंड धूप सह
पिता योगी हो जाता है
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )