कहां गए भरत समान भाई

( Kahan gaye Bharat saman bhai )

 

आज कहां गए ऐसे भरत समान भाई,
यह भाई की भाई जो होते थें परछाईं।
आदर्शों की‌ मिशाल थें वो ऐसे रघुराई
महिमा जिनकी तुलसी दास ने सुनाई।।

ठुकरा दिया था उन्होंने राज सिंहासन,
ऐसे वो राम लखन भरत शत्रुघ्न भाई।
यह प्राण भले जाए पर वचन ना जाई,
रघुकुल की रीत सदा ऐसी चली आई।।

वचनों के खातिर वो चलें गए वनवास,
शोर्य पराक्रम एवं भरमार था विश्वास।
अंज़ाम क्या होगा जिसका नही सोचा,
रचा ऐसा उन्होंने मर्यादा का इतिहास।।

ऐसी पुण्य-धरा है अपनें भारतवर्ष की,
अनंत वीरों ने दिया यहां बलिदान भी।
अवतरित हुए थें यहां स्वयं वो विधाता,
गुण-गान करते है हम सभी आज भी।।

अयोध्या नगर वासी थें सभी वफादार,
निभाएं जहां पर प्रभु श्रीराम किरदार।
सुख-दुःख गम सहना-रहना सिखाया,
सभी की सुनतें एवं बनतें थें मददगार।।

 

रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )

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