क़लम की ताक़त | Poem kalam ki taqat
क़लम की ताक़त
( Kalam ki taqat )
क़लम चलती ही गई लेकिन स्याही ख़त्म ही नहीं हुई,
चेहरे पर झुर्रियां और ऑंसूओं की लाईन सी बन गई।
लोगों ने कहा क्या होगा लिखनें से पर हाथ रुकें नहीं,
जब रूपए आने लगें तो हमारी तकदीर ही बदल गई।।
अब वही लोग कहते क्या कमाल का लिखते है भाई,
बच्चें बुड्ढें जवान का उत्साह बढ़ता है रचना सुनते ही।
मान गऐ कविराज आपकों और आपकी लेखनी को,
नव उमंग और नव जोश भर जाता है रचना पढ़ते ही।।
कब बोलना क्या बोलना इसका सदा ध्यान है रखना,
फीके नहीं पड़े ज़िंदगी के रंग हमेशा मुस्कराते रहना।
ताक़त की ज़रुरत बुराई करने के समय ही पड़ती है,
लेकिन अन्न के कण व आनंद के क्षण व्यर्थ न करना।।
यही मेरी क़लम कभी-कभी गणित के हिसाब करती,
तो कभी भूगोल और इतिहासों को बख़ूबी समझाती।
विज्ञान और जनरल नॉलेज का ज्ञान भी सबको देती,
हु-ब-हू खूबसूरत चित्र भी हमारी यही क़लम बनाती।।
आज तक क़लम की ताक़त को कोई समझ न पाया,
बचा देती है फाॅंसी के फंदों से जब-जब क़लम चला।
एक आशा का दीया जलाया है इसी क़लम ने हमारा,
जिसने भी चलाया इस क़लम को उसका हुआ भला।।