राह-ए-इश्क | Poem Rah-E-Ishq
राह-ए-इश्क
( Rah-E-Ishq )
उसकी पलकों के ओट से हया टपकती है,
फिर भी देखो वो मौज-ए-बहार रखती है।
दाना चुगने वाले उड़ते रहते हैं परिन्दे,
क्या करे वो बेचारी तीर-कमान रखती है।
शाही घरानों से नहीं हैं ताल्लुकात उसके,
आसमां कीे छोड़, जमीं भी महकती है।
दोष उसका नहीं, ये दोष है जवानी का,
कातिल में है कितना हुनर, हुनर देखती है।
आशिकी की आँधी में उड़ते हैं परवाने,
किसमें है कितना जहर, जहर देखती है।
कौन उसके खाक-ए-दिल में खाक मिलाए,
हँस-हँसके उसका जख्म-ए-जिगर देखती है।
देखते हैं बूढ़े भी चश्मा उतार-उतार कर,
आज भी उनके इश्क में वो दम देखती है।
बरस रही है हसरत उसके हुस्न-ए-चमन पे,
लोग उठा रहे हैं लुफ्त दिन-रात देखती है।
तकदीर की पेंच यहाँ कौन समझता है,
टपकता है उसका नूर, चाँदनी झलकती है।
इस बहार-ए-उम्र में तू मत गंवा बाग-ए-जहां,
खोलकर राह -ए-इश्क का दरीचा देखती है।
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