
ज़मीर
( Zameer )
आज फिर से ज़मीर का इक सवाल उठाती हूं
मंचासीन के कानों तक ये आवाज़ पहुंचाती हूं
उनके स्वार्थ से बुझ गए हैं कुछ दीप खुशियों के
ज़रा ठहरो कि पहले उनकी ज्योत जलाती हूं।
बना कर कुटुम्ब विशाल फिर क्यूँ आपस में लड़ते हो
जिम्मेदारियाँ निभाने की बजाय क्यूँ चाल चलते हो
बंद करो अब तो समाज सेवा का ये राग अलापना
हड़पकर भी तख्त फिर क्यूँ औरों की मेहनत से जलते हो।
बी सोनी
( आविष्कारक )