काफिले में भी सफर तन्हा | Safar Tanha
काफिले में भी सफर तन्हा
( Kafile mein bhi safar tanha )
रोज सजती है महफिले जहां, रोज कारवां चलता है।
रोज कलम करतब दिखाती, शब्दों का मेला लगता है।
काफिले में भी हो सफर तन्हा, कलमकार रह जाता है।
एक आह दिल से निकले, गजरा गीतों का हो जाता है।
काफिले में भी सफर तन्हा
रोज देखता भागदौड़, दुनिया के बदले रंग ढंग सारे।
स्वार्थ में डूबी दुनिया के, नाचो नखरे करतब न्यारे।
कई मुखौटे किरदारों के, अचंभित सा हो जाता है।
धन के पीछे भाग रहे, कुछ समझ नहीं वो पाता है।
काफिले में भी सफर तन्हा
अपनी अपनी राहें सबकी, अपनी अपनी मंजिल है।
अपनी अपनी डफली बाजे, करे वही कहता दिल है।
शोर मचा है अंधाधुंध का, चकाचौंध खा जाता है।
भीड़ भरा माहौल सारा, समझ नहीं कुछ पाता है।
काफिले में भी सफर तन्हा
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )