संवेदनाएं | Sanvedanaen
संवेदनाएं
( Sanvedanaen )
जिम्मेदारियों के बोझ से
जब दब जाती है जिंदगी
सपने रह जाते हैं सपने ही
तब न रात होती है न दिन निकलता है
सुबहोशाम मे फर्क ही नहीं होता
दुनियावी भीड़ के माहौल मे
किसी अपने को तलाशती नजर
भटकती ही रह जाती है
पर ,कोई अपना नहीं मिलता
खत्म हो जाते हैं अपने बेगनों के फर्क
जो थाम ले हाथ मुसीबत मे
वही अपना सा लगता
किसी उम्मीद के नाम पर भी
नदी पर करना आसान हो जाता है
संवेदनाएं व्यक्त करनेवाले लोग
अक्सर तमाशाई ही होते हैं
पीठ पीछे का उनका उपहास
हो तो जाता है जानलेवा ,किंतु
मजबूरियां खामोश कर देती हैं
जब बढ़ जाता है जिम्मेदारी का बोझ
स्वयं को अकेले ही ढोने का साहस ही
आता है काम अपने
( मुंबई )