सरोज कौशिक की कविताएं | Saroj Koshik Poetry
क्या तुमने
क्या तुमने झरना देखा है?
देखी है उसकी यात्रा?
तुम्हें तो सिर्फ
अपने सुख से
मतलब है।
बताती हूं उसकी यात्रा का दुख।
तुम्हारी तरह मैंने
भी चाहा था मेरा
जीवन झरने सा बहता रहे,हर,हर।
लेकिन,
जब चुल्लू में उसका जल भरा
तो रंग मिला लाल
रक्त रंजित सा।
एक घायल चेहरा
कहता हुआ तूने भी न समझा मेरी
चोट के दर्द को?
अपने उद्गम से
जब निकलता हूं
तो अकेला होता हूं,
लेकिन रूकता नहीं
पत्थरों से टकराता ,
घायल होता,बहता
चला जाता हूं नीचे,
तुम मुझे ऊपर से नीचे गिरते देखकर,
आनंदित होते हो,
तस्वीरें खींचते हो,
अपने स्वार्थ में लीन
ध्यान ही नहीं आता
मैं कहां से गुज़रा,
कितना चोटिल,
चिट्टे पानी में देखते
अपने से हट कर
तब न दिखता किमैं
खुशी खुशी बह रहा
उसमें कितना दर्द
भरा है,भीतर ही भीतर।
तुम तो एक चोट से
घायल ,हाहाकार
करने लग जाते हो,
खुद को गिरने से
बचाने के लिए
दूसरों को गिराते हो
तुम क्या जानों कि
कितनी पीड़ा होती है,
गिरता हूं मैं जब
ऊपर से नीचे की ओर।
आदमी कितना स्वार्थी होगया है
अपने सुख के खातिर
दूसरे के दर्द को
समझना नहीं चाहता।
समझता,तो कभी न ख्वाहिश करता
मेरा जीवन,मेरा प्यार, झरने सा हो
बहता रहे,हर,हर।
कभी कभी अपने
दायरे से बाहर आकर
एक संवेदनशील
हृदय को धारण करो।
मानव बनो।
ज्ञानी नहीं।
सरोज कौशिक