सतत विद्रोही | Satat Vidrohi
सतत विद्रोही
( Satat Vidrohi )
सतत् विद्रोही-मैं सतत्,सनातन,
निरपेक्ष, निर्विकार, निर्भीक’ विद्रोही’
मैंने गान सदा, सत्य का ही गाया
धन- यश, वैभव, सत्ता सुंदरी का आकर्षण
मेरे मन को तनिक डिगा नहीं पाया…
धन -कुबेरों की अट्टालिकाओं को देख
मेरा हृदय कभी नहीं अकुलाया
क्रांतिवीरों के यशोगान में ही
मैंने जीवन का सब सुख पाया…
पदलोलुप,सत्ताधीशों की क्रूर, कठोर आलोचना कर
बिन सावन मेरा,मन -मयूर सदा हर्षाया …
मंटो,ओशो,मजाज़,साहिर,राहत, शैलेन्द्र
जैसे पुण्यात्माओं को मैंने सदा,
कोटि-कोटि शीश नवाया…
रचनाकार: अभिलाष गुप्ता
अजमेर ( राजस्थान )