मैं भी चाहूंगा
( Main bhi chaahunga )
कि इन सब बातों की नहीं है उम्र अब मेरी,
मुझे कुछ लोग कहते हैं,
मगर हसीं चेहरों पे मिटने को तैयार होना,
मैं भी चाहूंगा…
लानत है किसी दौलतमंद,
रसूखदार का दरबान होने पेे,
किसी मज़लूम, किसी बेबस का पहरेदार होना,
मैं भी चाहूंगा..
कभी लिखे ग़र अफसाने कोई बुलंद हौसलों,
मुसल्सल कोशिशों के तो,
ऐसी किसी कहानी का कोई किरदार होना,
मैं भी चाहूंगा…
जो कमतर को कहे अच्छा,
जो गिरते को भी अपना ले,
ख़ुदाया ऐसा कोई ‘सरदार’ होना,
मैं भी चाहूंगा..
ना ख्वाहिश तख्त की मुझको,न दरबारों की तमन्ना है,
अगर हो सके मुमकिन तो किसी शोख,
कमसिन का खिदमतगार होना,
मैं भी चाहूंगा…
बंधे मुट्ठी मेरी इंसाफ़ की खातिर,
मेरा कांधा किसी शिकस्तादिल के काम आए,
किसी मज़लूमो-मुफ़लिस का गमख़्वार होना,
मैं भी चाहूंगा…
ग़ुनाहे-इश्क को अज़ीमतरीन कहते हैं अक्सर लोग,
अगर ये सच है तो बेशक गुनहगार होना,
मैं भी चाहूंगा…
यूं तो सख्त नापसंद हैं बंदिशें और बेड़ियां मुझको मगर,
हां नर्म बाहों का,घनेरी जुल्फों का, गिरफ्तार होना,
मैं भी चाहूंगा
हरदम काटती चले नफरतो-वहशत के सिलसिले,
हर ज़ुल्म के सामने रहे तनी,ऐसी कोई तेग,कोई तलवार होना,
मैं भी चाहूंगा…
किसी टूटे दिल को दे सके तस्कीन जरा, हौसला थोड़ागर मिले मौका,
कोई ‘राहत’, कोई ‘साहिर’, कोई ‘ग़ुलजार’ होना,
मैं भी चाहूंगा…
जिसके हर सफ़्हे पे हो ख़ुलूसो-मुहब्बत और मेरे महबूब का चर्चा,
छपे ग़र ऐसा कोई रिसाला,कोई अखबार होना,
मैं भी चाहूंगा…
रिवायतें जितनी भी हैं बेहतरीन उनका पैरोकार होना,
मैं भी चाहूंगा
बुजुर्गों के इल्मो-फन का हकदार होना,
मैं भी चाहूंगा
ग़र ज़ुल्म की ख़िलाफत गद्दारी है तो गद्दार होना,
मैं भी चाहूंगा
रचनाकार: अभिलाष गुप्ता
अजमेर ( राजस्थान )