शांति, संतोष और आनंद
शांति, संतोष और आनंद
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संतोष भी
मेरे पास ही रहता था।
जब मैं !
खेतों में जाता
या फिर
भैंसों को चराता।
दोपहर को
छाछ के साथ
गंठा रोटी खाता था।
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आनंद तो
मुझसे दूर ही नहीं था कभी।
कभी
नदिया पे नहाने में !
कभी कभार के
शादी ब्याह के खाने में !
मण्डलियों के साथ
रतजगे कर
राग रागनियां गाने में !
भड़भूंजे के यहां
अलहदा अनाज भुनाने में !
मकर संक्रांति
होली दीवाली
गूगा नवमी मनाने में !
नया सिमाया
लंगोट पहनकर
कुश्ती दंगल जाने में !
मांगी हुई जो
साइकिल मिल जाए
उसको खूब घुमाने में !
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मैं और मेरा आनंद
तब
एक दूसरे को
खूब छकाते थे ।
परंतु तब
हमारे पास
पैसे नहीं आते थे।
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अब मेरे पास
खूब पैसे हैं।
पर पता नहीं क्यूं
ये मेरे पास
नहीं रह पाते हैं।
मैं इनको
पकड़ पकड़ कर लाता हूं
पर ये
भाग भाग कर
दौड़ जाते हैं !
हाथ नहीं आते हैं।
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इसलिए तो आजकल
शांति
संतोष
और आनंद
तीनों मिलकर
मुझे छकाते हैं।।
डॉ. जगदीप शर्मा राही
नरवाणा, हरियाणा।