हाड़ कपावै थर थर ठण्डी | Thandi
हाड़ कपावै थर थर ठण्डी
रचनाकार –रामबृक्ष बहादुरपुरी
रचनाकार –रामबृक्ष बहादुरपुरी
धीरे-धीरे ( Dhire Dhire ) धीरे-धीरे शम्मा जलती रही, रफ्ता-रफ्ता पिंघलती रही ! दिल तड़पता रहा पल पल, रूह रह-रह मचलती रही ! शोला-जिस्म सुलगता रहा, शैनेः शैनेः रात ढलती रही ! ख़्वाब परवान चढ़ते रहे, ख़्यालो में उम्र टलती रही ! धड़कने रफ्तार में थी ‘धर्म’ सांसे रुक-रुक चलती रही !! डी के निवातिया…
” बूँदों की सरगम “ ( Boondon ki sargam ) बूंँदों की रुन झुन है सावन में या कहीं सरगम बज़ी। हवाओं की थिरकन है या मौसम ने नयी धुन है रची! जुगलबंदी करती हवा छेड़- छेड़ फुहारों को, दोहरा रही बंदिश वही ख़ुशामदीद है सावन की, लपक – झपक कटार सी चमकती तड़ित…
क्या कविता क्या गीत ( Kya Kavita Kya Geet ) ऐसा लगता जीवन सारा, व्यर्थ गया हो बीत। क्या कविता क्या गीत। पीड़ाओं ने मुझको पाला, अभिशापों ने मुझे सम्हाला। अंधियारे भरपूर मिले हैं, अंजुरी भर मिल सका उजाला। आंख झपकते सदा किया है, सपनों ने भयभीत। क्या कविता क्या गीत। कैसा कथन कौन सी…
कोप कुदरत का ( Kop kudrat ka ) कुदरत कोप कर रही सारी आंधी तूफान और महामारी फिर भी समझ न पाया इंसां भूल हुई है अब हमसे भारी खनन कर खोखली कर दी पावन गंगा में गंदगी भर दी पहाड़ों के पत्थर खूब तोड़े खुद ही खुद के भाग्य फोड़े सड़के …
आर या पार ( Aar ya paar ) बीवी का जन्मदिन था यार, मेरे लिए था बड़ा त्यौहार। लेकिन जन्मदिन इस बार , लाया संग मुसीबत अपार। देना था मुझे उसे उपहार, लेकर आया मैं एक हार। आ रहा है तुम पर प्यार, इसको तुम पहन लो यार। देख हाथ में हीरो का हार,…
इंसान स्वयं को तू पहचान! ( Insan swayam ko to pehchaan ) ऐ इंसान स्वयं को तू पहचान! जन्म हुआ किस हेतु तुम्हारा ? इस दुनिया जहान में, मानव खुद को तू पहचान रे। पेश करो तू मानवता की मिशाल, टिकते वही धरा पर जिनके होते हृदय विशाल। ऐ इंसान स्वयं को तू पहचान, विनम्रता…
धीरे-धीरे ( Dhire Dhire ) धीरे-धीरे शम्मा जलती रही, रफ्ता-रफ्ता पिंघलती रही ! दिल तड़पता रहा पल पल, रूह रह-रह मचलती रही ! शोला-जिस्म सुलगता रहा, शैनेः शैनेः रात ढलती रही ! ख़्वाब परवान चढ़ते रहे, ख़्यालो में उम्र टलती रही ! धड़कने रफ्तार में थी ‘धर्म’ सांसे रुक-रुक चलती रही !! डी के निवातिया…
” बूँदों की सरगम “ ( Boondon ki sargam ) बूंँदों की रुन झुन है सावन में या कहीं सरगम बज़ी। हवाओं की थिरकन है या मौसम ने नयी धुन है रची! जुगलबंदी करती हवा छेड़- छेड़ फुहारों को, दोहरा रही बंदिश वही ख़ुशामदीद है सावन की, लपक – झपक कटार सी चमकती तड़ित…
क्या कविता क्या गीत ( Kya Kavita Kya Geet ) ऐसा लगता जीवन सारा, व्यर्थ गया हो बीत। क्या कविता क्या गीत। पीड़ाओं ने मुझको पाला, अभिशापों ने मुझे सम्हाला। अंधियारे भरपूर मिले हैं, अंजुरी भर मिल सका उजाला। आंख झपकते सदा किया है, सपनों ने भयभीत। क्या कविता क्या गीत। कैसा कथन कौन सी…
कोप कुदरत का ( Kop kudrat ka ) कुदरत कोप कर रही सारी आंधी तूफान और महामारी फिर भी समझ न पाया इंसां भूल हुई है अब हमसे भारी खनन कर खोखली कर दी पावन गंगा में गंदगी भर दी पहाड़ों के पत्थर खूब तोड़े खुद ही खुद के भाग्य फोड़े सड़के …
आर या पार ( Aar ya paar ) बीवी का जन्मदिन था यार, मेरे लिए था बड़ा त्यौहार। लेकिन जन्मदिन इस बार , लाया संग मुसीबत अपार। देना था मुझे उसे उपहार, लेकर आया मैं एक हार। आ रहा है तुम पर प्यार, इसको तुम पहन लो यार। देख हाथ में हीरो का हार,…
इंसान स्वयं को तू पहचान! ( Insan swayam ko to pehchaan ) ऐ इंसान स्वयं को तू पहचान! जन्म हुआ किस हेतु तुम्हारा ? इस दुनिया जहान में, मानव खुद को तू पहचान रे। पेश करो तू मानवता की मिशाल, टिकते वही धरा पर जिनके होते हृदय विशाल। ऐ इंसान स्वयं को तू पहचान, विनम्रता…
धीरे-धीरे ( Dhire Dhire ) धीरे-धीरे शम्मा जलती रही, रफ्ता-रफ्ता पिंघलती रही ! दिल तड़पता रहा पल पल, रूह रह-रह मचलती रही ! शोला-जिस्म सुलगता रहा, शैनेः शैनेः रात ढलती रही ! ख़्वाब परवान चढ़ते रहे, ख़्यालो में उम्र टलती रही ! धड़कने रफ्तार में थी ‘धर्म’ सांसे रुक-रुक चलती रही !! डी के निवातिया…
” बूँदों की सरगम “ ( Boondon ki sargam ) बूंँदों की रुन झुन है सावन में या कहीं सरगम बज़ी। हवाओं की थिरकन है या मौसम ने नयी धुन है रची! जुगलबंदी करती हवा छेड़- छेड़ फुहारों को, दोहरा रही बंदिश वही ख़ुशामदीद है सावन की, लपक – झपक कटार सी चमकती तड़ित…
क्या कविता क्या गीत ( Kya Kavita Kya Geet ) ऐसा लगता जीवन सारा, व्यर्थ गया हो बीत। क्या कविता क्या गीत। पीड़ाओं ने मुझको पाला, अभिशापों ने मुझे सम्हाला। अंधियारे भरपूर मिले हैं, अंजुरी भर मिल सका उजाला। आंख झपकते सदा किया है, सपनों ने भयभीत। क्या कविता क्या गीत। कैसा कथन कौन सी…
कोप कुदरत का ( Kop kudrat ka ) कुदरत कोप कर रही सारी आंधी तूफान और महामारी फिर भी समझ न पाया इंसां भूल हुई है अब हमसे भारी खनन कर खोखली कर दी पावन गंगा में गंदगी भर दी पहाड़ों के पत्थर खूब तोड़े खुद ही खुद के भाग्य फोड़े सड़के …
आर या पार ( Aar ya paar ) बीवी का जन्मदिन था यार, मेरे लिए था बड़ा त्यौहार। लेकिन जन्मदिन इस बार , लाया संग मुसीबत अपार। देना था मुझे उसे उपहार, लेकर आया मैं एक हार। आ रहा है तुम पर प्यार, इसको तुम पहन लो यार। देख हाथ में हीरो का हार,…
इंसान स्वयं को तू पहचान! ( Insan swayam ko to pehchaan ) ऐ इंसान स्वयं को तू पहचान! जन्म हुआ किस हेतु तुम्हारा ? इस दुनिया जहान में, मानव खुद को तू पहचान रे। पेश करो तू मानवता की मिशाल, टिकते वही धरा पर जिनके होते हृदय विशाल। ऐ इंसान स्वयं को तू पहचान, विनम्रता…