तुम आओ तो, ईद हो जाये

तुम आओ तो, ईद हो जाये

तुम आओ तो, ईद हो जाये

न जाने कितनी बार
पढ़ा है मैंने तुम्हारा चेहरा
खामोश-सी तुम्हारी आँखे
इस बार तुम्हारी सदा को
एक अनुकृति से सजाया है मैंने
और—-
देह को एक लिबास पहनाया है
कहो न, इस देह से
अब तो तोड़कर आ जाये
सारी बंदिशे—-
सारी जंजीरें—-
सारे बंधन—-
मेरे इस शहर,
मेरी इस गली में
और लाँघ जाओ
मेरे घर की चौखट को।
साथ में लेकर आ जाओ
चाँद-सी रेशमी ब्राउनी आँखे
कुछ गीली-सी,
खट्टी कुछ मीठी-सी
कोमल अनुभूति
मीठी-सी नारंगी सांसे
हो जाने दो न
बर्फ़ीली बारिशों में
धानी-सी रंग की ईद
कितने दिनों से रोजे-सी हूँ मैं
तुम आ जाओ, तो ईद हो जाये,
तुम आ जाओ, तो ईद हो जाये,
तुम आ जाओ……….।।

डॉ पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’

लेखिका एवं कवयित्री

बैतूल ( मप्र )

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