वर्षा ऋतु | Varsha Ritu
वर्षा ऋतु
( Varsha ritu )
रिमझिम फुहारों से दिल फिर खिलेंगे,
मेघों के काँधे नभ हम उड़ेंगे।
बात करेंगे उड़ती तितलियों से,
भौंरों के होंठों से नगमें चुनेंगे।
चिलचिलाती धूप से कितना जले थे,
मिलकर बरखा से शिकायत करेंगे।
पाकर उसे खेत -खलिहान सजते,
आखिर उदर भी तो उससे भरेंगे।
धरती का सारा खजाना है वो,
उसकी बदौलत परिन्दे उड़ेंगे।
अगर वो नहीं, तो ये दुनिया नहीं,
तख़्त-ए -ताऊत रहके क्या करेंगे?
वही है जड़, और वही है चेतन,
उसकी अदा पे हम मरते रहेंगे।
गदराई दामिनी दमकेगी कैसे,
नदियों के घूँघट कैसे उठेंगे।
बहेगी संपदा जीवन की जग में,
उसके ही सहारे वो झूले सजेंगे।
हे! वर्षा ऋतु, तू ऋतुओं की रानी,
पांव तेरे नूपुर कब छम-छम करेंगे?
रामकेश एम.यादव (रायल्टी प्राप्त कवि व लेखक),
मुंबई
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