यहां तो जिंदगी में ग़म रहा है
यहां तो जिंदगी में ग़म रहा है
यहां तो जिंदगी में ग़म रहा है
ख़ुशी का कब यहां आलम रहा है
वफ़ा के नाम पत्थर मारे उसनें
निगाहें करता मेरी नम रहा है
ख़ुशी का होता फ़िर अहसास कैसे
ग़मों का सिलसिला कब कम रहा है
खिलेंगे गुल मुहब्बत के कैसे फ़िर
नहीं जब मौसम ए शबनम रहा है
अकेले ही गुजारा व़क्त अपना
न कोई शहर में हमदम रहा है
बनते नासूर गये है जख़्म दिल में
न मिलता जख़्मों को मरहम रहा है
उसे कैसे भूलूँगा मैं भला अब
वो आज़म की सांसों में रम रहा है
️️
शायर: आज़म नैय्यर
(सहारनपुर )
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