ज़िंदा तो हैं मगर
ज़िंदा तो हैं मगर
ख़ुद की नज़र लगी है अपनी ही ज़िन्दगी को
ज़िंदा तो हैं मगर हम तरसा किये ख़ुशी को
महफूज़ ज़िन्दगानी घर में भी अब नहीं है
पायेगा भूल कैसे इंसान इस सदी को
कैसी वबा जहाँ में आयी है दोस्तों अब
हालात-ए-हाजरा में भूले हैं हम सभी को
हमदर्द है न कोई ये कैसी बेबसी है
ले आसरा ख़ुदा का बैठे हैं बंदगी को
गर्दिश की तीरगी है आँखों में भी नमी है
उल्फ़त को ढूँढते थे पाया है दिल्लगी को
अब मुख़्तसर करेगें हम ज़ीस्त का ये किस्सा
पैग़ाम-ए-इश्क़ देगें हम रोज़ आदमी को
वहदानियत को उस की मीना न दो चुनौती
रहमत ख़ुदा की देखो मिलती है हर किसी को
कवियत्री: मीना भट्ट सिद्धार्थ
( जबलपुर )
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