नहीं संभलते हैं | Ghazal Nahi Sambhalte Hai
नहीं संभलते हैं
( Nahi Sambhalte Hai )
हसीन ख़्वाब निगाहों में जब से पलते हैं
क़दम हमारे हमीं से नहीं संभलते हैं
इसी सबब से ज़माने के लोग जलते हैं
वो अपने कौल से हरगिज़ नहीं बदलते हैं
छुपाये रखते हैं हरदम उदासियाँ अपनी
सितम किसी के किसी पर नहीं उगलते हैं
रह-ए-हयात में है ऐसी शख़्सियत अपनी
हमारे नाम हज़ारों चराग़ जलते हैं
सलाम करती है दुनिया हमें मुहब्बत से
कि जब भी सैर को सड़कों पे हम निकलते हैं
झलक ज़रा सी दिखी थी कभी हमें उनकी
तभी से दीद को अरमां मेरे मचलते हैं
हमारे आने की लगती है जब ख़बर उनको
उसी को सुनते ही वो मन ही मन उछलते हैं
उन्हीं के हुस्नो-तबस्सुम का फ़ैज़ है साग़र
मेरी ग़ज़ल में मुहब्बत के शेर ढलते हैं
कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003
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