Kavita | भाग्य
भाग्य
( Bhagya )
जनक ने चार चार पुत्री ब्याही थी, धरती के उत्तम कुल में।
मिले थे छत्तीस के छत्तीस गुड़ उनके, धरती के उत्तम वर से।
पूर्व जन्मों का तप था जनक सुनैना, हर्षित होकर इठलाते थे।
दिव्य था रूप अवध के उत्तम कुल से, जुडने को है भाग्य हमारे।
कोई भी कसर नही छोडी थी जनक ने, कन्याओं के पाणिग्रहण में।
नयन के कोर हृदय के छोर, थे हर्षित हर जन मन में।
क्या नही दिया था उसने कहा पुत्रियों,पिता के कुल की लाज निभाना।
कोई कुछ भी ना कह दे,जनकपुरी के कुल गौरव की लाज बचाना।
कर्म की लेखनी भाग्य का लेख, मिटाए मिट नि पाए।
वही होता है जो ईश्वर चाहे, मनुज कुछ कर ना पाए।
जनक भी संततियों के, लिखे भाग्य को पढ ना पाए।
चार के चार पुत्रियों के भी, भाग्य को बदल ना पाए।
शेर लिखता है हृदय की बात, जो मन को उलझाता है।
विधाता के हाथों में है जो लेखनी, उसका लेख न मिट पाता है।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )