बेटी का घर

( Beti ka ghar ) 

 

बेटी का नहीं होता कोई अपना घर न्यारा,
घर चाहे पिता का हो या पति का, होता है पराया।

“पराये घर जाना है” से शुरू होकर,
“पराए घर से आई है” पे खत्म हो जाता है ये फ़साना।

जिसको बचपन से था अपना माना,
बड़ा मुश्किल था उसे छोड़ जाना।

फिर मेहमान बन, पल दो पल के लिए उस घर आना।
कुछ यादें समेट, फिर दूसरे घर को चले जाना।

उसका घर का सारा काम करना, बदले में पति का उसके खर्चे उठाना।
समझौता सा लगता है, बेटी को दूसरे घर को अपना घर बताना।

अपने घर की बात पूछते ही उसका सोच में पड़ जाना,
कभी पिता के तो कभी पति के नाम से उसका पहचाना जाना।

किस घर को वो अपना बतलाए, किसे पराया कर जाए।
ये दुविधा उसे सच में बहुत सताए।

अगर पहले वाला घर था अपना,
तो ब्याह बाद क्यूं हुआ जैसे सपना।

अगर ससुराल वाला घर था मेरा,
तो तलाक़ के बाद, क्यूं न रहा मेरा।

ये अपना घर मुझे कभी न समझ आया,
ठुकराई गई अपनों से, नहीं कोई छाया।

कड़ी मेहनत कर मैंने, ख़ुद को आत्मनिर्भर बनाया,
फिर अपने लिए एक घर बनाया।

तब किसी ने पूछा, मुझसे अपने घर के बारे में,
तो बड़े फक्र से, घर अपना दिखाया।

सुनो लड़कियों, सबसे पहले अपनी पहचान बनाओ
खुद को आत्मनिर्भर बना, खुद का एक घर बनाओ।

जिन्दगी जिंदादिली का नाम है,
तुम घर बसाने से पहले घर अपना बनाओ ।

 

© प्रीति विश्वकर्मा ‘वर्तिका

प्रतापगढ़, ( उत्तरप्रदेश )

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