दहलीज | Dahaleej
दहलीज
( Dahaleej )
फर्क है तुमने और तुम्हारी बातों मे
समझ ही न पाए कई मुलाकातों में
मिले हो हर बार नए ही अंदाज मे
उजाला हो जैसे दिन और रातों मे
कभी गुरुर तो कभी शोखी नजर आया
कभी शाम तो कभी सहर नजर आया
तुम बिन यूं तो हम जागे हैं कई रातों मे
उभरा दर्द हो जैसे कोई जज्बातों मे
खुदा करे खैर की अब न हो कभी
फिर तुमसे कोई मुलाकात हमारी
कर लेंगे बसर हम जिंदगी अपनी
रह जाने दो ये चाहत फकत यादों मे
करनी है नही पार मुझे दहलीज ऐसे
बादल हों रंगीन भले ढलती शाम जैसे
माना की चांदनी रात मे साथ तारों का है
धूप की तपिश मे मगर उजाला बहुत है
आज के भीतर ही दिखता है कल भी
कल भीतर ही संवरता है आज भी
इसी आज और कल का भीतर ही जीवन है
जीवन के भीतर ही हैं हम भी समाज भी
( मुंबई )