डॉ. सत्यवान सौरभ की कविताएं | Dr. Satyawan Saurabh Hindi Poetry
“ये कांवड़ उठाने से कुछ नहीं होगा”
कांवड़ उठाए घूम रहा है,
कंधों पे धर्म लादे जा रहा है,
गांव का होनहार मर गया,
माँ बेटे की राख छू रही है…
…और सरकार चुप है।
शिक्षक था बाप, फिर भी मौन रहा,
सिखा न सका—
कि आस्था नहीं, पढ़ाई बचाती है!
पर वो चुप रहा…
क्योंकि आस-पास मंदिर थे
और इलेक्शन नज़दीक था।
बच्चा बोझा नहीं समझ सका,
कांवड़ को भाग्य बना बैठा।
अंधी भीड़ में भक्ति जल गई
और देह भस्म हो गई…
अब स्कूल बंद हैं,
और ठेके खुले हुए।
कविता कहने वाले गुरु पे
एफआईआर है।
क्योंकि उसने कहा था—
“ये कांवड़ उठाने से कुछ नहीं होगा बेटा,
IAS बनने के लिए किताब उठानी पड़ती है।”
योग साधना
योग भगाए रोग सब, करता हमें निरोग।
तन-मन में हो ताजगी, सुखद बने संयोग।।
योग साधना जो करे, भागे उसके भूत।
आलस रहते दूर सब, तन रहता मजबूत।।
खुश रहते हर पल सदा, जीवन में वो लोग।
आत्म और परमात्म का, सदा कराते योग।।
योग करें तो रोग सब, भागे कोसों दूर।
जीवन सुखदाई बने, चमके खुशियां नूर।।
योगासन करता सदा, तन-मन को तंदुरुस्त।
बने रक्त संचार से, मांसपेशियां चुस्त।।
देता है हम सबको यही, योग दिवस सन्देश।
दूर रहे सब व्याधियां, सबल- स्वस्थ हो देश।।
योग साधना साधकर, करें शुद्ध आचार।
नेति क्रिया जब स्वस्थ हो, रहते नहीं विकार।।
“रिश्तों की रणभूमि”
लहू बहाया मैदानों में,
जीत के ताज सिर पर सजाए,
हर युद्ध से निकला विजेता,
पर अपनों में खुद को हारता पाए।
कंधों पर था भार दुनिया का,
पर घर की बातों ने झुका दिया,
जिसे बाहरी शोर न तोड़ सका,
उसी को अपनों के मौन ने रुला दिया।
सम्मान मिला दरबारों में,
पर अपमान मिला दालानों में,
जहां प्यार होना चाहिए था,
मिला सवालों की दीवारों में।
माँ की नज़रों में मौन था,
पिता के लबों पर सिकुड़न,
भाई की बातों में व्यंग्य था,
बहन की चुप्पी बनी चोट की धुन।
जो रिश्ते थे आत्मा के निकट,
वही बन गए आज दुश्मन से कठिन,
हर जीत अब बोझ लगती है,
जब घर की हार आंखों में छिन।
दुनिया जीतना आसान था,
पर अपनों को समझना मुश्किल,
जहां तर्क थम जाते हैं,
वहीं भावना बनती है असली शस्त्रधार।
कभी वक़्त निकाल कर बैठो,
उनके पास जो चुपचाप रोते हैं,
क्योंकि दुनिया नहीं,
परिवार ही असली रणभूमि होता है।
“ज़िंदगी की नक़ाबें”
ऐ ज़िंदगी, तू हर रोज़ इक नया चेहरा दिखा देती है,
अपनों की भीड़ में अजनबियों-सी हवा बहा देती है।
हर रिश्ते की पोटली में कुछ भ्रम, कुछ धोखे निकले,
हर मुस्कान के पीछे छुपे सौ-सौ रोखे निकले।
कभी जिसको अपना समझा, वही पराया निकला,
दिल के मंदिर में बसा देवता, साया निकला।
तेरे इम्तिहान की हद अब महसूस होती है,
हर सुबह एक नया ज़ख्म महसूस होती है।
कितनी बार और परखेगी, बता ओ ज़िंदगी,
कोई तो हो जो रहे बस सादगी में बंदगी।
क्या हर आंख की नमी को तू पहचान पाएगी?
क्या सबके चेहरे से नक़ाब हटाएगी?
ये चुप सी शामें, ये सिसकती रातें,
हर इंसान के भीतर छुपी हैं सौ सौ बातें।
तू तो सब जानती है, फिर अनजान क्यों बनी है?
अपनेपन की तलाश में तू भी थकी सी लगी है।
बस अब किसी के चेहरे पे मुस्कान रहने दे,
किसी के दिल में एक मकाम रहने दे।
हर बार हर किसी को आज़मा कर थक गई होगी,
अब किसी को तो बेनक़ाब अपना रहने दे, ऐ ज़िंदगी।
“कलियुग का स्वयंवर”
(सौरभ शैली में)
त्रेता में धनुष उठा था जब,
जनकपुरी थर्राई थी।
धरा काँपी, गगन डोला,
वीरता मुस्काई थी।
राम ने तोड़ा जिसको छूकर,
वह धनुष, वह गर्व पुराना—
आज उसी की जगह लिये हैं,
फॉर्म, रजिस्ट्रेशन, थाना!
द्वापर का वह दृश्य अनोखा,
जहाँ आँख मछली की थी,
नीचे जल में देख निशाना,
छूटती बाणों की थी।
अर्जुन ने दिखलाई शक्ति,
राजकुमारी हर्षाई,
पर अब की दुल्हन कहती है,
“सरकारी में सेलेक्शन आई?”
न काल था वह, न स्वर्ग था वह,
न नरक का कोई मेला,
यह कलियुग है, जहाँ प्रेम नहीं,
बस कटऑफ का ही झेला!
ना तप है, ना योग बचा है,
ना ही धर्म के गीत,
अब दूल्हा बनता वो ही है,
जिसके हाथ में हो सीट!
ना राम चाहिए, ना अर्जुन,
ना शिव का कोई रूप,
अब दूल्हा वही बनेगा जो,
निकाले ‘Pre’ और ‘Mains’ की धूप।
सीता की जगह अब लड़की पूछे,
“ग्रेड-पे क्या है तुम्हारा?”
और सास बने इंटरव्यू बोर्ड,
पूछे – “क्या है विचार तुम्हारा?”
पांडव तप में, राम मर्यादा में,
आज का युवक बस परीक्षा में,
ना धनुष, ना बाण, ना गदा,
लड़ा जा रहा है पोस्टिंग की भाषा में।
वीर नहीं अब बनते रण में,
वीर बनते हैं टियर-वन में!
“ये स्कूल हैं या सज़ा की तहरीर?”
कहाँ हैं वो जो कहते थे, उजाले बाँट देंगे,
यहाँ तो चीखते सपने, अंधेरे काट देंगे।
किताबें हैं मगर उर्दू-संस्कृत की शकल में,
गणित-बिजली के बच्चों को, कबाड़े बाँट देंगे।
जो स्कूलों को बँधक रख चले हैं राजधानी,
वही जाकर वहाँ बैठें, तो हम भी थाप देंगे।
कहाँ हैं वो गुरूजन जो किसी दिन तो पढ़ाते,
यहाँ कुर्सी नहीं खाली, वो सैलरी चाट देंगे।
ये फेल हुए हैं बच्चे या सिस्टम बेनकाब है,
जो उत्तर माँगते हैं अब, उन्हें ही डाँट देंगे।
अगर खामोश रह गए तो अगली बारी अपनी है,
ये साजिश वाले सब हमको, मज़हबी ठाठ देंगे।
इन्फ्लुएंसर की बात
कहाँ गए वो जो सच को बोलने वाले थे,
अब सब बिके हैं, जो भी उजाले वाले थे।
ये पोस्ट, ये वीडियो — बस नाटक बन गए,
कभी जो थे जनहित में, अब सौदे बन गए।
जिसको देखो वही सत्ता का गीत गाता है,
लाइक की खनक में सच भी झूठ हो जाता है।
जिस हाथ में कैमरा था सवाल पूछने को,
अब वो झुका है किसी ब्रांड की ऊँगली पकड़ने को।
‘मैं स्वतंत्र हूँ’, कहता है जो दिन-रात,
पर नहीं दिखाता “पेड” होने का जिक्र साथ।
चुनाव के दिनों में बन जाते हैं प्रवक्ता,
जनता को समझ नहीं आता — कौन है भक्त, कौन आलोचक।
ये दौर है जहाँ फॉलोअर्स की गिनती से,
ईमान तुलता है, विचार गिरवी रख दिए जाते हैं।
मगर ये मत भूलो —
जिस दिन जनता को सच का स्वाद लग जाएगा,
तुम्हारी हर पोस्ट पर बस ‘स्क्रॉल डाउन’ हो जाएगा।
कलम लाऊँगा
चूड़ी नहीं, चूड़ी की खनक से आगे,
पायल नहीं, जो सीली ज़मीं पर भागे,
बिंदी नहीं, जो माथे को सजाए,
काजल नहीं, जो नज़रों को बहलाए।
मैं लाऊँगा कलम
जिससे तुम लिखो अपना नाम,
इतिहास की उन पंक्तियों में,
जहाँ अब तक सिर्फ़ पुरुषों के थे काम।
मैं लाऊँगा कलम
जो तुम्हारी जुबां बन जाए,
तुम्हारे सवालों को आवाज़ दे,
तुम्हें सिर्फ़ प्रेमिका या पत्नी नहीं,
बल्कि क्रांति की मशाल कहे।
ना होगा सिंगार,
पर होगी समझ की धार,
ना होगी लाज की बेड़ियाँ,
होगा विचारों का विस्तार।
तुम लिखोगी
अपने सपनों की उड़ान,
किसी और की परछाई नहीं,
तुम खुद बनोगी पहचान।
इसलिए नहीं लाऊँगा गहने,
क्योंकि मैं चाहता हूँ,
तुम गढ़ो शब्दों की धरोहर,
और बदल दो आने वाली नस्लों का सफ़र।
आरक्षण: एक पुनर्विचार
वो वेदना जो सदियों से हृदय में जली,
न्याय की किरण बनी, आशा की ज्योति खिली।
वंचितों की आवाज़, टूटी हुई दीवार,
संविधान के पन्नों में लिखी सदियों की पुकार।
पर समय के साथ जब बदल गया स्वर,
कुछ को मिला अधिकार, कुछ रह गए अब दर-दर।
पीढ़ी दर पीढ़ी बन गई ये विरासत,
वास्तविक दुखी रहे, खो गई असली बात।
जाति की छाँव से अब छूटे नहीं सब,
धन-संपत्ति का फेर भी खड़ा अब तब।
क्या वह व्यवस्था जो न्याय दे सबको?
या बन गई वह एक छलावा, भ्रम का ढको?
आर्थिक आधार की जब बात उठती है,
समानता की लौ फिर जगमगाती है।
संसद करे जब पुनः विमर्श- विचार,
तभी बहेगी फिर से न्याय की धार।
नहीं चाहिए हमें केवल दिखावा न्याय का,
चाहिए वास्तविकता, सबका भाग्य आय का।
आरक्षण हो पुनः एक संवेदनशील गीत,
जहाँ हर वंचित को मिले जीवन की जीत।
“मालदार दूल्हा ढूंढने वालों, खुद से भी सवाल करो!”
दहेज की बातें करते हो,
सड़कों पर मोमबत्तियाँ जलाते हो,
पर बेटी की शादी में फिर भी,
बैंक बैलेंस पर निगाहें गड़ाते हो।
थूक देते हो दहेज वालों को,
सोशल मीडिया पर भाषण चलाते हो,
पर जब अपनी बिटिया की बारी आती है,
बातों में बड़े-बड़े महल सजाते हो।
रिश्ते तोड़ते हो चाय की प्याली में,
गाड़ियों के ब्रांड पर सौदे जमाते हो,
विवाह नहीं, मोल-भाव की मंडी में,
शगुन की जगह चेक बुक लहराते हो।
प्यार की बातें करते हो खूब,
फिर भी ‘सुरक्षित भविष्य’ की फाइल बनाते हो,
बेटी की खुशियों का क्या?
जब भावनाएँ भी पैसों में आजमाते हो।
दहेज लेना और देना, दोनों अपराध है,
फिर भी परंपराओं की ओट में,
अपने हिस्से का गुनाह छुपाते हो।
बेटी बोझ नहीं, आशीर्वाद है,
इतना कहते हो, फिर भी,
ससुराल में भेजने से पहले,
खुद ही लम्बी लिस्ट बनाते हो।
इकतर्फा मत बवाल करो,
अगर बदलाव चाहिए तो खुद से शुरुआत करो,
रिश्तों को दिल से सजाओ,
दहेज के इस अंधकार को मिटाओ,
बेटी की खुशियों का असली अर्थ समझाओ।
मालदार दूल्हा ढूंढने वालों,
खुद से भी सवाल करो!
दहेज़ लेना और देना दोनों अपराध है
एकतरफा मत अब बवाल करो!!
सूने अब परिवार
हो ममता की नींव पर, घर का पक्का रंग।
मगर दरारें जब पड़ें, बिखरे रिश्तों संग।।
रिश्तों की दीवार पर, लगे समय के रंग।
जोड़े दिल की ईंट तो, जुड़ता सच्चा संग।।
बचपन की अठखेलियां, दादी का घर बार।
अब बंटवारे में बंटा, यादों का उपहार।।
सपनों की गठरी बड़ी, जीवन का है तोल।
जोड़े रिश्तों की डोर, सदा प्रेम अनमोल।।
कच्ची मिट्टी प्यार की, रिश्तों की दीवार।
पड़ी दरारें हो जहां, टूटे दिल की तार।।
आंगन की वो अठखेलियाँ, बच्चों की किलकार।
भाग-दौड़ में खो गए, रिश्तों के आसार।।
खामोशी की मार से, बिखरे दिल का द्वार।
बिना प्रेम की बोलियाँ, सूने अब परिवार।।
मिलकर हंसते लोग थे, एक छत एक बात।
बंद आज कमरे हुए, खिड़की से उत्पात।।
बड़े-बुजुर्ग छांव थे, साया था विश्वास।
अब दीवारें बोलतीं, चुप्पी का इतिहास।।
दादी की कहानियां, मां का प्यार दुलार।
सौरभ सारे बँट गए, खोया वो संसार।।
झाड़ियों से जीवन तक
झाड़ियों में पड़ी, एक नन्ही कली,
आधी सर्द हवाओं में काँपती हुई सी।
उसकी आँखों में सवाल था, बिना जवाब के,
कौन होगा जो उसे अपनी ममता दे?
कूड़े के ढेर में बसी एक कहानी,
बच्ची की सिसकियाँ, ढूँढ रही थीं नई सुबह की झाँकी।
हर एक नन्हे हाथ में, आसमान छूने की चाह,
सिर्फ सर्द हवा ने उसे दिया था साथ।
लेकिन फिर एक दिल ने उसे देखा,
एक अनजान हाथ ने उसे अपनी गोदी में लिया।
ममता की राह में बसी एक आशा,
जहाँ हर दर्द को आशीर्वाद बना दिया।
नवजीवन को एक आश्रय मिला,
किसी ने उसे जीवन की राह दिखलायी।
झाड़ियों से निकली वह नन्ही कली,
अब नई पहचान, एक उम्मीद की शख्सियत बनायी।
यह सिर्फ एक कहानी नहीं है,
यह हमारे समाज का चेहरा है, जो अक्सर झूठा साबित होता है।
हर लावारिस बच्ची का हक है एक जीवन,
यह हमारी जिम्मेदारी है, सबको दें इसका सम्मान।
मौसम विदाई का
तुम गए तो आंखों में शोर था,
जैसे बारिश में छुपा कोई निचला ज़ोर था,
मिट्टी की ख़ुशबू से भीगी पिच पर,
तुम्हारे क़दमों का अभी तक कोई असर था।
तुम्हारी हर इनिंग एक कहानी थी,
पसीने से भीगी वो सफ़ेद जर्सी बेमिसाल निशानी थी,
भीड़ की धड़कन, टीम की जान,
तुम्हारे बिना ये मैदान कुछ वीरान था।
तुम गए तो तालियों की बारिश थी,
पर अंदर कहीं चुप्पी की गहराई थी,
आख़िरी छक्का, आख़िरी चौका,
और फिर वो सिर झुकाकर जाने की तन्हाई थी।
पर मत सोचो कि आख़िरी पर्दा गिरा,
हर महान कहानी का अगला हिस्सा भी लिखा,
नए सूरज की किरनें फिर से पुकारेंगी,
क्योंकि तुम हो, खेल अभी बाक़ी है, यारा!
बोधि की चुप्पी
शांत है लुंबिनी की पगडंडी,
जहाँ फूलों ने पहले देखा प्रकाश,
राजकुमार की पहली हँसी में,
छुपा था अनंत का एक उलझा प्रकाश।
जन्मा था एक प्रश्न वहाँ,
चक्रवर्ती नहीं, चैतन्य का दीपक,
महलों की आभा से दूर,
सत्य का नन्हा एक दीपक।
बोधिवृक्ष के पत्तों में,
बहती है अनहद की बयार,
तप की चुप्पी, सत्य की पुकार,
जिसने अंधेरों को सीखा दिया,
प्रकाश का अनादि व्यापार।
कपिलवस्तु की गलियों में,
गूँजता है अब भी वो प्रश्न,
जीवन का सत्य क्या है?
दुख की गाँठें क्यों हैं?
महापरिनिर्वाण की शांति,
कुशीनगर की माटी में बसी,
जहाँ देह नहीं, पर जीवन का अर्थ,
साँसों में घुली एक अनंत हँसी।
साक्षी है ये धरती,
हर बोधि की फुसफुसाहट का,
जहाँ मौन से फूटा था अमरत्व,
और जाग उठा था एक विश्व का सत्य।
फिर आयेगा गौरी
खून में उबाल हो, जुबां में ज्वाल हो,
फिर क्यों हर बार समझौता, हर बार सवाल हो?
यह वक़्त है ललकारने का, न कि मौन में घुलने का,
इतिहास का पलड़ा उन पर है, जो सर कटाने को तैयार हो।
फिर से गूंजे वो गाथाएँ, जो आज खंडहरों में दबी हैं,
फिर से उठे वो मचान, जो गैरों की चालों से थमी हैं,
न माफ़ी, न समझौता, न झुके यह भुजाएँ,
जो शत्रु के सम्मुख मौन, वह केवल इतिहास में जमी हैं।
जिसने हर बार माफ़ किया, वह पाषाण में कैद हुआ,
जिसने हर बार हुंकार भरी, वही अमरता को भेद हुआ,
ये समझना होगा, कब तलक सहते रहोगे हर वार को,
वरना फिर लौटेगा कोई गौरी, जलाएगा सम्मान की दीवार को।
इतिहास बार-बार यही बताएगा, कि जो सोता है अपने वैभव पर,
वो सिर्फ़ स्मारकों में रह जाता है, और यही हश्र फिर से दोहराएगा।
रक्त में उबाल हो, पराक्रम का विस्फोट हो,
हर कदम पर स्वाभिमान का आघात हो,न झुके सिर,
न रुके कदम, न थमे हुंकार,फिर से उठे वो भारत,
जो कभी जगत का आधार हो।
माफ़ी की सौगातें बंद करो, उठाओ तलवार,
जो शत्रु के सम्मुख मौन, वो केवल इतिहास में जमी हैं,
वरना फिर आयेगा कोई गौरी, जलाएगा सम्मान की दीवार को।
युद्ध से युद्धविराम तक
रक्त से लथपथ इतिहास,
धधकते ग़ुस्से की ज्वाला,
सरहदों पर टकराती हैं चीखें,
जिन्हें सुनता कौन भला?
वो शहादतें, वो बारूदी हवाएँ,
टूटते काफिले, बिखरते सपने,
दिल्ली से कराची तक,
हर घर में गूँजती कराहें।
मटमैली लहरों में घुला लाल,
सिंधु का मौन, झेलम की पुकार,
दूर कहीं बंकरों में सुलगते हैं रिश्ते,
धरती माँ की बिंधी मांग की तरह।
लेकिन फिर भी,
आसमान में फड़फड़ाती शांति की सफेद पंखुड़ियाँ,
सियासी चक्रव्यूहों को चीरती,
मौत की चुप्पी को तोड़ती,
एक दिन जरूर आएगी वह सुबह,
जब सरहदें सिर्फ नक्शों में रहेंगी।
नफरत की दीवारें पिघलेंगी,
पुकारेंगी हवाएँ, “बस बहुत हुआ!”
और उस दिन,
युद्ध से युद्धविराम तक की यह तस्वीर,
एक नई इबारत लिखेगी,
रिश्तों की उगती नई कोपलें।
दम है तो तो फिर कहना “मोदी को बता देना”
आता हमें हर शत्रु को जड़ से मिटा देना,
दम है तो तो फिर कहना—”मोदी को बता देना।”
कलमा पढ़कर बना मुल्क, बलमा बना मुनीर,
घर में घुसकर हुआ हलाला, चाहते है कश्मीर।
बाल न बांका कर सके, रच कितने दुष्चक्र,
हिंद के रक्षक जब बने, हरी-सुदर्शनचक्र।
शांति लगे जब दाव पर, हम भी करते युद्ध,
कृष्ण बने अब सारथी, नहीं अकेले बुद्ध।
हर बात को नज़रअंदाज किया, पर हम नहीं रुकते,
हमारे संघर्ष की कहानी में, इतिहास भी हैं झुकते।
बिना डरे, बिना थके, हम अपनी राह तय करेंगे,
दुश्मनों को चेतावनी, हम फिर लाहौर फतह करेंगे।
आता हमें हर शत्रु को जड़ से मिटा देना,
दम है तो तो फिर कहना—”मोदी को बता देना।”
भारत की धरती में शक्ति का संदेश दुनिया को बता दे,
हमारे कदमों में वो शक्ति बसी है, जो हर किले को गिरा दे।
“युद्ध और शांति”
मृत्यु की भूमि पर बिछी रेतें हैं,
जहाँ पांवों के निशान रह जाते हैं।
संगीनें न हो, तो भी रक्त का रंग,
समय के थपेड़े फिर भी जगाते हैं।
हां, युद्ध से पिघलती है शांति की शिला,
धधकते अंगारों पर तपती जीवन की माया।
कभी अहंकार के काले बादल छाए थे,
अब आकाश में बिछा सफेद प्रेम का साया।
युद्ध ने रची एक नई कहानी,
जहाँ नायक नहीं, केवल दुखों की निशानी।
हर रक्तपात में छुपा एक नवीन गीत,
जो गा रहा है जीवन की सच्ची रीत।
प्रकाश हो उठे फिर अंधकार में,
क्योंकि युद्ध से ही शांति का बीज उगे।
शक्ति से कभी समझौता नहीं किया,
क्योंकि शांति के लिए, युद्ध में भी जीते।
“युद्ध की चाह किसे है?”
युद्ध की चाह किसे है,
कौन चाहता है रक्त की बूँदें,
और राख में सने पंखों की चुप्पी?
पर जब झूठ का आवरण ओढ़े,
सियार महल की देहरी लांघे,
तो शेर का मौन भी गरजता है,
एक सन्नाटा जो पहाड़ चीर दे।
जब मैदान में उतरे कपट,
और धूर्तता की कुटिल चालें,
तब सिंह की नज़रें न थरथरातीं,
न पंजे ठिठकते हैं,
बस गरिमा की लहर उठती है,
और सत्य की दहाड़,
मिटा देती है छद्म की हर छाया।
निरर्थक हैं वे वादियाँ,
जहाँ सियारों का शासन हो,
जहाँ रीढ़ की हड्डियाँ पिघलती हों,
और सिंह की शिराएँ मौन हो जाएँ।
इसलिए, युद्ध कोई नहीं चाहता,
पर जब समय की तलवार उठती है,
तो हर सियार, हर छलावा,
अपनी औकात पहचानता है।
“सिंदूर की सौगंध”
एक था पाकिस्तान,
बस ये सुनने, कहने तक जीवित रखना, ईश्वर,
कि सिंदूर की सौगंध,
जीवन सार्थक हो जाएगा।
उन हाथों में बसी चूड़ियों की खनक,
जो सरहदों पर लहराते तिरंगे को देख
अभिमान से भर जाती हैं,
उन आँखों की रोशनी,
जो अपनों की सलामती के इंतजार में
हर शाम दीये जलाती हैं।
उस आंचल की पवित्रता,
जिसमें बसा है हर सिपाही का हौसला,
उस मांग की लाली,
जो वतन की माटी में
अपने प्रेम का अक्स देखती है।
सजदे में झुके वो सिर,
जो हर बार सलामतियों की दुआएं मांगते हैं,
उन कदमों का नशा,
जो तिरंगे के नीचे सरहदें लांघ जाते हैं।
बस यही अरमान है,
कि वो ‘एक था पाकिस्तान’
सिर्फ़ इतिहास की किताबों में मिले,
सिंदूर की सौगंध,
तब हर सांस का मोल चुकाया जाएगा।
“सिंदूर तो सिर्फ झांकी है मेहंदी और हल्दी बाकी है”
सिर्फ सिंदूर से क्या होगा,
आग अभी सीने में बाकी है।
खून में जो लावा बहता है,
उसमें हल्दी की तासीर बाकी है।
फिर से हवाओं को रुख देना है,
इंकलाब की आंधी बाकी है।
धधकते शोलों में रंग भरना है,
अभी मेहंदी की सरगर्मी बाकी है।
रास्तों पर बिछी हैं दीवारें,
पर हमारे इरादों की ऊँचाई बाकी है।
सिर्फ झांकी दिखी है दुश्मन को,
हमारी असली अंगड़ाई बाकी है।
सिंदूर से कह दो धीरज रखे,
अभी हल्दी का रंग बाकी है।
हम जिंदा हैं तो यह दुनिया है,
हमारे खून में बगावत की रवानी बाकी है।
राष्ट्र रक्षकों का सम्मान
युद्ध की आहट से लौटते कदम,
वो वीर, जो सीमाओं का श्रृंगार हैं,
छुट्टियों से अपने कर्तव्य की ओर,
बिना आरक्षण, बिना थके, बढ़ते हौसले हैं।
अगर रेलगाड़ी में उन्हें टॉयलेट के पास,
या किसी कोने में खड़ा पाएं,
तो अपने आरक्षित स्थान पर बैठाएं,
क्योंकि वे हमारे राष्ट्र की ढाल हैं।
सड़कों पर चलें अगर उनकी थकी पगडंडियाँ,
तो अपने वाहनों से अगले पड़ाव तक छोड़ आएं,
ये वही कंधे हैं, जिन्होंने सीमाओं को थामा है,
ये वही कदम हैं, जिन्होंने सरहदों को सजाया है।
राष्ट्र रक्षकों का सम्मान करें,
उनके बलिदानों का मान करें,
क्योंकि जब हम चैन से सोते हैं,
तब वे नींद का त्याग कर,
देश का कर्तव्य निभाते हैं।
“घबराहट के पार”
एक अजब सी घबराहट है —
पाकिस्तानी शहरों के भीतर,
दीवारों पर उभरे डर के धब्बे
अब लाउडस्पीकर से भी ऊँचे बोलने लगे हैं।
झेलम, चिनाब और सिंधु की लहरें
अब लोरी नहीं सुनातीं —
वे छुपा रही हैं उस मुल्क की बेचैनी
जिसे अपने ही झूठ से नफ़रत हो गई है।
दुनिया देख रही है —
कुछ बदलने वाला है।
पीओके का नक्शा नहीं,
सोच बदलने वाली है।
वो जो बंदूकें लेकर चलते हैं
उनकी उंगलियाँ अब काँपती हैं,
क्योंकि हिंदुस्तान की चुप्पी
अब शोर बन चुकी है।
सेना हमारी नारे नहीं,
निर्णय लेकर चलती है,
वो दुश्मन को मारती नहीं,
उसकी चालें थका देती है।
तुम साजिश करोगे —
हम शौर्य लिखेंगे।
तुम ललकारोगे —
हम सरहद को माँ बना देंगे।
हिंदुस्तान की फौज
किसी शौर्यगाथा की गूंज नहीं,
वो सर्द रातों में देश के सपनों की रखवाली है।
“कर्ज़ की फसल”
भोला किसान, हल चलाता,
मिट्टी से सोना उपजाता।
फिर एक दिन आया बैंकर,
सूट-बूट में, मुस्काता।
बोला – “हम देंगे केसीसी कार्ड,
ताकि सपनों को मिले रफ्तार।”
पर हकीकत थी कुछ और ही,
न था उसमें कोई उपकार।
हर बार जब बैंक गया,
कुछ दस्तखत, कुछ फार्म भरा।
पता न चला कब ‘पॉलिसी’ बनी,
और खाते से पैसा कट गया।
जो उम्मीद थी सहारे की,
वो निकली साजिश बेचारी की।
न कर्ज़ माफ़ हुआ, न ब्याज रुका,
बस लूट की लहरें बह चलीं धरा।
खेत की रेत गवाह बनी,
जब पढ़ा-लिखा किसान समझा सच्चाई।
कैसे ये प्राईवेट बैंक
काटते हैं जेब, बिना सुनवाई।
हे सरकार, हे नीति नियंता,
क्या यही है “विकास” का चेहरा?
जहाँ किसान को भी
लूटते हैं बैंकों के गिद्ध सवेरा?
अब तो सावधान हो ऐ अन्नदाता,
तू ही देश की असली सत्ता।
पढ़, समझ, जाग, हिसाब माँग,
वरना ये सिस्टम तेरी चुप्पी खाएगा,
ता-उम्र हर साँस तक।
“प्रेस की चुप्पी, रीलों का शोर”
कभी जो कलम थी आग सी,
अब फ़िल्टरों में खो गई।
जो चीखती थी अन्याय पर,
वो चुपचाप अब सो गई।
न सवाल हैं, न बात है,
बस ट्रेंड की सरकार है।
जो रील बनाए युद्ध पर,
वो आजकल अख़बार है।
जो सत्ता से डरता नहीं,
वो अब स्पॉन्सर से डरे।
जो सच दिखाए आईना,
वो अब व्यूज को गिन मरे।
“नमस्ते फैम!” से शुरू,
हर दिन का संवाद है।
जहाँ ख़बर नहीं, बस
कॉलेब का व्यापार है।
जहाँ ‘भाई लोग’ की जय जयकार,
और ‘हेटर्स’ का बहिष्कार।
जहाँ लोकतंत्र की बहस नहीं,
सिर्फ़ गिवअवे और अवतार।
हाशिये की चीख अब
मीम बनकर रह गई।
जो ज़मीर हुआ करता था,
वो प्रोफाइल में बह गई।
कविता भी अब सोचती है,
क्या लिखूं इस दौर में?
जब कवि बिके ब्रांड बनें,
हर शब्द हो चटख़ौर में।
तो लो मनाओ दिवस नया,
‘इन्फ्लुएंसर महोत्सव’ हो।
जहाँ चरित्र से बड़ा कन्टेन्ट,
और सत्य से बड़ी पोस्ट हो।
अक्षय तृतीया
वैशाख की उजली बेला आई,
धूप सुनहरी देहरी पर छाई।
अक्षय तृतीया का मधुर निमंत्रण,
पुण्य-सुधा में डूबा आचमन।
न मिटने वाला पुण्य का सूरज,
हर मन में भर दे स्वर्णिम किरण।
सच की थाली, धर्म का दीपक,
दान की बूंदें, जीवन समर्पण।
परशुराम की वीरगाथा बोले,
गंगा की लहरें चरणों में डोले।
युधिष्ठिर को अक्षय पात्र मिला,
सत्य का दीप फिर से खिला।
मां लक्ष्मी के पग जब आँगन आएं,
निर्धन के भी भाग्य मुस्काए।
जो दे अन्न, जल और वस्त्र,
उसके पुण्य हों कभी न क्षीण शस्त्र।
सोने से ज्यादा सोचा जाए,
करुणा का सौदा किया जाए।
पंछियों को जल, वृक्षों को जीवन,
अक्षय हो फिर मानव का चिंतन।
ना हो केवल सोने की पूजा,
धूल में भी खोजें आत्मारूप सूझा।
बिन मुहूर्त जो शुभ हो जाए,
ऐसा हर दिन क्यों न हो पाए?
खरीदें नहीं केवल आभूषण,
उतारें मन के भी आडंबर।
आस्था के संग हो सेवा,
तभी फले पुण्य का अमर अंत:करण।
ओ धन के व्यापारी, सुन ले बात,
अक्षय वह जो दे इंसानियत का साथ।
सोना-चांदी फिर भी छूटेंगे,
पर प्रेम, परोपकार कभी न टूटेंगे।
इस तिथि पर कर लो संकल्प,
हर कर्म हो सच्चा और सरल।
अक्षय बने हर दिन की चेतना,
पुण्य हो जीवन की प्रेरणा।
“हे परशुराम, धर्म का दीप जलाओ”
जय जय परशुराम प्रभु, धरम के दीप जलाओ,
अन्याय के घोर अंधेरे में, फिर से ज्योति जगाओ।।
कण-कण में करुण पुकार सुनाई,
धरा पे फैली पीड़ा गहराई।
अत्याचार की आग भड़की,
मर्यादा की लाज झुलसी।
हे वीर परशुराम, अब आओ,
धरती पर फिर धर्म जगाओ।।
जय जय परशुराम प्रभु, धरम के दीप जलाओ,
अन्याय के घोर अंधेरे में, फिर से ज्योति जगाओ।।
कलियुग की काली रात में,
सच की दीप शिखा बुझ जाती।
पग-पग पर छल, पग-पग पर घात,
मनुजता रोज-रोज लजाती।
पुराणा धरम निभाने को,
हे परशुधारी, फिर लौट आओ।।
जय जय परशुराम प्रभु, धरम के दीप जलाओ,
अन्याय के घोर अंधेरे में, फिर से ज्योति जगाओ।।
कण-कण में अन्याय गरजता,
हर गली में अपराध बरसता।
सच्चाई दम तोड़ रही,
न्याय चुप्पी ओढ़ रही।
अत्याचारों का जड़ से नाश करो,
फरसे की धार फिर चमकाओ।।
जय जय परशुराम प्रभु, धरम के दीप जलाओ,
अन्याय के घोर अंधेरे में, फिर से ज्योति जगाओ।।
हे परशुराम, फरसे की धार बढ़ाओ,
धरम अर इंसानियत का फिर से राग सुनाओ।
भूले पथिकों को राह दिखाओ,
कलुषित मनों में भक्ति जगाओ।।
जय जय परशुराम प्रभु, धरम के दीप जलाओ,
अन्याय के घोर अंधेरे में, फिर से ज्योति जगाओ।।
ढाणी बीरन : नव जागरण की गाथा
“घूंघट छोड़ा स्वप्न ने, खोले नभ के द्वार,
ढाणी बीरन गा रही, नारी का जयकार।”
“चौपालों की सांस में, बदली नई बयार,
आंचल हटते ही दिखे, सपनों के उपहार।”
“धर्म, परंपरा, प्रेम से, बाँधे नए विचार,
ढाणी बीरन ने किया, नारी का सत्कार।”
“बंद दरवाजे खुले, खुली हवा की रीत,
नारी ने जाना तभी, स्वयं उसी की गीत।”
“ओट घूंघट की हटी, दिखा तेज उजास,
चरणों से नभ नापती, बढ़ी स्वप्न की आस।”
“जो घूंघट में कैद थी, आज बनी हुंकार,
नन्हीं मुस्कानों में बसा, नव युग का विस्तार।”
“माथे से बोझा हटा, मुस्काया है आज,
बेटी- बहुओं संग चला, बदला हुआ समाज।”
“ढाणी के हर द्वार पर, बजते नवल सितार,
बढ़ते नारी के कदम, रचा नया संसार।”
“आँखों से अब छलकते, आशा के मधु रंग,
ढाणी की सब बेटियां, नव उत्सव के संग।”
“रोके ना दहलीज अब, अब ना बंदनवार,
नारी ने खुद रच लिया, सपनों का संसार।”
“मेहमान”
पाँच की मैगी साठ में खरीदी,
सौदा भी कोई सौदा था?
खच्चर की पीठ पे दो हज़ार फेंके,
इंसानियत भी कोई इरादा था?
बीस के पराठे पर दो सौ हँस कर,
पचास टिप फोटो वाले को,
हाउस बोट के पानी में बहा दिए
हज़ारों अपने भूखे प्याले को।
नकली केसर की खुशबू में
अपनी सच्चाई गँवा बैठे,
सिन्थेटिक शाल के झूठे रेशों में
अपने सपनों को सिलवा बैठे।
इतना लुटे, फिर भी मुस्काए,
आज जान भी लुटा आए हो,
और सुनो —
वो फिर भी कहते हैं —
“मेहमान हो, मेहमान हमारे हो!”
पहलगाम की चीख़ें
जब बर्फ़ीली घाटी में ख़ून बहा,
तब दिल्ली में सिर्फ़ ट्वीट हुआ।
गोलियाँ चलीं थी सरहद पार से,
पर बहस चली—”गलती किसकी है सरकार से?”
जो लड़ रहे थे जान पे खेलकर,
उनकी कुर्बानी दब गई मेल में।
और जो बैठे थे एयरकंडीशन रूम में,
लिखने लगे बयान—”मोदी है क़सूरवार इसमें।”
कब समझोगे, ये दुश्मन बाहर है,
जो मज़हब की आड़ में कत्लेआम करता है।
1400 सालों से जो आग सुलगा रहा,
उसका नाम लेने से भी डर लगता है क्या?
मोदी नहीं, वो किताबें दोषी हैं,
जो नफ़रत की जुबान बोलती हैं।
जो कहती हैं, ‘काफ़िर को खत्म करो,’
और तुम कहते हो, ‘सेक्युलर रहो।’
किसी ने कहा—”पहले जाति देखो,”
किसी ने कहा—”धर्म ना पूछो।”
पर जब आतंकी आया AK-47 लिए,
उसने सीधा सीने में गोली पूछी—”हिन्दू हो या नहीं?”
क्या यही है तुम्हारी मानवता की परिभाषा?
क्या यही है तुम्हारी आज़ादी की भाषा?
जो देश के वीरों को शर्मिंदा करे,
और आतंकी सोच को गले लगाए, वो बुद्धिजीवी नहीं, गद्दार कहे जाए।
मोदी को कोसने से पहले सोचो,
क्या तुमने भी देश के लिए कुछ किया है?
जिसने जवाब दिया बालाकोट से,
उसके इरादे पर शक करना भी गुनाह है।
पहलगाम रो रहा है, सुनो उसकी सिसकी,
ये कायरता नहीं, ये साजिश है जिसकी।
एकजुट होओ, मज़हब से ऊपर उठकर,
वरना अगली चीख़ तुम्हारे घर से उठेगी।
“मृत्यु का मर्म और मोक्ष का मेला”
बोल उठे बाबा बागेश्वर,
“मृत्यु है मृगमरीचिका भर।
शरीर छूटे, आत्मा हँसे,
मोक्ष वही जो भय से न डरे।”
धूप थी, भीड़ थी, जयकारा था,
पर एक दृश्य भीतर ही कुछ हारा था।
लो, आया वह साधु सम्राट,
अपने पीछे सुरक्षा की बारात।
चार थानों की छाँव में कथा चली,
धर्म हैरान था, गाड़ी बुलेटप्रूफ चली।
संग थे अंगरक्षक, बाउंसर, पहरेदार,
मोक्ष का रास्ता था, जैसे जेल की दीवार।
श्रद्धा खड़ी थी नंगे पाँव,
और बाबा के चारों ओर लोहा था, काँच का छाव।
भक्तों ने पूछा —
“बाबा! जो अमर है, उसे भय किस बात का?”
बाबा मुस्काए —
“यह भी एक लीला है प्रभु की सौगात का।”
कभी कहते — “भीड़ में मरे तो मोक्ष मिलेगा”,
अब कहते — “भीड़ से डर है, व्यवस्था कड़ी रखो भैया।”
क्या यही है त्याग? यही सन्यास?
या है धर्म अब एक सुरक्षित विकास?
जिस देह को त्यागने की बात हो रही,
उसी के लिए सुरक्षा की घेराबंदी क्यों हो रही?
क्या आत्मा की अमरता पर तुम्हें खुद भी संदेह है?
या फिर मोक्ष के मार्ग पर भी स्पेशल एक्सप्रेस है?
हे बाबा!
तुम्हारे प्रवचन तो स्वर्ग तक पहुँचते हैं,
पर तुम्हारे काफिले…
तोप-तमंचों की ज़मीन पर चलते हैं।
धर्म अगर निर्भयता है,
तो तुम भय के किस पंथ पर हो?
लाइव में रोना, प्यार का सौदा
( एक डिजिटल दौर की त्रासदी )
घर की बात थी, घर में रहती,
अब कैमरे के आगे बहती।
झगड़े भी अब स्क्रिप्ट हुए हैं,
रिश्ते जैसे क्लिप्ट हुए हैं।
लाइव हुआ तो दर्द बढ़ा,
बिना सुने हर जुर्म चढ़ा।
एकतरफा रोना धोना,
बन गया है ट्रेंड अब सोना।
‘सुट्टा वाली’ या ‘मुक्का प्रकरण’,
हर किस्से का होता है वक्रण।
पहले पक्ष पे सहानुभूति,
बाद में सच दे कटु व्यथा।
ताली बजती, लाइक मिलते,
कॉमेंट में फिर न्याय खिलते।
पर जो घर टूटा, वो टूटा,
फॉलोवर्स से न रिश्ता छूटा।
कैमरा चालू, अश्रु बहाए,
दूसरी बात कभी न आए।
सोचो यारो, ये क्या मंजर,
प्यार बना अब डिजिटल जंतर।
रिश्ते अब ट्रेंडिंग में खोते,
सच्चे लोग भी शक में होते।
हर क्रंदन अब कंटेंट घना,
दर्द भी जैसे पब्लिक बना।
इसलिए ठहरो, सोचो सयाने,
हर बात न हो स्टेटस के बहाने।
संवाद रखो, सवाल करो,
दोनों पक्षों का ख्याल करो।
वरना इक दिन आएगा ऐसा,
जहाँ प्यार भी होगा पैसा।
रिश्ते बिकेंगे लाइव रो में,
और टूटेंगे वायरल शो में।
चॉक की लकीरें, आंसुओं से भीगीं
ब्लैकबोर्ड बोले, “यहां उम्मीदें झुलसी हैं।”
क्लास में खड़ा मास्टर, आंखों में नींद नहीं,
तनख़्वाह पूछो तो कहता है—“जी, ज़रूरत नहीं!”
सुबह की असेंबली, शाम तक की सज़ा,
वीकेंड में भी मीटिंग, कहां है मज़ा?
हाज़िरी में नाम है, इज़्ज़त में नहीं,
छुट्टी मांगी तो जवाब—”और कोई है नहीं?”
सिलेबस से तेज़ भागे, मोबाइल के नोट,
बच्चा बोले “बोरिंग”, माँ बोले “कोचिंग छोड़!”
प्रिंसिपल मुस्काए, जब टॉपर बने लाल,
मास्टर पे बरसे, जब बच्चा हो बेहाल।
फूल मिले शिक्षक दिवस पर, फोटो खिंचवाए,
बाकी 364 दिन, गालियों के साए।
महिला हो तो “मैडम”, पुरुष हो तो “भैया”,
लेकिन तनख़्वाह वही, जो सुनते ही हंसी आ जाए।
फॉर्म भराए, कॉल कराए, निबंध भी लिखे,
व्हाटस् एप पर होमवर्क, रात 10 बजे भी दिखे।
पर बोले स्कूल—”आप तो पढ़ाते ही कितना हैं?”
मन करे पूछूं—“इतना सहूं, आखिर किसलिए मैं?”
गुरु की गरिमा नहीं, बस जिम्मेदारियाँ हैं,
शिक्षक नहीं, जैसे कोई मशीन बनाई है।
अगर ये शिक्षा का मंदिर है,
तो पुजारी क्यों भूखा, क्यों इतना बेबस है।
सीखो गिलहरी-तोते से

(साक्षात प्रेम देखकर लिखी गयी कविता)
पेड़ की डाली पर बैठे,
गिलहरी और तोते।
न जात पूछी, न मज़हब देखा,
बस मिलकर चुग ली रोटियाँ छोटे।
न तर्क चले, न वाद हुआ,
न मन में कोई दीवार थी।
एक थाली में बँटी मोहब्बत,
जहाँ बस भूख ही सरकार थी।
और हम, नाम के इंसान,
द्वेष के रंग चढ़ाए फिरते हैं।
सगे भी सगों से कटते हैं,
अपनेपन को दरकिनार करते हैं।
भाई-भाई में खाई क्यों?
क्यों मन में ज़हर उगाते हो?
सीखो उन परिंदों से,
जो बिना शोर के प्रेम निभाते हो।
धरती सबकी, अन्न सबका,
हवा न किसी की जागीर है।
प्रकृति पुकारे हर साँझ-सवेरे,
“जो बाँटे वही गंभीर है।”
कब सीखोगे इंसान बनना,
गिलहरी और तोते से?
कब छोड़ोगे नफ़रत की आदत,
चलो कुछ लज्जा लो खुद से।
गिलहरी और तोता: एक लघु संवाद
वट-वृक्ष की शीतल छाया में,
बैठे थे दो प्राणी चुपचाप—
एक चंचला चपल गिलहरी,
दूजा हरा-पीला तोता आप।
थाली में कुछ दाने गिरे थे,
ना पूछी जात, ना वंश, ना गोत्र।
नहीं कोई मंत्र, न यज्ञ, न विधि,
बस भूख थी, और सहज भोग पात्र।
न वहाँ कोई ‘ऊँच’ का झंडा लहराया,
न ‘नीच’ के नाम पर थूक गिरा।
न रोटी को छूने से धर्म डिगा,
न पानी पर पहरा किसी ने दिया।
गिलहरी बोली—”सखी! कैसा है तेरा कुल?”
तोते ने मुस्काकर कहा—”हम बस प्राणी हैं, सरल मूल।
पंख हैं, पेट है, और प्रेम की चाह,
और क्या चाहिए जीने को एक राह?”
सुनकर यह, पेड़ भी झूम उठा,
हवा ने सरसराते हुए ताली बजाई।
पर दूर किसी गाँव की मिट्टी में,
मानव जाति ने फिर दीवार उठाई।
सगे भाई ने थाली अलग की,
बहन के हिस्से का जल रोका।
नाम मात्र का मानव बना वह,
पर भीतर था पशु से भी धोखा।
कैसा यह व्यंग्य रचा है सृष्टि ने,
जहाँ मनुष्य ज्ञान का अधिकारी है,
पर संवेदना में, प्रेम में,
एक तोते से भी हारी है।
नींबू पानी
गर्मियों में जब प्यास लगे,
नींबू पानी से आस जगे।
ठंडी-ठंडी, मीठी-मीठी,
स्वाद से भरी अहसास दे।
नींबू बनता जब साझेदार,
घोल बने तब मजेदार।
चीनी, नमक, थोड़ा-सा पानी,
बना देते है जायकेदार।
धूप की हो न परेशानी,
बस साथ हो नींबू पानी।
पीकर इसको मिलती ठंडक,
चाहे हो गर्मी रेगिस्तानी।
तो बच्चों, इस गर्मी अभी,
नींबू पानी न भूलो कभी,
ताजगी का स्वाद बढ़ाओ,
नीम्बू पानी भर लो सभी।
हर घूंट में ठंडक का एहसास,
नींबू पानी होता है खास।
गर्मी में ये जादू काम करे,
नींबू पानी रखना पास।
बाबा तेरा ख़्वाब
फूल चढ़े हर मोड़ पर, भाषण की झंकार।
बाबा तेरे नाम पर, सत्ता करे सवार॥
मंच सजे, माला पड़े, भक्तों का है ढेर।
पुस्तक तेरी धूल में, चुप है हर इक शेर॥
जात न जाए देश से, मिले कहाँ अब न्याय।
सत्ता तेरे नाम पर, लिखती रोज़ अध्याय॥
तेरा जीवन क्रांति था, तेरा धर्म विद्रोह।
आज उसी के नाम पर, सत्ता पाले मोह॥
बोले तूने शब्द जो, वह समता का संदेश।
अनुयायी तेरे यहाँ, भूले वह उपदेश॥
मिला है संविधान तो, मिला नहीं स्वराज।
मगर दलित की आँख में, आँसू है फिर आज॥
हिस्सेदारी, जाति-गण, ये थे तेरे मूल।
मुद्दे आज वह सब बनें, राजनीति के चूल॥
लहराए झंडा सभी, लेकिन बोली मौन।
सत्ता तेरे नाम पे, फिर भी तेरे कौन॥
फ्री राशन से न्याय ना, भीख नहीं सम्मान।
बाबा तेरा ख़्वाब था, देना पूरा स्थान॥
मूर्ति नहीं, विचार हो, सड़क नहीं अधिकार।
श्रद्धांजलि तब सत्य हो, न्याय बने व्यवहार॥
यदि सच में पूजना है, बाबा का आकार।
जीवन में उतारिए, उनके सत्य विचार॥
सत्ता, शहादत और सवाल
क्यों जलियाँ की चीख सुन, सत्ता है अब मौन?
लाशों से ना सीख ली, अब समझाये कौन॥
डायर केवल नाम था, सोच भरी है आज।
वर्दी बदली, मन वही, वही लहू की लाज॥
सत्य कहे “गद्दार” हो, चुप रहकर हो “भक्त”।
लोकतंत्र है या यहाँ, जंजीरों का वक्त॥
लूटते भला किसान हो, या छात्र अनुद्रोह।
हर विरोध के माथ पर, लिखा अब देशद्रोह।।
प्रश्न पूछना पाप है, सच कहना अपराध।
सत्ता के इस महल में, नंगे है सब साध॥
वीरों का सम्मान हो, नहीं दिखावा खेल।
बाग वही है, चीख भी, सुन अगर हो मेल॥
मौन साध ले मीडिया, न्याय तजे अब रीत।
तब समझो फिर लौटकर, डायर की है जीत॥
डायर की अब वर्दियाँ, रहीं चमक कर नोच।
जनमत आज कुचल रही, फिर भीतर की सोच॥
वैसा ही मन निर्दयी, पहन वोट का ताज।
फर्क बचा तब क्या यहाँ, ज्यों ब्रिटिश का राज।।
चलती अब भी गोलियाँ, हुई रफ़्तार मन्द।
कभी बैन यूट्यूब है, कभी पत्रकार है बंद॥
लोकतंत्र का ताज है, जनता की आवाज़।
मौन करा के क्या मिला? पलटे तख्तों ताज॥
जलियाँ में जो ना मरे, वे भी मरते आज।
सत्ता के शैतान अब, घोट रहे आवाज़॥
“अंधभक्त” या “ट्रोल” की, सेना है तैयार।
प्रश्न किया यदि राज पर, देख जेल का द्वार॥
रक्त लिखी जो चेतना, खोती कब आवाज़।
गूंज रही हर ईंट में, सौरभ आहें आज॥
दीवारें जलियाँ कहें, मत करना तू गर्व।
जब तक सच ना गूँजता, रहे अधूरा पर्व॥
डायर चला, जनरल गया, नहीं गई पर सोच?
सत्ता भीरु खा रहे, आज देश को नोच॥
देश न बिके दलाल से, ना नेता की चाल।
देश जिए जब बोल सके, अंतिम किया हलाल॥
जलियाँ वाला एक दिन, बना आग का रूप।
गली गली अब खोजती, वह साहस वह भूप॥
जलियाँ तेरा खून कहे, अब भी है प्रतिबंध।
सूट पहन डायर चला, बोली करता बंद॥
चमक रहा है कैमरा, सच्चाई लाचार।
बस लालच की दौड़ में, बिकाऊ समाचार॥
गूगल कर के देख लो, क्या था सच का भाव।
तुमने तो कर सब दिया, प्रोपेगैंडा का दाव॥
फेसबुक पर श्रद्धांजलि, बड़ा ट्वीट में शोर।
मगर ज़मीं पर आज भी, सत्ता ही है चोर॥
डायर की गोली चली, “चार्जशीट” अब रीत।
कलम उठाने पर मिले, देशद्रोह की फीत॥
परिभाषा अब “राष्ट्र” की, सत्ता का हथियार।
चुप रह तो भक्त है, जो बोले गद्दार॥
लाठी से न्याय मिले, ये कैसे कानून।
अदालते जलियाँ बनी, पीती चुप हो खून॥
फूले का भारत
शूद्र अछूत कह जिन्हें, माना था लाचार।
फूले ने दी सीख तो, खोला ज्ञान-द्वार॥
यज्ञ-जपों की आड़ में, होता रहा प्रपंच।
फूले ने जब कहा ‘नहीं’, टूटा झूठा मंच॥
शिक्षा जिसकी धारणी, खोले सौरभ द्वार।
भेदभाव के जाल से, होता तभी उद्धार॥
सावित्री को साथ ले, रच दी नयी मिसाल।
नारी पढ़े, बढ़े तभी, बदले सारे ख्याल॥
पैसे की जो बंदगी, शिक्षा की हो हार।
फूले कहते ज्ञान बिन, सब कुछ है बेकार॥
गुजरे सत्तर साल अब, फिर भी वैसी बात।
बदलेंगे कब दलित के, धरती पर हालात॥
संविधान की छाँव में, अब भी खड़े सवाल।
जाति, धर्म के नाम पर, चलती हर इक चाल॥
कर्मकांड को छोड़ कर, रचिये नया समाज।
सत्यशोधक फुले बनें, संघर्षों का राज॥
फूले जैसा स्वप्न था, समता-शिक्षा-ज्ञान।
पर अब भी तो गूंजता, भेदभाव का गान॥
फूले का भारत वही, जहाँ न हो अपमान।
मानवता की रेख से, बनता नया विधान॥
कर्म न देखा आज तक, देखा कुल या गोत्र।
फूले पूछें–यह कहाँ, मानवता का जोत्र?॥
राजनीति जब सेविका, बन जाए व्यापार।
फूले तब हैं पूछते–सेवा है या वार?॥
गाँवों में अब भी नहीं, रोटी-शाला-वास।
फूले पूछें–क्या यही, है सच्चा विकास?॥
फूले का भारत अगर, रचना हो साकार।
उठो मनुज! अब मत रुको, कर विवेक से वार॥
महावीर की सीख
ध्यान में डूबा तपस्वी, त्याग में रत प्राण,
लीन हुए जो आत्म में, वही बने भगवान।
शांति की मृदु चाल में, संयम का श्रृंगार,
उनका पावन पंथ है, जीवन का आधार।
सत्य जहाँ सौम्य स्वर हो, जहाँ न हिंसा ठहर पाए,
क्षमा जहाँ की थाती हो, तप ही जिसके साए।
धर्म, ज्ञान, वैराग्य के दीप जलाते जहाँ,
महावीर की वाणी में, मोक्ष बसा वहां।
जब गिरता अभिमान तो, जागे अंतर्मन,
निर्मल हों विचार तब, मिटे हर बंधन।
जो मानें उस महावीर को, करें सच्चा प्यार,
सहज मिले फिर जीवन में, सुख अपार-अपार।
राग-द्वेष की आग में, जो न जलाए प्राण,
सादा जीवन, उच्च सोच – उनका यही विधान।
त्यागें लोभ व मोह को, करें मन पर राज,
ऐसी साधना बनी, जगत की स्वर्ण आवाज़।
मौन थे, पर मौन में, वाणी गूंज उठी,
शब्द थे पर अर्थ में, करुणा झरने सी बही।
उनकी हर वाणी बनी, आत्मा की रागिनी,
विशेष अमृत रस लिए, दिव्य एक अग्नि।
किसी को न दुख देना, यही धर्म की रीति,
दया, करुणा और प्रेम – सबसे उत्तम नीति।
सूत्रों में संचित है, अमरत्व का मर्म,
महावीर की सीख में, बसता सत्यधर्म।
साँस-साँस में संयम हो, चित्त सदा विश्राम,
ध्यान बने आराधना, मौन बने प्रणाम।
ऐसे वीर तपस्वी को, कोटि-कोटि सम्मान,
महावीर के चरणों में, सारा जग बलिदान।
तेरी क्या है जात
बाबा बोले मूत्र पिएँ, पीते श्रद्धावान।
मगर दलित का जल बने, छूते ही अपमान॥
नेत्र मूँद कर मानते, बाबा को भगवान।
तर्क बिना की आस्था, ले लेती है जान॥
ठहर जन्म से जो गया, नीचे उसका मान।
कर्म न देखा जात बस, कैसी यह पहचान॥
पढ़े-लिखे भी पूछते, तेरी क्या है जात।
ज्ञान बिना जब सोच हो, व्यर्थ लगे सब बात॥
छपते चमत्कार बहुत, बन जाते सौगात।
दलित मरे तो छप सके, दो लाइन की बात॥
वोट हेतु बस जातियाँ, गढ़ते सभी विधान।
सत्ता की यह राक्षसी, निगल रही इंसान॥
धर्म वही जो प्रेम दे, करुणा जिसका मूल।
जो बांटे पाखंड है, मानवता पर धूल॥
एक ओर चाँद चूमता, विज्ञान करे बात।
दूजी ओर दलित मरे, मंदिर से हो घात॥
विवेकशील शिक्षा बने, तर्कशील अरमान।
निकाले अंधकूप से, नवचेतन का गान॥
धर्म वही जो जोड़ दे, तोड़े ना इंसान।
जात-पात से मुक्त हो, हो सबका सम्मान॥
जाति-पांति को छोड़कर, बढ़े मनुज का मान।
आधार कर्म हो जहाँ, सौरभ सच्चा ज्ञान॥
शादी की दसवीं सालगिरह शुरू होने पर….

कुछ पुरानी तस्वीरें फिर से मुस्कुराईं,
वो पहली मुस्कान, वो हल्की सी शरमाहट,
जैसे वक्त की किताब फिर से पलट गई।
साल दर साल साथ चले,
कभी धूप में, कभी छांव तले,
कुछ खामोशियां थीं, कुछ हँसी के मेले,
कभी रूठना, कभी मनाना — सब रंग थे रिश्ते के इस खेल में।
पहली लड़ाई की बात याद है?
या वो पहली बार जब तुमने चाय बनाई थी?
आज भी उसी चाय की खुशबू
हर सुबह को खास बना जाती है।
इन सालों में हमने बहुत कुछ पाया,
कुछ खोया, कुछ सहेजा, कुछ संभाला,
पर सबसे कीमती तो ये साथ था —
जो हर मोड़ पर हमें एक-दूजे के और करीब लाता गया।
शादी की दसवीं सालगिरह शुरू होने पर,
मैं सिर्फ तुम्हारा “धन्यवाद” कहना चाहता हूँ —
कि तुमने हर तूफान में मेरा हाथ थामा,
और हर मुस्कान में मेरी आंखों में झांका।
आओ, इस नए दशक की शुरुआत करें,
फिर से एक वादा करें —
कि अगला हर साल,
प्यार में बीते, साथ में बीते, और यूँ ही खूबसूरत बीते।
मैं विषपान करता हूं
हर मुस्कान के पीछे,
छिपा होता है एक चीखता हुआ सच।
हर शब्द जो तुम पढ़ते हो,
वो मैंने आँसुओं से लिखा है — स्याही से नहीं।
मैं रोज़ अपने ही अंदर उतरता हूं,
जहाँ उम्मीदें दम तोड़ चुकी हैं,
और फिर वहां से निकालता हूं
एक टुकड़ा कविता का —
जिसे तुम ‘रचना’ कहते हो।
ये कोई कल्पना नहीं,
ये कोई सजावटी गुलदान नहीं,
ये वो काँटा है
जो मैंने हर दिन सीने में चुभोया है —
सिर्फ़ इसलिए कि तुम समझ सको
कि दर्द भी सुंदर हो सकता है।
मैं पुरस्कारों के लिए नहीं लिखता,
मंच की तालियों के लिए नहीं।
मैं लिखता हूं
क्योंकि नहीं लिखूं तो मर जाऊं।
क्योंकि लिखना —
मेरे विषपान का प्रतिकार है।
पनपे जख़्म हजार॥
रिश्ते यूँ ना टूटते, होते नहीं अधीर।
धीरे-धीरे चुप रहें, सहते- सहते पीर॥
अनदेखी जब भाव की, होती बारंबार।
मन में फिर चुपचाप से, पनपे जख़्म हजार॥
शब्दों में अपमान जब, भर जाए अंगार।
रिश्ते फिर यूँ काँच से, सह ना पाए वार॥
पीड़ा में जब प्रेम ना, पाए मन का साथ।
छूट जाए विश्वास का, तब सौरभ हर हाथ॥
हर चोटें बनती गईं, मन पर जब आघात।
फिर इक दिन चुपचाप ही, बिखरे सब जज़्बात॥
जोड़ो चाहे लाख तुम, हर बिखरे एहसास।
बीच दरारें रह गईं, करती हैं उपहास॥
नज़रों से ओझल हुए, रिश्तों के आधार।
धीरे-धीरे खो गए, स्नेह-सुधा के सार॥
संवेदन की मौत पर, चुप्पी हो जब राज।
मन की गांठें तब कहे, भीतर का अंदाज़॥
मौन रहे जब हाल पर, ना पूछे जब हाल।
तब रिश्तों की नींव में, आते हैं भूचाल॥
वक़्त न दे पहचान जब, भाव रहे बेनाम।
रिश्ते फिर इतिहास हों, जैसे भूले नाम॥
कभी बंधे जो प्रेम से, छूते थे आकाश।
अब जकड़े हैं मौन में, खो बैठे विश्वास॥
मर्यादा की चूक से, होता है अवसाद।
चोटें जब गहरी लगें, टूटे हर संवाद॥
जिसके दिल में प्रेम हो, उसका थामो हाथ।
जीवन की हर मुश्किलें, कट जाएँगी साथ।।
नाते सब कमजोर॥
स्वार्थ भरी इस भीड़ में, खोए अपने लोग।
चाहत की इस दौड़ में, छूट गए सब योग॥
सत्य हुआ अब मौन सा, झूठ मचाए शोर।
धन के आगे बिक रहे, नाते सब कमजोर॥
कलियाँ रोती बाग में, पात हुए बेचैन।
सुख की छाया ढूँढते, पंछी अब दिन रैन॥
हरे पेड़ तो कट चले, सूख गए सब खेत।
जल बिन पंछी रो रहे, दिखे रेत ही रेत॥
जल को तरसे धान भी, सूख गए खलिहान।
बादल बिन बरसे गए, रोया देख किसान॥
मन में सच्ची प्रीत हो, वाणी रहे मिठास।
बातें चाहे कम कहो, बन जाए इतिहास॥
झूठ कहे जो जीतता, सच्चा रहे उदास।
कलयुग के इस फेर में, पंजा हुआ पचास॥
“जीवन पिच के गेम में”
(क्रिकेट और जिंदगी दोनों का कॉकटेल)
जीवन पिच के गेम में, भरे पड़े है ट्विस्ट।
अपने ही जब आउट करें, छा जाती है मिस्ट।।
जीवन की पिच पर लगे, रोज नई ही फील्ड।
अपने ही जब कैच पकड़ लें, हो जाए फिर नील्ड।।
चाल छुपी हर बात में, पहचानो हर ट्रिक।
पास खड़े जो खेलते, करते तुरंत क्लिक।।
स्ट्रेट ड्राइव, शॉट कवर, सोचो हर इक बॉल।
पास खड़े आउट करे, उन पर मत कर टॉल।।
नो बॉल के लालच में, आउट होते लोग।
फ्री हिट्स का चांस समझ, मत करना कुछ भोग।।
हँसते- गाते लोग ये, देते बाउंसर तेज।
सीधा दिल पर जब लगे, देते कोमा भेज।।
गुगली फेंके, कैच लें, दे गिरा हमें कौन।
सोचो समझों फ्रेंड ली, होकर सौरभ मौन।।
गुगली,बाउंसर मिले, रहना तुम तैयार।
रन आउट से भी बचो, दौड़ों हो हुशियार।।
बैटिंग सत्य की करो, रखना मन का होश।
वरना अपनी टीम से, खा जाओगे लॉश।।
लाइफ के इस ग्राउंड में, खुद को रखना सेट।
खेल सही जो खेलते, वही मारते बैस्ट।।
फिनिशर बन कर खेलिए, रखो धैर्य से मेल।
बैटिंग स्वय से बचे, वरना पलटे खेल।।
सिक्सर मारो वक़्त पर, पर देखो हर ट्रैप।
बैकस्टैब जो भी करें, रखो उनसे गैप।।
नव कोंपल फिर उगे
आँधी जोड़े हाथ दो, गाए चाहे गीत।
टूटी डाली कब जुड़ी, लाख निभाए रीत॥
क्रोधी पवन प्रहार से, तोड़े तरु की डाल।
माफी से कब जुड़ सके, दुख दे जीवनकाल॥
धूप लगे, जल बरसता, फिर भी रहे उदास।
बीते पल की टीस तो, रहती हर अहसास॥
चलो भुला दें बात सब, समझ समय की राख।
जुड़ती फिर से कब यहाँ, पर जो टूटी शाख॥
धागे जोड़ें, गोंद से, करें लाख उपचार।
पर जो बिखरा इक दफा, ले, न वही आकार॥
झूठी आशा, या वचन, लाते नहीं बहार।
पेडों से पत्ते गिरे, जुड़ते फिर कब यार।
रंग-रूप कब लौटते, फिर आए कब गंध।
संभव है सब, पर नहीं, गया हृदय आनंद॥
टूटे मन की वेदना, कहे न कोई बात।
भीतर ही भीतर जले, रह जाए सब घात॥
रिश्ते भी हैं डाल सम, स्नेह रहे आधार।
वरना झोंकों से सखे, बिखरेंगे हर बार॥
शाख टूटकर कब जुड़ी, यह जीवन सोपान।
पर नव कोंपल फिर उगे, रख मन से ये ध्यान॥
आया काल कपाल
जब तक साँसें साथ हैं, तब तक तेरा राज।
साँस रुकी जो एक पल, छूट गए सब ताज।।
सोने के महलों में रहा, भोगे सुख के थाल।
छूटी काया साथ से, आया काल कपाल।।
जिनको धन अभिमान है, वे हैं मूढ़ अजान।
काल बटोही लूटकर, कर देगा सुनसान।।
पंछी चहके डाल पर, उड़े गगन के पार।
तन तज जाता जब यहाँ, छूटे कुल परिवार।।
महँगे कपड़ों से नहीं, ऊँचा होता मान।
जिसके कर्म उजास दें, वही बड़ा इंसान।।
जब तक जीवन रोशनी, तब तक सुख का मेल।
बुझते ही दीपक गया, व्यर्थ हुआ फिर तेल।।
माया झूठी, झूठ धन, झूठा जग अभिमान।
संग चले बस कर्म है, देते सच्चा मान।।
पंछी जैसे छोड़ दें, सूना करके नीड़।
तन को छोड़ मनुष्य भी, दे जाता है पीड़।।
संचय धन का जो करे, फिर भी रहे अधीर।
खाली आया जगत में, खाली चला शरीर।।
संपति, वैभव, रूप सब, होते क्षण में अंत।
माटी तन माटी मिले, सत्य सौरभ अनंत।।
खिलो सदा बेरूत
धीरज रख, मत क्रोध कर, समय बड़ा बलवान।
जो बोया वह काटता, जग का यही विधान॥
अपमानों से टूट मत, ख़ुद को रख मजबूत।
सब सहकर भी बढ़ चलें, खिलो सदा बेरूत॥
अपने करते वार हो, कैसा उनसे राग।
जो ना समझे मन व्यथा, कर दो उनका त्याग॥
तुमको ठुकरा कर चले, उसका क्या अधिकार।
जो ना समझे भाव को, उससे क्यों तकरार॥
मोल न जाने शब्द का, नहीं भाव पहचान।
उससे क्या संवाद हो, जो करते अपमान॥
मौन बना जो बढ़ चला, पाये मान अपार।
बोल-बोल के हारता, करता जो तकरार॥
तिरस्कार की आग में, जलता क्यों हर रोज।
मौन रखो, आगे बढ़ो, रख धीरज का ओज॥
शब्दों से मत युद्ध कर, ले इतना संज्ञान।
जो ना समझे मूल्य को, उसका क्या सम्मान॥
अपमानों की चोट से, मत रोओ दिन-रात।
जो ना जाने प्रेम को, उसकी क्या औकात॥
मौन रहो, गंभीर बन, धैर्य धरो हर हाल।
जो असली पहचान ले, मन में उसको पाल॥
मन की पीड़ा मौन कह, शब्द करें उत्पात।
जो ना समझे मौन को, उनसे क्या फिर बात॥
सहने वाले को मिले, सच्ची विजय विशाल।
क्रोध करेगा जो सदा, होगा वह बेहाल॥
सबने बदले रोल
प्रेम-प्रेम जब तक रहा, घर था सुखमय धाम।
दस्तक धन की जो हुई, रिश्ते हुए हराम॥
रिश्ते जब तक भाव में, तब तक थे अनमोल।
खाते-बहियाँ क्या खुली, सबने बदले रोल॥
रिश्ते सारे तौलकर, ऐसा लिखा हिसाब।
घर के आँगन में बचे, बस कागज़ के ख्वाब॥
माटी थे जब तक रहे, तब तक रिश्ते खास।
सोना-चाँदी क्या मिली, बिखर गया विश्वास॥
दौलत में जो बँट गए, बँट गया परिवार।
नेह गया जो बीच से, रहती फिर तकरार॥
नेह बसा था जिस जगह, अब है सिर्फ़ विवाद।
कोना-कोना कर रहा, घर में आज फसाद॥
धन की खातिर टूटते, अब रिश्ते नायाब।
घर के आँगन में बचे, बस काग़ज़ के ख्वाब॥
घर के सारे लोग थे, करते प्रेम अपार।
जायदाद के नाम पर, दिखा नया अवतार॥
जब तक खाली बैठता, भाई माने बात।
धन मिलते ही पूछता, “तेरी क्या औक़ात?”॥
रिश्ते होते प्रेम से, मत कर इनमें मोल।
धन-दौलत तो मिट चले, नेह रहा अनमोल॥
भाई-भाई प्रेम से, दुख-सुख करें विचार।
लोभ बढ़े जब बीच में, टूटे घर-परिवार॥
मटका बाबा
माटी का तन, प्यारा रूप,
बैठे मटका, सहें न धूप।
कुम्हार ने चाक घुमा-घुमा,
प्यार से इसको दिया बना।
सूरज की किरणें जब पड़ती,
माटी की खुशबू तब बढ़ती।
घर-घर जब यह अंदर आता,
ठंडा जल सबको दे जाता।
गर्मी आई, प्यास जगी,
बच्चे भागे, माँ से कही—
“मटका बाबा पानी देंगे,
मीठा-ठंडा रस वो देंगे!”
मटका बोला—”धीरे आओ,
बारी-बारी पानी पाओ।
गर्मी से अब डरना क्या,
पानी पी लो, चिंता क्या!”
दादी बोली—”यही सच्चा,
मिट्टी जैसा कोई न अच्छा।
न बिजली, न गैस जलानी,
फिर भी रखे ठंडी पानी!”
मटका बोला—”याद रखो,
माटी वाले बर्तन रखो।
प्लास्टिक छोड़ो, धरा बचाओ,
शुद्ध जल से जीवन पाओ।।”
तकनीकी विषयों पर नवीन शैली में दोहे
डिजिटल युग
डिजिटल युग अब दौड़ता, बदल-बदलकर चाल।
जो सीखे, वो बढ़ चले, चमके उसका भाल।
2. सोशल मीडिया
लाइकों की भीड़ में, खोया सबका ध्यान।
आभासी इस दौर में, ढूंढ रहे पहचान।।
3. कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और भविष्य
सोच रहा है यंत्र भी, सीख रहा हर भेद।
नित मानव के ज्ञान में, करकर के अब छेद।।
4. साइबर सुरक्षा
पासवर्ड जो लीक हो, आए संकट घोर।
आभासी संसार में, काबू में रख डोर।।
5. ऑनलाइन शिक्षा
पढ़े सभी अब नेट से, खुली नयी है राह।
पर गुरु जैसा ज्ञान दे, कहे कौन अब वाह।।
6. मशीनों पर निर्भरता
यंत्र करेंगे काम सब, मनुज रहेगा मौन।
रुक जाएगी सोच गर, बुद्ध बनेगा कौन।।
7. सोशल मीडिया और समय
मोबाइल की लत लगी, थककर बैठे मौन।
इतना भी ना देखते, पास खड़ा है कौन।।
8. तकनीक और आलस्
बटन दबे, हो काम सब, सुविधा मिले अपार।
परिश्रम घटता जो गया, जड़ता दे उपहार।।
ये दोहे आधुनिक तकनीक के फायदे और नुकसान दोनों को दर्शाते हैं।
देश न भूले भगत को
तन-मन अर्पित कर चला, रक्षा में बलिदान।
इतिहासों में गूंजता, आज भगत जय-गान।।
भगत सिंह, सुखदेव क्यों, खो बैठे पहचान?
पूछ रही माँ भारती, बोलो हिंदुस्तान।।
भगत सिंह, आज़ाद ने, फूंका था शंख नाद।
आज़ादी जिनसे मिले, रखो हमेशा याद।।
बोलो सौरभ क्यों नहीं, भारत हो लाचार।
भगत सिंह कोई नहीं, बनने को तैयार।।
भगत सिंह, आज़ाद से, हो जन्मे जब वीर।
रक्षा करते देश की, डिगे न उनका धीर।।
मरते दम तक हम करें, एक यही फरियाद।
देश न भूले भगत को, याद रहे आज़ाद।।
यौवन जिसने वार दी, मातृभूमि के नाम।
उस सपूत को आज भी, करता जगत प्रणाम।।
भारत माता के हुआ, मन में आज मलाल।
पैदा क्यों होते नहीं, भगत सिंह से लाल।।
रोया सारा व्योम जब, तड़पे सारे देव।
फांसी झूले जब गए, भगत, राज, सुखदेव।।
भगत सिंह, आज़ाद हो, या हो वीर अनाम।
करें समर्पित हम उन्हे, सौरभ प्रथम प्रणाम।।
बिखरी केवल प्यास
सूख गई हर बावड़ी, समतल हैं तालाब।
कैसे अब पानी बचे, मिला नहीं जवाब॥
पेड़ कटे, पर्वत ढहे, सूनी हुई बहार।
बादल भी मुंह मोड़कर, चले गए लाचार॥
नदियाँ सारी मर गई, सूख गई हर आस।
पानी बिन जीवन नहीं, कहता है इतिहास॥
नदियाँ सूनी हो गईं, पोखर हुए उदास।
जल बिन धरती तड़पती, कौन सुनेे अरदास॥
बिन पानी के रोज अब, बंजर बनते खेत।
धरती मां की गोद में, बिखरी केवल रेत॥
बोतल में अब बिक रहा, नदियों का उपहार।
कल तक जो घर-घर बहा, आज बना व्यापार॥
नदियाँ पूछें राह अब, सागर भी लाचार।
बिन पानी सिसक रही, धरती की झंकार॥
सूख गईं हैं झील सब, नदियाँ हुई उदास।
धरती माँ की गोद में, बिखरी केवल प्यास॥
रोती नदियाँ कह रही, कर लो कोई याद।
बिन पानी बेजान सी, धरा करे फरियाद॥
बूँद-बूँद में सीख
●●●
इस धरती पर हैं बहुत, पानी के भंडार।
पीने को फिर भी नहीं, बहुत बड़ी है मार॥
●●●
जल से जीवन है जुड़ा, बूँद-बूँद में सीख।
नहीं बचा तो मानिये, मच जाएगी चीख॥
●●●
अगर बचानी ज़िंदगी, करें आज संकल्प।
जल का जग में है नहीं, कोई और विकल्प॥
●●●
धूप नहीं, छाया नहीं, सूखे जल भंडार।
साँसे गिरवी हो गई, हवा बिके बाज़ार॥
●●●
आये दिन होता यहाँ, पानी ख़र्च फिजूल।
बंद सांस को ख़ुद करें, बहुत बड़ी है भूल॥
●●●
जो भी मानव ख़ुद कभी, करता जल का ह्रास।
अपने हाथों आप ही, तोड़े जीवन आस।
●●●
हत्या से बढ़कर हुई, व्यर्थ गिरी जल बूँद।
बिन पानी के कल हमीं, आँखें ना ले मूँद॥
●●●
नदियाँ सब करती रहें, हरा-भरा संसार।
होगा ऐसा ही तभी, जल से हो जब प्यार॥
●●●
पानी से ही चहकते, घर-आँगन-खलिहान।
धरती लगती है सदा, हमको स्वर्ग समान॥
●●●
बाग़, बगीचे, खेत हों, घर या सभी उद्योग।
जीव-जंतु या देव को, जल बिन कैसा भोग॥
●●●
पानी है तो पास है, सब कुछ तेरे पास।
धन-दौलत से कब भला, मिट पाएगी प्यास॥
●●●
जल से धरती है बची, जल से है आकाश।
जल से ही जीवन जुड़ा, सबका है विश्वास॥
●●●
अगर बचानी ज़िंदगी, करें आज संकल्प।
जल का जग में है नहीं, कोई और विकल्प॥
चिड़िया रानी

सुबह-सुबह नन्ही चिड़िया,
आँगन में जब आती है।
फुदक-फुदक कर चूं-चू करती,
मीठी लोरी रोज सुनाती है।।
चिड़िया फुर्र फुर्र उड़ती है,
चोंच से दाने चुगती है।
बच्चों को है देती खाना,
सबसे पहले उठ जाती है।।
छज्जा खिड़की ढूंढें आला,
कहाँ घोंसला जाये डाला।
तिनका थामे चिमटी चोंच में,
सपनों का नीड सजाती है।।
उम्मीदों के पंख पसारकर,
नील गगन को उड़ पार कर।
जीवन की कठिनाई झेलती,
अपना हर धर्म निभाती है।।
उठो सवेरे और करो श्रम,
प्रगति इसी से आती है।
बच्चों प्यारी चिड़िया रानी,
हमको यह सिखलाती है।।
अपनों को वनवास
उल्टे-पुल्टे हो बने, जब मूर्खों का मंच।
समझे खुद को फिर वहाँ, हर कोई सरपंच।।
जोड़ तरक्की ने दिया, छोर-छोर श्रीमान।
बाजू के इंसान का, लिया नहीं संज्ञान।।
अपने ही देते सदा, अपनों को वनवास।
जरा गौर से देखिये, सदियों का इतिहास।।
आम, नीम, पीपल कटे, उजड़े बरगद गाँव।
मनीप्लांट कब तक भला, देंगे कितनी छाँव।।
बारी- बारी आ रहे, सुख-दुख हैं मेहमान।
समझ कहाँ इनके बिना, पाता है इंसान।।
ज्ञानी, पंडित, मौलवी, या फिर रिश्तेदार।
भाई से अच्छा यहाँ, मिले न सलाहकार।।
अगर एक इंसान के, हों जब सभी विरुद्ध।
समझ उसे अति काम का, सच्चा और प्रबुद्ध।।
कैसे उड़े अबीर
●●●
फागुन बैठा देखता, खाली है चौपाल।
उतरे-उतरे रंग है, फीके सभी गुलाल॥
●●●
सजनी तेरे सँग रचूँ, ऐसा एक धमाल।
तुझमे ख़ुद को घोल दूँ, जैसे रंग गुलाल॥
●●●
बदले-बदले रंग है, सूना-सूना फाग।
ढपली भी गाने लगी, अब तो बदले राग॥
●●●
मन को ऐसे रंग लें, भर दें ऐसा प्यार।
हर पल हर दिन ही रहे, होली का त्यौहार॥
●●●
फौजी साजन से करे, सजनी एक सवाल।
भीगी सारी गोरियाँ, मेरे सूने गाल॥
●●●
आओ सजनी मैं रंगूँ, तेरे गोरे गाल।
अनायास होने लगा, मनवा आज गुलाल॥
●●●
बढ़ती जाए कालिमा, मन-मन में हर साल।
रंगों से कैसे मलें, इक दूजे के गाल॥
●●●
स्वार्थ रंगी जब भावना, रही मनों को चीर।
बोलो ‘सौरभ’ फाग में, कैसे उड़े अबीर॥
●●●
सूनी-सूनी होलिका, फीका-फीका फाग।
रहा मनों में हैं नहीं, इक दूजे से राग॥
●●●
लुटती नारी द्वार पर
●●●
नारी मूरत प्यार की, ममता का भंडार।
सेवा को सुख मानती, बांटे ख़ूब दुलार॥
●●●
अपना सब कुछ त्याग के, हरती नारी पीर।
फिर क्यों आँखों में भरा, आज उसी के नीर॥
●●●
रोज कहीं पर लुट रही, अस्मत है बेहाल।
खूब मना नारी दिवस, गुजर गया फिर साल॥
●●●
थानों में जब रेप हो, लूट रहे दरबार।
तब ‘सौरभ’ नारी दिवस, लगता है बेकार॥
●●●
सिसक रही हैं बेटियाँ, ले परदे की ओट।
गलती करे समाज है, मढ़ते उस पर खोट॥
●●●
नहीं सुरक्षित आबरू, क्या दिन हो क्या रात।
काँप रहें हम देखकर, कैसे ये हालात॥
●●●
महक उठे कैसे भला, बेला आधी रात।
मसल रहे हैवान जो, पल-पल उसका गात॥
●●●
जरा सोच कर देखिये, किसकी है ये देन।
अपने ही घर में दिखे, क्यों नारी बेचैन॥
●●●
रोज कराहें घण्टियाँ, बिलखे रोज़ अजान।
लुटती नारी द्वार पर, चुप बैठे भगवान॥
●●●
नारी तन को बेचती, ये है कैसा दौर।
मूरत अब वह प्यार की, दिखती है कुछ और॥
●●●
नई सुबह से कामना, करिये बारम्बार।
हर बच्ची बेख़ौफ़ हो, पाये नारी प्यार॥
●
अकड़े जब संवाद
मुकरे होंगे लोग कुछ, देकर स्वयं जुबान।
तभी कागजों पर टिके, रिश्ते और मकान।।
जिनपे तन-मन,धन, समय, सदा किया कुर्बान।
लोग वही अब कह रहे, तेरा क्या अहसान।।
कत्ल हुए सब कायदे, इज्जत लहूलुहान।
कदम-कदम हर बात पर, बदले अब इंसान।।
रिश्तों का माधुर्य खो, अकड़े जब संवाद।
आंगन की खुशियां मरे, होते रोज विवाद।।
कैसे करें यकीन हम, सब बातें लें मान।
सिखलाए गुर दौड़ के, जब लँगड़े इंसान।।
पेड़ सभी विश्वास के, खो बैठे जब छांव।
बसे कहां अपनत्व से, हो हरियाला गांव।।
मेरे अक्षर लेखनी, दिल के सब जज्बात।
सौरभ मेरे बाद भी, रोज करेंगे बात।।
सिमटे आँगन रोज
बिखर रहे चूल्हे सभी, सिमटे आँगन रोज।
नई सदी ये कर रही, जाने कैसी खोज॥
दादा-दादी सब गए, बिखर गया संसार।
चाचा, ताऊ सँग करें, बच्चे अब तकरार॥
एक साथ भोजन कहाँ, बंद हुई सब बात।
सांझा किससे अब करें, दुःख-सुख के हालात॥
खेत बँटे, आँगन बँटे, खींच गयी दीवार।
शून्य हुई संवेदना, बिखरा घर-संसार॥
सुख-सुविधा की ओढ़नी, व्यंजनों की भरमार।
गयी लूट परिवार के, गठबंधन का प्यार॥
आँगन से मन में पड़ी, गहरी ख़ूब दरार।
बैठा मुखिया देखता, घर का बंटाधार॥
बंधन सारे खून के, झेल रहे संत्रास।
रिश्तों को आते नहीं, अब रिश्ते ही रास॥
कैसे होगा सोचिये, सुखी सकल संसार।
मिलें नहीं औलाद को, जब अच्छे संस्कार॥
सौरभ उनको भेंट हो, वैलेंटाइन आज
वैलेंटाइन का चढ़ा, ये कैसा उन्माद।
फौजी मरता देश पर, कौन करे अब याद।।
●●●
सौरभ उनको भेंट हो, वैलेंटाइन आज।
सरहद पर जो हैं मिटे, जिन पर हमको नाज़ ।।
●●●
काम करो इंग्लैंड में, रहें भला जापान।
रखना सदा सहेजकर, दिल में हिंदुस्तान।।
●●●
आज़ादी अब पूछती, सबसे यही सवाल।
याद किसे है देश में, भारत माँ के लाल।।
●●●
देकर अपनी जान जो, दिला गए हैं ताज़।
उन वीरों के खून को, याद करे सब आज।।
●●●
लाज तिरंगें की रहे, रख इतना अरमान।
मरते दम तक हम रखें, दिल में हिन्दुस्तान।।
●●●
सरहद पर जांबाज़ जब, जागे सारी रात।
सो पाते हम चैन से, रह अपनों के साथ।।
●●●
आओ मेरे साथियों, कर लें उनका ध्यान।
शान देश की जो बनें, देकर अपनी जान।।
●●●
भारत के हर पूत को, करिये प्रथम प्रणाम।
सरहद पर जो है मिटा, हाथ तिरंगा थाम।।
●●●
सींच चमन ये साथियों, खिला गए जो फूल।
उन वीरों के खून को, मत जाना तुम भूल।।
●●●
होगा क्या अंजाम
उनकी कर तू साधना, अर्पण कर मन-फूल।
खड़े रहे जो साथ जब, समय रहा प्रतिकूल॥
जंगल रोया फूटकर, देख जड़ों में आग।
उसकी ही लकड़ी बनी, माचिस से निरभाग॥
कह दें कैसे हम भला, औरत को कमजोर।
मर्दाना कमजोर जब, लिखा हुआ हर ओर॥
कलियुग के इस दौर का, होगा क्या अंजाम।
जर जमीं जोरू करें, रिश्ते कत्लेआम॥
बुरे हुए तो क्या हुआ, करके अच्छे काम।
मन में फिर भी आस है, भली करेंगे राम॥
प्रयत्न हजारों कीजिए, फूंको कितनी जान।
चिकनी मिट्टी के घड़े, रहते एक समान॥
बात करें जो दोहरी, कर्म करें संगीन।
होती है अब जिन्दगी, उनकी ही रंगीन॥
जीते जी ख़ुद झेलनी, फँसी गले में फांस।
देता कंधा कौन है, जब तक चलती सांस॥
कहते हैं रविदास
मन सच्चा ही जानिए, सबसे पावन धाम।
दिया संत रविदास ने, ये सुन्दर पैगाम।।
जात-पात मन की कलह, सच्चा है विश्वास।
राम नाम सौरभ भजें, पंडित और’ रैदास।।
वाणी जीवन सार है, वाणी मृदु अहसास।
तुलसी, सूर, कबीर हो, या नानक, रविदास।।
तुलसी, मीरा, सूर हो, या कबीर, रैदास।
बांटे सबको प्रेम की, मंजुल, मधुर मिठास।।
कहते है रैदास ये, रखिये सौरभ नेह।
माटी में मिल जाएगी, ये माटी की देह।।
जाती वर्ण कुल है रहे, बस झूठे सम्मान।
मन करुणा मानवता, से हो मनुज महान।।
मैल न मन में राखिये, कहते हैं रविदास।
चार दिनों की जिंदगी, हंसकर कर लो ख़ास।।
मरे सभी अहसास
सब विषयों में काम जो, आती हैं हर हाल।
अक्सर वह रफ़ कापियाँ, रखता कौन सँभाल॥
बनकर रहिए नमक-सा, इतना तो हर हाल।
सोच समझ तुमको करें, दुनिया इस्तेमाल॥
गिरगिट निज अस्तित्व को, लेकर रहा उदास।
रंग बदलने का तभी, करता है अभ्यास॥
अच्छा खासा आदमी, कागज़ पर विकलांग।
धर्म कर्म ईमान का, ये कैसा है स्वांग॥
हुई लापता नेकियाँ, चला धर्म वनवास।
कहे भले को क्यों भला, मरे सभी अहसास॥
खामोशी है काम की, समझ इसे हथियार।
करता नहीं दहाड़कर, सौरभ शेर शिकार॥
समझाइश कब मानते, बिगड़े होश हवास।
बचकानी सब गलतियाँ, भुगत रहा इतिहास॥
नहीं हाथ परिणाम॥
हर घर में कैसी लगी, ये मतलब की आग।
अपनों को ही डस रहे, बने विभीषण नाग॥
सत्य धर्म की जंग में, जीत गए थे राम।
मगर विभीषण तो रहे, सदियों तक बदनाम॥
राम-राम में मैं रमू, बनूँ राम का भक्त।
चरणों में श्रीराम के, रहूँ सदा अनुरक्त॥
जिनका पानी मर गया, शर्म गयी पाताल।
वो औरों को दोष दें, छीटें रहे उछाल॥
हो जाए यूँ हर सुबह, नवमी का त्योहार।
दिखे सभी को बेटियाँ, देवी का अवतार॥
स्वार्थ से सम्बंध जुड़े, देते कब बलिदान।
वक़्त पड़े पर टूटना, उनकी है पहचान॥
फल की चिंता मत करो, देना उसका काम।
कर्म हमारा धर्म है, नहीं हाथ परिणाम॥
खिल गया दिग दिगंत
आ गया ऋतुराज बसंत।
प्रकृति ने ली अंगड़ाई,
खिल गया दिग दिगंत।।
भाव नए जन्मे मन में,
उल्लास भरा जीवन में।
प्रकृति में नव सृजन का,
दौर चला है तुरंत।
खिल गया दिग दिगंत।।
कूकू करती काली कोयल,
नव तरुपल्लव नए फल।
हरियाली दिखती चहुंओर,
पतझड़ का हो गया अंत।
खिल गया दिग दिगंत।।
बहकी हवाएं छाई,
मस्ती की बहार आई।
झूम रही कली-कली
खुशबू हुई अनंत।
खिल गया दिग दिगंत।।
सोए सपने सजाने,
कामनाओं को जगाने।
आज कोंपले कर रही,
पतझड़ से भिड़ंत।
खिल गया दिग दिगंत।।
बोलो मेरे राम
दुनिया रखती क्यों नहीं, आज विभीषण नाम।
तुम तो सब कुछ जानते, बोलो मेरे राम॥
वध दशानन कह रहा, ये भी तो इक बात।
करो विभीषण-सा नहीं, भाई पर आघात॥
गैरों से ज़्यादा कठिन, अपनों की है मार।
भेद विभीषण से गया, रावण लंका हार॥
भेद विभीषण ने दिए, गए दशानन हार।
जीती लंका राम ने, कर भाइयों में रार॥
वैरी से ज़्यादा किया, रावण पर यूं घात।
भेद विभीषण ने दिए, कही जिगर की बात॥
सौरभ विषधर से अधिक, विष अपनों के पास।
कभी विभीषण पर नहीं, करना मत विश्वास॥
दुश्मन में ताकत कहाँ, पकड़ सके जो हाथ।
कुंभकर्ण से तुम बनो, दो भाई का साथ॥
कहता है गणतंत्र
बात एक ही यूँ सदा, कहता है गणतंत्र।
बने रहे वो मूल्य सब, जन- मन हो स्वतंत्र।
संसद में मचता गदर, है चिंतन की बात।
हँसी उड़े संविधान की, जनता पर आघात।।
भाषा पर संयम नहीं, मर्यादा से दूर।
संविधान को कर रहे, सांसद चकनाचूर।।
दागी संसद में घुसे, करते रोज मखौल।
देश लुटे लुटता रहे, खूब पीटते ढोल।।
जन जीवन बेहाल है, संसद में बस शोर।
हित सौरभ बस सोचते, सांसद अपनी ओर।।
संसद में श्रीमान जब, कलुषित हो परिवेश।
कैसे सौरभ सोचिए, बच पायेगा देश।।
लोकतंत्र अब रो रहा, देख बुरे हालात।
संसद में चलने लगे, थप्पड़, घूसे, लात।।
जनता की आवाज का, जिन्हें नहीं संज्ञान।
प्रजातंत्र का मंत्र है, उन्हें नहीं मतदान।।
हमें आज है सोचना, दूर करे ये कीच।
अपराधी नेता नहीं, पहुंचे संसद बीच।।
अपराधी सब छूटते, तोड़े सभी विधान।
निर्दोषी है जेल में, रो रहा संविधान।।
एकल सब इंसान
फुर्र-फुर्र सी जिंदगी, फुर्सत का क्या काम।
पास सभी के हो गए, इतने सारे काम॥
भाग दौड़ की सड़क पर, लगते लम्बे जाम।
नहीं बची पगडंडियाँ, जिन पर था आराम॥
बाग़ बगीचे उजड़ है, नहीं किसी को ध्यान।
समझ रहे है आज सब, दो गमलों में शान॥
चिट्टी पत्री बंद सब, उनका क्या अब काम।
आते दिनभर है बहुत, व्हाट्सऐप्प पर पैगाम॥
रिश्तों पर अब जम गए, अकड़ ऐंठ अहसान।
सगे सम्बन्धी है नहीं, एकल सब इंसान॥
सुविधाओं के ढेर पर, बैठा हर इंसान।
फिर भी भीतर से बहुत, सौरभ सब परेशान॥
बदल रहे इस दौर में, किसको इतना ध्यान।
साथ बैठ भोजन करें, करना समय प्रदान॥
रोता रोज कबीर
ऐसे ढोंगी संत से, करिए क्या फरियाद।
जो पूजन के नाम पर, भड़काए उन्माद॥
सौरभ बाबा बन गए, धूर्त विधर्मी लोग।
भोली जनता छल गई, ढोंगी करते भोग॥
पूजन को साधन बना, रोज़ करें व्यापार।
ढोंगी बाबा भक्त बन, बना रहे लाचार॥
कुकर्मों से हैं रंगे, रोज-रोज अखबार।
बाबाओं के देखिए, मायावी किरदार॥
चमत्कार की आस में, बाबा करे विखंड।
हुआ धर्म के नाम पर, सौरभ यह पाखंड॥
पूजन का पाखंड कर, करें पुण्य की बात।
ढोंगी बाबा से मिले, सदा यहाँ आघात॥
धर्म कर्म से छल करें, बनकर बाबा खास॥
ढोंगी होते वह सदा, नहीं करें विश्वास॥
कुछ पहुँचे है जेल में, और कुछ गुमनाम।
डेरों की सच्चाइयाँ, देख दुखी है राम॥
ढोंगी बाबा मौलवी, करते कैसे काम।
अबलाओं को लूटती, ढोंगी साध हराम॥
डेरों में इनके छुपा, असलों का भंडार॥
झूठ सभी ये कह रहे, मुक्ति मिले इस द्वार।।
इतना घातक है नही, दुश्मन का प्रवेश।
फंसकर इनके ढोंग में, तार-तार है देश॥
उतरा चोला देखकर, रोता रोज कबीर।
काले कर्मों में लगे, अब क्यों संत फ़कीर।।
ढोंगी बैठे मौज से, प्रशासन है मौन।
अंधे कट-कट है मरे, खोलें आँखें कौन।।
रावण हँसा ये देखकर, कैसे राम- रहीम।
बाबा लूटे बेटियां, बनकर नीम हकीम।।
नमन विवेकानंद को
विश्व पटल पर आपसे, बढ़ा देश का मान।
संत विवेकानंद है, भारत का अभिमान॥
सन्त विवेकानन्द नें, दी अद्भुत पहचान।
भाव पुष्प उर में सजा, करूँ सदा गुणगान॥
जाकर देश विदेश में, दिया यही संदेश।
धर्म, कर्म अध्यात्म का, मेरा भारत देश॥
अखिल विश्व में है किया, हिन्दी का उत्कर्ष।
हिंदी भाषा श्रेष्ठ है, है गौरव, है हर्ष॥
श्रेष्ठ हमारी सभ्यता, है संस्कृति महान।
श्रेष्ठ हमारे आचरण, श्रेष्ठ हमारा ज्ञान॥
लक्ष्य प्राप्ति हित अनवरत, करो सदा संघर्ष।
युवा शक्ति हो संघटित, ख़ूब करे उत्कर्ष॥
आलोकित पथ को करे, भाव भरे अनमोल।
नमन विवेकानंद को, करे सभी दिल खोल॥
परम हंस से सीखकर, बने विवेकानंद।
पाकर सौरभ प्रेरणा, खिले हृदय मकरंद॥
युवा शक्ति की प्रेरणा
विश्व पटल पर आपसे, बढ़ा देश का मान।
युवा विवेकानंद थे, भारत का अभिमान॥
युवा विवेकानन्द नें, दी अद्भुत पहचान।
युवा शक्ति की प्रेरणा, करे विश्व गुणगान॥
जाकर देश विदेश में, दिया यही संदेश।
धर्म, कर्म अध्यात्म का, मेरा भारत देश॥
अखिल विश्व में है किया, हिन्दी का उत्कर्ष।
हिंदी भाषा श्रेष्ठ है, है गौरव, है हर्ष॥
श्रेष्ठ हमारी सभ्यता, है संस्कृति महान।
श्रेष्ठ हमारे आचरण, श्रेष्ठ हमारा ज्ञान॥
लक्ष्य प्राप्ति हित अनवरत, करो सदा संघर्ष।
युवा शक्ति हो संघटित, ख़ूब करे उत्कर्ष॥
आलोकित पथ को करे, भाव भरे अनमोल।
नमन विवेकानंद को, करे सभी दिल खोल॥
परम हंस से सीखकर, बने विवेकानंद।
पाकर सौरभ प्रेरणा, खिले हृदय मकरंद॥
निज भाषा से जब जुड़े
●●●
बोल-तोल बदले सभी, बदली सबकी चाल।
परभाषा से देश का, हाल हुआ बेहाल॥
●●●
जल में रहकर ज्यों सदा, रहती प्यासी मीन।
होकर भाषा राज की, है हिन्दी यूं हीन॥
●●●
हिंदी मेरे देश की, पहली एक ज़ुबान।
फर्ज सभी का है यही, इसका हो उत्थान॥
●●●
अपनी भाषा साधना, गूढ़ ज्ञान का सार।
खुद की भाषा से बने, निराकार, साकार॥
●●●
हो जाते हैं हल सभी, यक्ष प्रश्न तब मीत।
निज भाषा से जब जुड़े, जागे अन्तस प्रीत॥
●●●
अपनी भाषा से करें, अपने यूं आघात।
हिंदी के उत्थान की, अंग्रेज़ी में बात॥
●●●
हिंदी माँ का रूप है, ममता की पहचान।
हिंदी ने पैदा किये, तुलसी ओ” रसखान॥
●●●
मन से चाहें हम अगर, भारत का उत्थान।
परभाषा को त्यागकर, बाँटें हिन्दी ज्ञान॥
●●●
भाषा के बिन देश का, होता कब उत्थान।
बात पते की जो कही, समझे वही सुजान॥
●●●
जिनकी भाषा है नहीं, उनका रुके विकास।
करती भाषा गैर की, हाथों-हाथ विनाश॥
जाए अब किस ओर
●●●
दीये से बाती रुठी, बन बैठी है सौत।
देख रहा मैं आजकल, आशाओं की मौत॥
●●●
अपनों से जिनकी नहीं, बनती ‘सौरभ’ बात।
ढूँढ रहे वह आजकल, गैरों में औक़ात॥
●●●
चूल्हा ठंडा है पड़ा, लगी भूख की आग।
कौन सुने है आजकल, मजलूमों के राग॥
●●●
देख रहें हम आजकल, ये कैसा जूनून।
जात-धर्म के नाम पर, बहे खून ही खून॥
●●●
धूल आजकल फांकता, दादी का संदूक।
बच्चों को अच्छी लगे, अब घर में बन्दूक॥
●●●
घूम रहे हैं आजकल, गली-गली में चोर।
खड़ा-मुसाफिर सोचता, जाए अब किस ओर॥
●●●
नेता जी है आजकल, गिनता किसके नोट।
अक्सर ये है पूछता, मुझसे मेरा वोट
●●●
कहता है कुरुक्षेत्र
●●●
बदल गए परिवार के, अब तो ‘सौरभ’ भाव।
रिश्ते-नातों में नहीं, पहले जैसे चाव॥
●●●
रहना मिल परिवार से, छोड़ न देना मूल।
शोभा देते हैं सदा, गुलदस्ते में फूल॥
●●●
घर-घर में अब गूंजते, फूट-कलह के गीत।
कौन सिखाये देश को, प्रेम भाव की रीत॥
●●●
होकर अलग कुटुम्ब से, बैठा औरों पास।
झुँड से बिछड़ी भेड़ की, सुने कौन अरदास॥
●●●
राजनीति नित बांटती, घर-कुनबे-परिवार।
गाँव-गली सब कर रहे, आपस में तकरार॥
●●●
मत खेलो तुम आग से, मत तानों तलवार।
कहता है कुरुक्षेत्र ये, चाहो यदि परिवार॥
●●●
‘सौरभ’ आये रोज़ ही, टूट रहे परिवार।
फूट कलह ने खींच दी, हर आँगन दीवार॥
●●●
हमने जिनके वास्ते, तोड़ लिए परिवार।
वो दोनों अब एक है, चला रहे सरकार॥
●●●
किस से बातें वह करे, किस से करे गुहार।
भटकी राहें भेड़ जो, त्यागे स्व परिवार॥
●●●
टूट रहे परिवार अब, बदल रहे मनभाव।
प्रेम जताते ग़ैर से, अपनों से अलगाव॥
●●●
करता कोई तीसरा, ‘सौरभ’ जब भी वार।
साथ रहें परिवार के, छोड़ें सब तकरार॥
●●●
बच पाए परिवार तब, रहता है समभाव।
दुःख में सारे साथ हो, सुख में सबसे चाव॥
चुभें ऑलपिन-सा सदा
●●●
बहरूपियों के गाँव में, कहें किसे अब मीत।
अपना बनकर लूटते, रचकर झूठी प्रीत॥
●●●
भाई-भाई में हुई, जब से है तकरार।
मजे पड़ोसी ले रहे, काँधे बैठे यार॥
●●●
मानवता है मर चुकी, बढ़े न कोई हाथ।
भाई के भाई यहाँ, रहा न ‘सौरभ’ साथ॥
●●●
भाई-बहना-सा नहीं, दूजा पावन प्यार।
जहाँ न कोई स्वार्थ है, ना बदले का ख़ार॥
●●●
शायद जुगनूं की लगी, है सूरज से होड़।
तभी रात है कर रही, रोज़ नये गठजोड़॥
●●●
रोज बैठकर पास में, करते आपस बात।
‘सौऱभ’ फिर भी है नहीं, सच्चे मन जज़्बात॥
●●●
‘सौरभ’ सब को जो रखे, जोड़े एक समान।
चुभें ऑलपिन से सदा, वह सच्चे इंसान॥
●●●
सीख भला अभिमन्यु ले, लाख तरह के दाँव।
कदम-कदम पर छल बिछें, ठहर सके ना पाँव॥
●●●
जो ख़ुद से ही चोर है, करे चोर अभिषेक।
उठती उंगली और पर, रखती कहाँ विवेक॥
●●●
जब से ‘सौरभ’ है हुआ, कौवों का गठजोड़।
दूर कहीं है जा बसी, कोयल जंगल छोड़॥
●●●
ये कैसा षड्यंत्र है, ये कैसा है खेल।
बहती नदियाँ सोखने, करें किनारे मेल॥
करिये नव उत्कर्ष।
●●●
मिटे सभी की दूरियाँ, रहे न अब तकरार।
नया साल जोड़े रहे, सभी दिलों के तार।।
●●●
बाँट रहे शुभकामना, मंगल हो नववर्ष।
आनंद उत्कर्ष बढ़े, हर चेहरे हो हर्ष।।
●●●
माफ करो गलती सभी, रहे न मन पर धूल।
महक उठे सारी दिशा, खिले प्रेम के फूल।।
●●●
गर्वित होकर जिंदगी, लिखे अमर अभिलेख।
सौरभ ऐसी खींचिए, सुंदर जीवन रेख।।
●●●
छोटी सी है जिंदगी, बैर भुलाये मीत।
नई भोर का स्वागतम, प्रेम बढ़ाये प्रीत।।
●●●
माहौल हो सुख चैन का, खुश रहे परिवार।
सुभग बधाई मान्यवर, मेरी हो स्वीकार।।
●●●
खोल दीजिये राज सब, करिये नव उत्कर्ष।
चेतन अवचेतन खिले, सौरभ इस नववर्ष।।
●●●
आते जाते साल है, करना नहीं मलाल।
सौरभ एक दुआ करे, रहे सभी खुशहाल।।
●●●
हँसी-खुशी, सुख-शांति हो, खुशियां हो जीवंत।
मन की सूखी डाल पर, खिले सौरभ बसंत।।
●●●
महकें हर नवभोर पर, सुंदर-सुरभित फूल॥
बने विजेता वह सदा, ऐसा मुझे यक़ीन।
आँखों में आकाश हो, पांवों तले ज़मीन॥
●●●
तू भी पायेगा कभी, फूलों की सौगात।
धुन अपनी मत छोड़ना, सुधरेंगे हालात॥
●●●
बीते कल को भूलकर, चुग डालें सब शूल।
महकें हर नवभोर पर, सुंदर-सुरभित फूल॥
●●●
तूफानों से मत डरो, कर लो पैनी धार।
नाविक बैठे घाट पर, कब उतरें हैं पार॥
●●
छाले पांवों में पड़े, मान न लेना हार।
काँटों में ही है छुपा, फूलों का उपहार॥
●●●
भँवर सभी जो भूलकर, ले ताकत पहचान।
पार करे मझदार वो, सपनों का जलयान॥
●●●
तरकश में हो हौंसला, कोशिश के हो तीर।
साथ जुड़ी उम्मीद हो, दे पर्वत को चीर॥
●●●
नए दौर में हम करें, फिर से नया प्रयास।
शब्द क़लम से जो लिखें, बन जाये इतिहास॥
●●●
आसमान को चीरकर, भरते वही उड़ान।
जवां हौसलों में सदा, होती जिनके जान॥
●●●
उठो चलो, आगे बढ़ो, भूलो दुःख की बात।
आशाओं के रंग से, भर लो फिर ज़ज़्बात॥
●●●
छोड़े राह पहाड़ भी, नदियाँ मोड़ें धार।
छू लेती आकाश को, मन से उठी हुँकार॥
●●●
हँसकर सहते जो सदा, हर मौसम की मार।
उड़े वही आकाश में, अपने पंख पसार॥
●●●
हँसकर साथी गाइये, जीवन का ये गीत।
दुःख सरगम-सा जब लगे, मानो अपनी जीत॥
●●●
सुख-दुःख जीवन की रही, बहुत पुरानी रीत।
जी लें, जी भर जिंदगी, हार मिले या जीत॥
●●●
खुद से ही कोई यहाँ, बनता नहीं कबीर।
सहनी पड़ती हैं उसे, जाने कितनी पीर॥
महकें हर नवभोर पर, सुंदर-सुरभित फूल
बने विजेता वह सदा, ऐसा मुझे यक़ीन।
आँखों में आकाश हो, पांवों तले ज़मीन॥
●●●
तू भी पायेगा कभी, फूलों की सौगात।
धुन अपनी मत छोड़ना, सुधरेंगे हालात॥
●●●
बीते कल को भूलकर, चुग डालें सब शूल।
महकें हर नवभोर पर, सुंदर-सुरभित फूल॥
●●●
तूफानों से मत डरो, कर लो पैनी धार।
नाविक बैठे घाट पर, कब उतरें हैं पार॥
●●
छाले पांवों में पड़े, मान न लेना हार।
काँटों में ही है छुपा, फूलों का उपहार॥
●●●
भँवर सभी जो भूलकर, ले ताकत पहचान।
पार करे मझदार वो, सपनों का जलयान॥
●●●
तरकश में हो हौंसला, कोशिश के हो तीर।
साथ जुड़ी उम्मीद हो, दे पर्वत को चीर॥
●●●
नए दौर में हम करें, फिर से नया प्रयास।
शब्द क़लम से जो लिखें, बन जाये इतिहास॥
●●●
आसमान को चीरकर, भरते वही उड़ान।
जवां हौसलों में सदा, होती जिनके जान॥
●●●
उठो चलो, आगे बढ़ो, भूलो दुःख की बात।
आशाओं के रंग से, भर लो फिर ज़ज़्बात॥
●●●
छोड़े राह पहाड़ भी, नदियाँ मोड़ें धार।
छू लेती आकाश को, मन से उठी हुँकार॥
●●●
हँसकर सहते जो सदा, हर मौसम की मार।
उड़े वही आकाश में, अपने पंख पसार॥
●●●
हँसकर साथी गाइये, जीवन का ये गीत।
दुःख सरगम-सा जब लगे, मानो अपनी जीत॥
●●●
सुख-दुःख जीवन की रही, बहुत पुरानी रीत।
जी लें, जी भर जिंदगी, हार मिले या जीत॥
●●●
खुद से ही कोई यहाँ, बनता नहीं कबीर।
सहनी पड़ती हैं उसे, जाने कितनी पीर॥
करिये नव उत्कर्ष।
●●●
मिटे सभी की दूरियाँ, रहे न अब तकरार।
नया साल जोड़े रहे, सभी दिलों के तार।।
●●●
बाँट रहे शुभकामना, मंगल हो नववर्ष।
आनंद उत्कर्ष बढ़े, हर चेहरे हो हर्ष।।
●●●
माफ करो गलती सभी, रहे न मन पर धूल।
महक उठे सारी दिशा, खिले प्रेम के फूल।।
●●●
गर्वित होकर जिंदगी, लिखे अमर अभिलेख।
सौरभ ऐसी खींचिए, सुंदर जीवन रेख।।
●●●
छोटी सी है जिंदगी, बैर भुलाये मीत।
नई भोर का स्वागतम, प्रेम बढ़ाये प्रीत।।
●●●
माहौल हो सुख चैन का, खुश रहे परिवार।
सुभग बधाई मान्यवर, मेरी हो स्वीकार।।
●●●
खोल दीजिये राज सब, करिये नव उत्कर्ष।
चेतन अवचेतन खिले, सौरभ इस नववर्ष।।
●●●
आते जाते साल है, करना नहीं मलाल।
सौरभ एक दुआ करे, रहे सभी खुशहाल।।
●●●
हँसी-खुशी, सुख-शांति हो, खुशियां हो जीवंत।
मन की सूखी डाल पर, खिले सौरभ बसंत।।
●●●
करिये नव उत्कर्ष।
●●●
मिटे सभी की दूरियाँ, रहे न अब तकरार।
नया साल जोड़े रहे, सभी दिलों के तार।।
●●●
बाँट रहे शुभकामना, मंगल हो नववर्ष।
आनंद उत्कर्ष बढ़े, हर चेहरे हो हर्ष।।
●●●
माफ करो गलती सभी, रहे न मन पर धूल।
महक उठे सारी दिशा, खिले प्रेम के फूल।।
●●●
गर्वित होकर जिंदगी, लिखे अमर अभिलेख।
सौरभ ऐसी खींचिए, सुंदर जीवन रेख।।
●●●
छोटी सी है जिंदगी, बैर भुलाये मीत।
नई भोर का स्वागतम, प्रेम बढ़ाये प्रीत।।
●●●
माहौल हो सुख चैन का, खुश रहे परिवार।
सुभग बधाई मान्यवर, मेरी हो स्वीकार।।
●●●
खोल दीजिये राज सब, करिये नव उत्कर्ष।
चेतन अवचेतन खिले, सौरभ इस नववर्ष।।
●●●
आते जाते साल है, करना नहीं मलाल।
सौरभ एक दुआ करे, रहे सभी खुशहाल।।
●●●
हँसी-खुशी, सुख-शांति हो, खुशियां हो जीवंत।
मन की सूखी डाल पर, खिले सौरभ बसंत।।
●●●
उधम सिंह सरदार
आन-बान थे देश की,
उधम सिंह सरदार।
सौरभ’ श्रद्धा सुमन रख,
उन्हें नमन शत बार।।
वैशाखी की क्रूरता,
लिए रहे बेचैन।
ओ डायर को मारकर,
मिला हृदय को चैन।।
बर्बरता को नोचकर,
कर ओ डायर ढेर।
लन्दन में दहाड़ उठा,
भारत का ये शेर।।
बच्चा-बच्चा अब बने,
उधम सिंह सरदार।
दुश्मनों के पर कटे,
काँप उठे गद्दार।।
बसंती चोला रंग दे,
गाये सब इंकलाब।
गाथा वीरों की गढ़े,
रचे गीत नायाब।।
उधम जैसे शहीद सब,
वार गए जो शीश।
याद उन्हें हम सब रखें,
यही हमारे ईश।।
तुलसी है संजीवनी
तुलसी है संजीवनी, तुलसी रस की खान।
तुलसी पूजन से मिटें, जीवन के व्यवधान।।
*
विष्णु प्रिया तुलसी सदा, करती है कल्यान।
तुलसी है वरदायिनी, जीवन का वरदान ।।
*
जिस घर में तुलसी पुजे, रहे प्रभू का वास।
रोग पाप सब के मिटे, तन-मन हो उल्लास।।
*
तुलसी सालिगराम की, महिमा अजब महान।
हम सब का कर्तव्य है, हो इसका सम्मान।।
*
तुलसी माँ की वंदना, करता है संसार।
निरख -निरख रस का तभी, होता है संचार।।
*
तुलसी घर की शान है, तुलसी घर की आन।
जिस घर में हों तुलसियाँ, ईश्वर का वरदान।।
*
प्राणदायिनी औषधी, तुलसी है अनमोल।
ये माता संजीवनी, इसके पुण्य अतोल।।
*
चरणामृत तुलसी बिना, रहता सदा अपूर्ण।
बोकर तुलसी हम करे, उसे आज सम्पूर्ण।।
*
तुलसी के इस भेद को, जानें चतुर सुजान।
तुलसी माँ हर भक्त का, करती है कल्यान।।
*
सच्चे मन से जो करे, तुलसी पूजन पाठ।
रहते सौरभ है वहां, तन-मन के सब ठाठ।।
सर्जन की चिड़ियाँ करें, तोपों पर निर्माण॥
●●●
बस यूं ही बदनाम है, सड़क-गली-बाजार।
लूट रहे हैं द्रौपदी, घर-आँगन-दरबार॥
●●●
कोई यहाँ कबीर है, लगता कोई मीर।
भीतर-भीतर है छुपी, सबके कोई पीर॥
●●●
लाख चला ले आदमी, यहाँ ध्वंस के बाण॥
सर्जन की चिड़ियाँ करें, तोपों पर निर्माण॥
●●●
अगर विभीषण हो नहीं, कर पाते क्या नाथ।
सोने की लंका जली, अपनों के ही हाथ॥
●●●
एकलव्य जब तक करे, स्वयं अंगूठा दान।
तब तक अर्जुन ही रहे, योद्धा एक महान॥
●●●
देख सीकरी आगरा, ‘सौरभ’ है हैरान।
खाली है दरबार सब, महल पड़े वीरान॥
●●●
बन जाते हैं शाह वो, जिनको चाहे राम।
बैठ तमाशा देखते, बड़े-बड़े जो नाम॥
पुलिस हमारे देश की
पुलिस हमारे देश की,
हँस-हँस सहती वार।
परिजनों से दूर रहे,
ले कंधे पर भार।।
होली या दीपावली,
कैसा भी हो काम।
पुलिस रक्षक दल बने,
बिना करे विश्राम।।
हम रहते घर चैन से,
पहरा दे दिन रात।
पुलिस सामने आ अड़े,
सहने हर आघात।।
अमन शांति कायम रहे,
प्रतिपल है तैयार।
सतत, सजग हो कर करे,
अपराधी पर वार।।
विपदा में बेख़ौफ़ हो,
देती अपनी जान।
ऋणी हैं सभी पुलिस के,
देते हम सम्मान।
सीटी मारे जब पुलिस,
बजे हृदय में तार।
अभी तुम्हारी ले खबर,
उठती एक पुकार।।
ये भी माँ के लाडले,
इनके भी परिवार।
होली क्या दीपावली,
ड्यूटी पर हर बार।।
संसद में मचता गदर
संसद में मचता गदर, है चिंतन की बात।
हँसी उड़े संविधान की, जनता पर आघात॥
भाषा पर संयम नहीं, मर्यादा से दूर।
संविधान को कर रहे, सांसद चकनाचूर॥
दागी संसद में घुसे, करते रोज़ मखौल।
देश लुटे लुटता रहे, ख़ूब पीटते ढोल॥
जन जीवन बेहाल है, संसद में बस शोर।
हित सौरभ बस सोचते, सांसद अपनी ओर॥
संसद में श्रीमान जब, कलुषित हो परिवेश।
कैसे सौरभ सोचिए, बच पायेगा देश॥
लोकतंत्र अब रो रहा, देख बुरे हालात।
संसद में चलने लगे, थप्पड़, घूसे, लात॥
जनता की आवाज़ का, जिन्हें नहीं संज्ञान।
प्रजातंत्र का मंत्र है, उन्हें नहीं मतदान॥
हमें आज है सोचना, दूर करे ये कीच।
अपराधी नेता नहीं, पहुँचे संसद बीच॥
संसद में होते दिखे, गठबंधन बेमेल।
कुर्सी के संयोग में, राजनीति के खेल॥
सीमा पर बेटे मिटे, संसद में बकवास।
हाल देखकर देश का, रूदन करुँ या हास॥
देश बांटने में लगी, नेताओं की फ़ौज।
खाकर पैसा देश का, करते सारे मौज॥
पद-पैसे की आड़ में, बिकने लगा विधान।
राजनीति में घुस गए, अपराधी-शैतान॥
तोड़ फोड़ दंगे करे, पहुँचे संसद बीच।
अपराधी नेता बने, ज्यों मंदिर में कीच॥
यूं बचकानी हरकतें, होगी संसद रोज।
जन जन के कल्याण की, कौन करेगा खोज॥
लूट खसोट गली-गली, फैला भ्रष्टाचार।
जनतंत्र बीमार है, संसद है लाचार॥
जनकल्याण की बात हो, संसद में श्रीमान।
सच में तब साकार हो, वीरों का बलिदान॥
—0—
शुभ दिन की शुभकामना, करो प्रिये स्वीकार। उन्नति पथ बढ़ते रहो, स्वप्न करो साकार।।
आज श्रीमती Priyanka Saurabh का जन्म दिवस हैं। जन्म दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ:-

घर-आँगन ख़ुशबू बसी, महका मेरा प्यार।
●●●
घर-आँगन ख़ुशबू बसी, महका मेरा प्यार।
पाकर तुझको है परी, स्वप्न हुआ साकार॥
●●●
मंजिल कोसो दूर थी, मैं राही अनजान।
पता राह का दे गई, तेरी इक मुस्कान॥
●●●
मैं प्यासा राही रहा, तुम हो बहती धार।
अंजुली भर बस बाँट दो, मुझको प्रिये प्यार॥
●●●
मेरी आदत में रमे, दो ही तो बस काम।
एक हाथ में लेखनी, दूजा तेरा नाम॥
●●●
खत जब पहली बार का, देखूं जितनी बार।
महका-महका-सा लगे, यादों का संसार॥
●●●
पंछी बनकर उड़ चले, मेरे सब अरमान।
देख बिखेरी प्यार से, जब तुमने मुस्कान॥
●●●
आँखों में बस तुम बसे, दिन हो चाहे रात।
प्रिये तेरे बिन लगे, सूनी हर सौगात॥
●●●
सजनी आकर बैठती, जब चुपके से पास।
ढल जाते हैं गीत में, भाव सब अनायास॥
●●●
आँखों में सपने सजे, मन में जागी चाह।
पाकर तुमको है प्रिये, खुली हज़ारों राह॥
●●●
तुम ही मेरा सुर प्रिये, तुम ही मेरा गीत।
तुम को पाकर हो गया, मैं जैसे संगीत॥
●●●
तुमसे प्रिये जिंदगी, तुमसे मेरे ख्वाब।
तुम से मेरे प्रश्न हैं, तुम से मेरे जवाब॥
●●●
बिन तेरे लगता नहीं, मन मेरा अब मीत।
हर पल तुमको सोचता, रचता ग़ज़लें गीत॥
●●●
उठती उंगली और पर
●●●
बहरूपियों के गाँव में, कहें किसे अब मीत।
अपना बनकर लूटते, रचकर झूठी प्रीत॥
●●●
भाई-भाई में हुई, जब से है तकरार।
मजे पड़ोसी ले रहे, काँधे बैठे यार॥
●●●
मानवता है मर चुकी, बढ़े न कोई हाथ।
भाई के भाई यहाँ, रहा न ‘सौरभ’ साथ॥
●●●
भाई-बहना-सा नहीं, दूजा पावन प्यार।
जहाँ न कोई स्वार्थ है, ना बदले का ख़ार॥
●●●
शायद जुगनूं की लगी, है सूरज से होड़।
तभी रात है कर रही, रोज़ नये गठजोड़॥
●●●
रोज बैठकर पास में, करते आपस बात।
‘सौऱभ’ फिर भी है नहीं, सच्चे मन जज़्बात॥
●●●
‘सौरभ’ सब को जो रखे, जोड़े एक समान।
चुभें ऑलपिन से सदा, वह सच्चे इंसान॥
●●●
सीख भला अभिमन्यु ले, लाख तरह के दाँव।
कदम-कदम पर छल बिछें, ठहर सके ना पाँव॥
●●●
जो ख़ुद से ही चोर है, करे चोर अभिषेक।
उठती उंगली और पर, रखती कहाँ विवेक॥
●●●
जब से ‘सौरभ’ है हुआ, कौवों का गठजोड़।
दूर कहीं है जा बसी, कोयल जंगल छोड़॥
●●●
ये कैसा षड्यंत्र है, ये कैसा है खेल।
बहती नदियाँ सोखने, करें किनारे मेल॥
पंछी डूबे दर्द में
●●●
बदल रहे हर रोज़ ही, हैं मौसम के रूप।
सर्दी के मौसम हुई, गर्मी जैसी धूप॥
●●●
सूनी बगिया देखकर, ‘तितली है खामोश’।
जुगनूं की बारात से, गायब है अब जोश॥
●●●
आती है अब है कहाँ, कोयल की आवाज़।
बूढा पीपल सूखकर, ठूंठ खड़ा है आज॥
●●●
जब से की बाज़ार ने, हरियाली से प्रीत।
पंछी डूबे दर्द में, फूटे ग़म के गीत॥
●●●
फीके-फीके हो गए, जंगल के सब खेल।
हरियाली को रौंदती, गुजरी जब से रेल॥
●●●
नहीं रहे मुंडेर पर, तोते-कौवे-मोर।
लिए मशीनी शोर है, होती अब तो भोर॥
●●●
अमृत चाह में कर रहे, हम कैसे उत्थान।
जहर हवा में घोलते, हुई हवा तूफ़ान॥
●●●
बेचारे पंछी यहाँ, खेलें कैसे खेल।
खड़े शिकारी पास में, ताने हुए गुलेल॥
●●●
सूना-सूना लग रहा, बिन पेड़ों के गाँव।
पंछी उड़े प्रदेश को, बाँधे अपने पाँव॥
●●●
रोज प्रदूषण अब हरे, धरती का परिधान।
मौन खड़े सब देखते, मुँह ढाँके हैरान॥
●●●
हरे पेड़ सब कट चले, पड़ता रोज़ अकाल।
हरियाली का गाँव में, रखता कौन ख़्याल॥
●●●
शहरी होती जिंदगी, बदल रहा है गाँव।
धरती बंजर हो गई, टिके मशीनी पाँव॥
●●●
वाहन दिन भर दिन बढ़े, ख़ूब मचाये शोर।
हवा विषैली हो गई, धुआं चारों ओर॥
●●●
बिन हरियाली बढ़ रहा, अब धरती का ताप।
जीव-जगत नित भोगता, कुदरत के संताप॥
●●●
जीना दूभर है हुआ, फैले लाखों रोग।
जब से हमने है किया, हरियाली का भोग॥
●●●
सच्चा मंदिर है वही, दिव्या वही प्रसाद।
बँटते पौधे हों जहाँ, सँग थोड़ी हो खाद॥
●●●
पेड़ जहाँ नमाज हो, दरख़्त जहाँ अजान।
दरख्त से ही पीर सब, दरख़्त से इंसान॥
नटखट-सी किलकारियाँ
●●●
पाई-पाई जोड़ता, पिता यहाँ दिन रात।
देता है औलाद को, खुशियों की सौगात॥
●●●
माँ बच्चों की पीर को, समझे अपनी पीर।
सिर्फ इसी के पास है, ऐसी ये तासीर॥
●●●
भाई से छोटे सभी, सोना-मोती-सीप।
दुनिया जब मुँह मोड़ती, होता यही समीपस्थ॥
●●●
बहना मूरत प्यार की, मांगे ये वरदान।
भाई को यश-बल मिले, लोग करें गुणगान॥
●●●
पत्नी से मिलता सदा, फूलों-सा मकरंद।
तन-मन की पीड़ा हरे, रचे प्यार के छंद॥
●●●
सच्चा सुख संतान का, कौन सका है तोल।
नटखट-सी किलकारियाँ, लगती हैं अनमोल॥
●●●
जीजा-साली में रही, बरसों से तकरार।
रहती भरी मिठास से, साली की मनुहार॥
●●●
मन को लगती राजसी, साले से ससुराल।
हाल-चाल सब पूछते, रखते हरदम ख़्याल॥
●●●
सास-ससुर के रूप में, मिलते हैं माँ बाप।
पाकर इनको धन्य है, जीवन अपने आप॥
●●●
जीवन में इक मित्र का, होता नहीं विकल्प।
मंजिल पाने के लिए, देता जो संकल्प॥
सहमा-सहमा साँच
●●●
आखिर मंज़िल से मिले, कठिन साँच की राह।
ज्यादा पल टिकती नहीं, झूठ गढ़ी अफवाह॥
●●●
मानवता मन से गई, बढ़ी घृणा की आँच।
वक्त झूठ का चल रहा, सहमा-सहमा साँच॥
●●●
बुनकर झूठ फ़रेब के, भला बिछे हो जाल।
सच्ची जिसकी साधना, होय न बांका बाल॥
●●●
सच्चे पावन प्यार से, महके मन के खेत।
दगा झूठ अभिमान से, हो जाते सब रेत॥
●●●
कैसी ये सरकार है, कैसा है कानून।
करता नित ही झूठ है, सच्चाई का खून॥
●●●
आखिर मंज़िल से मिले, कठिन साँच की राह।
ज्यादा पल टिकती नहीं, झूठ गढ़ी अफवाह॥
●●●
सच कहते ही हो रहा, आना-जाना बंद।
तभी लोग हैं कर रहे, ज़्यादा झूठ पसंद॥
●●●
कैसी ये सरकार है, कैसे हैं कानून।
करता नित ही झूठ है, सच्चाई का खून॥
●●●
सिसक रही हैं चिट्ठियाँ, छुप-छुपकर साहेब।
जब से चैटिंग ने भरा, मन में झूठ फ़रेब॥
●●●
सच से आंखें मूँद ली, करता झूठ बखान।
गिने गैर की खामियाँ, दिया न ख़ुद पर ध्या
रिश्तों के सच
●●●
आखिर सच ही गूँजता, खोले सबकी पोल।
झूठे मुँह से पीट ले, कोई कितने ढोल॥
●●●
जिसने सच को त्यागकर, पाला झूठ हराम।
वो रिश्तों की फ़सल को, कर बैठा नीलाम॥
●●●
वक्त कराये है सदा, सब रिश्तों का बोध।
पर्दा उठता झूठ का, होता सच पर शोध॥
●●●
रिश्तों के सच जानकर, सब संशय हैं शांत।
खुद से ख़ुद की बात से, मिला आज एकांत॥
●●●
एक बार ही झूठ के, चलते तीर अचूक।
आखिर सच ही जीतता, बिन गोली, बन्दूक॥
●●●
झूठों के दरबार में, सच बैठा है मौन।
घेरे घोर उदासियाँ, सुनता उसकी कौन॥
●●●
चूस रहे मजलूम को, मिलकर पुलिस-वकील।
हाकिम भी सुनते नहीं, सच की सही अपील।।
वक्त करे है फैसला, कब किसका है कौन॥
●●●
झूठे रिश्ते वह सभी, है झूठी सौगंध।
आँसूं तेरे देख जो, कर ले आंखें बंद॥
●●●
रख दे रिश्ते ताक पर, वह कैसे बदलाव।
साजिशकारी जीत से, सही हार ठहराव॥
●●●
धन-दौलत से दूर हो, चुनना वह जागीर।
जिन्दा रिश्ते हों जहाँ, सच की रहे नज़ीर॥
●●●
बस छोटी-सी बात पर, उनका दिखा चरित्र।
रिश्ते-नाते तोड़ कर, हुए शत्रु के मित्र॥
●●●
रिश्ते नाते तोड़कर, ख़ूब रची पहचान।
रहने वाला एक है, इतना बड़ा मकान॥
●●●
रिश्तों के भीतर छुपे, मुश्किल बड़े सवाल।
ना जाने किस मोड़ पर, विक्रम हो बेताल॥
●●●
आये दिन ही टूटती, अब रिश्तों की डोर।
बेटी औरत बाप की, कैसा कलयुग घोर॥
●●●
रिश्ते-नातों का भला, रहे कहाँ फिर ख़्याल।
कामुकता का आँख पर, ले जो पर्दा डाल॥
●●●
रिश्ते अब तो डूबते, छोड़ बीच मँझदार।
कागज़ की कश्ती चले, सोचो कितनी बार॥
●●●
मतलब के रिश्ते कभी, होते नहीं खुद्दार।
दो पल सुलगे कोयले, बनते कब अंगार॥
●●●
रिश्ते जुड़ते हों जहाँ, केवल धन के संग।
उनके मन में प्यार का, कोई रूप न रंग॥
●●●
मंत्र प्यार का फूँकते, दिल में रखते घात।
रिश्ते क्या बेकार है, करना उन से बात॥
●●●
कहाँ मनों में भावना, कहाँ दिलों में प्यार।
रिश्ते ढूँढें फायदे, मानो कारोबार॥
●●●
हाथ मिलाते गैर से, अपनों से बेज़ार।
‘सौरभ’ रिश्ते हो गए, गिरगिट से मक्कार॥
●●●
छोटी-मोटी बात को, कभी न देती तूल।
हर रिश्ते को मानती, बेटी करे न भूल॥
●●●
कोख किराये की हुई, नहीं पिता का नाम।
बिकते रिश्ते अब यहाँ, बिल्कुल सस्ते दाम॥
●●●
भाई-चारा प्रेम हित, रिश्ते हैं बीमार।
दु:ख-सुख की बातें गई, गया मनों से प्यार॥
●●●
सील गए रिश्ते सभी, बिना प्यार की धूप॥
धुंध बैर की छा रही, करती ओझल रूप॥
●●●
सुख की गहरी छाँव में, रिश्ते रहते मौन।
वक्त करे है फैसला, कब किसका है कौन॥
●●●
लेकर पैसे गाँठ में, कहता ख़ुद को धन्य।
सोचो कितने खो दिए, रिश्ते यहाँ अनन्य॥
भिड़े मजहबी होड़ में
●●●
भूल गए हम साधना, भूल गए हैं राम।
मंदिर-मस्जिद फेर में, उलझे आठों याम॥
●●●
प्रेम-त्याग ना आस्था, नहीं धर्म की खोज।
भिड़े मजहबी होड़ में, मंदिर-मस्जिद रोज़॥
●●●
मंदिर-मस्जिद से भली, एक किताब दुकान।
एक साथ है जो रखे, गीता और कुरान॥
●●●
मंदिर में हैं टाइलें, मस्जिद में कालीन।
लेकिन छप्पर में पढ़े, शिबू और यासीन॥
●●●
भूखा प्यासा मर गया, मंदिर में इंसान।
लोग भोग देते रहे, पत्थर के भगवान॥
●●●
मंदिर से मस्जिद कहे, बात एक हर बार।
मिटे न दुनिया की तरह, हम दोनों का प्यार॥
●●●
मंदिर-मस्जिद बांटते, नफ़रत के पैगाम।
खड़े कोर्ट में बेवज़ह, अल्ला औ’ श्रीराम॥
●●●
मंदिर पूजन छोड़कर, उनको करूँ प्रणाम।
घर-कुनबे जो त्यागकर, मिटे देश के नाम॥
●●●
मंदिर के भीतर चढ़े, पत्थर को पकवान।
हाथ पसारे गेट पर, भूखा है इंसान॥
●●●
हम रहते हैं फूल से, हर पल यूं अनजान।
मंदिर और श्मशान का, नहीं जिसे हैं भान॥
सौरभ सच ये बात (कुंडलियां)
लिखने लायक है नहीं, राजनीति के हाल।
कुर्सी पर काबिज हुए, गुंडे-चोर, दलाल॥
गुंडे-चोर, दलाल, करते है नित उत्पात।
झूठ-लूट से करे, जनता के भीतर घात॥
सौरभ सच ये बात, पाप है इनके इतने।
लिखे न जाये यार, अगर हम बैठे लिखने॥
कागज़-क़लम, दवात से, सजने थे जो हाथ।
कूड़ा-करकट बीनते, नाप रहे फुटपाथ॥
नाप रहे फुटपाथ, देश में कितने बच्चे।
बदले ये हालात, देख पाए दिन अच्छे॥
सौरभ सच ये बात, क्या पाएंगे इस जनम।
नन्हे-नन्हें हाथ, ये कोई कागज़ कलम॥
पाकर तुमको है मिली, मुझको ख़ुशी अपार।
होती है क्या जिंदगी, देखा ये साकार॥
देखा ये साकार, देखूं क्या अब मैं अन्य।
तेरा सुन्दर ये रूप, पाकर हुआ धन्य॥
सौरभ सच ये बात, मिले क्या मंदिर जाकर।
मुझको तो सब मिला, साथ तुम्हारा पाकर॥
दर्द भरे दिन जो मिले, जानो तुम उपहार।
कौन दग़ा है दे रहा, परखो सच्चा यार॥
परखो सच्चा यार, मिलता है एक मौक़ा।
निकले धोखेबाज, बच पाए तभी नौका॥
सौरभ सच ये बात, समझो उसको मर्द।
हो सबकी पहचान, अगर सहे कुछ दर्द॥
हरियाली जो है मिली, समझ गुणों की खान।
अगर घटे ये बेवजह, जायज मत तू मान॥
जायज मत तू मान, साँस को गिरवी रखना।
ये है जीवन रेख, मिटी तो कुछ ना मिलना॥
सौरभ सच ये बात, जीवन लगेगा खाली।
स्वस्थ तन-मन रहे, जब तलक है हरियाली॥
बजे झूठ पर तालियाँ, केवल दिन दो-चार।
आखिर होना सत्य ही, सब की जुबाँ सवार॥
सब की जुबाँ सवार, दौड़ता बिजली जैसे।
पड़े अकेला झूठ, सभी को रोके कैसे॥
सौरभ सच ये बात, मन से झूठ सभी तजे।
जीवन में हर जगह, नगाड़े सत्य के बजे॥
खत्म हुई अठखेलियाँ
●●●
दुनिया मतलब की हुई, रहा नहीं संकोच।
हो कैसे बस फायदा, यही लगी है सोच॥
●●●
औरों की जब बात हो, करते लाख बवाल।
बीती अपने आप पर, भूले सभी सवाल॥
●●●
मतलब हो तो प्यार से, पूछ रहे वह हाल।
लेकिन बातें काम की, झट से जाते टाल॥
●●●
लगी धर्म के नाम पर, बेमतलब की आग।
इक दूजे को डस रहे, अब जहरीले नाग॥
●●●
नंगों से नंगा रखे, बे-मतलब व्यवहार।
बजा-बजाकर डुगडुगी, करते नाच हज़ार॥
●●●
हर घर में कैसी लगी, ये मतलब की आग।
अपनों को ही डस रहे, बने विभीषण नाग॥
●●●
बचे कहाँ अब शेष हैं, रिश्ते थे जो ख़ास।
बस मतलब के वास्ते, डाल रहे सब घास॥
●●●
‘सौरभ’ डीoसीo रेट से, रिश्तों के अनुबंध।
मतलब पूरा जो हुआ, टूट गए सम्बन्ध॥
●●●
तेरी खातिर हों बुरे, नहीं बचे वे लोग।
समझ अरे तू बावरे, मतलब का संयोग॥
●●●
रिश्तों में है बेड़ियाँ, मतलब भरे लगाव।
खत्म हुई अठखेलियाँ, गायब मन से चाव॥
दोहरे सत्य
●●●
कहाँ सत्य का पक्ष अब, है कैसा प्रतिपक्ष।
जब मतलब हो हाँकता, बनकर ‘सौरभ’ अक्ष॥
●●●
बदला-बदला वक़्त है, बदले-बदले कथ्य।
दूर हुए इंसान से, सत्य भरे सब तथ्य॥
●●●
क्या पाया, क्या खो दिया, भूल रे सत्यवान।
किस्मत के इस केस में, चलते नहीं बयान॥
●●●
रखना पड़ता है बहुत, सीमित, सधा बयान।
लड़ना सत्य ‘सौरभ’ से, समझो मत आसान॥
●●●
कर दी हमने जिंदगी, इस माटी के नाम।
रखना ये संभालकर, सत्य तुम्हारा काम॥
●●●
काम निकलते हों जहाँ, रहो उसी के संग।
सत्य यही बस सत्य है, यही आज के ढंग॥
●●●
चुप था तो सब साथ थे, न थे कोई सवाल।
एक सत्य बस जो कहा, मचने लगा बवाल॥
●●●
‘सौरभ’ कड़वे सत्य से, गए हज़ारों रूठ।
सीख रहा हूँ बोलना, अब मैं मीठा झूठ॥
●●●
तुमको सत्य सिखा रही, आज वक़्त की मात।
हम पानी के बुलबुले, पल भर की औक़ात॥
●●●
जैसे ही मैंने कहे, सत्य भरे दो बोल।
झपटे झूठे भेड़िये, मुझ पर बाहें खोल॥
●●●
कहा सत्य ने झूठ से, खुलकर बारम्बार।
मुखौटे किसी और के, रहते है दिन चार॥
●●●
मन में कांटे है भरे, होंठों पर मुस्कान।
दोहरे सत्य जी रहे, ये कैसे इंसान॥
●●●
सच बोलकर पी रहा, ज़हर आज सुकरात।
कौन कहे है सत्य के, बदल गए हालात॥
बदल गई देहात
●●●
अपने प्यारे गाँव से, बस है यही सवाल।
बूढा पीपल है कहाँ, कहाँ गई चौपाल॥
●●●
रही नहीं चौपाल में, पहले जैसी बात।
नस्लें शहरी हो गई, बदल गई देहात॥
●●●
जब से आई गाँव में, ये शहरी सौगात।
मेड़ करे ना खेत से, आपस में अब बात॥
●●●
चिठ्ठी लाई गाँव से, जब यादों के फूल।
अपनेपन में खो गया, शहर गया मैं भूल॥
●●●
शहरी होती जिंदगी, बदल रहा है गाँव।
धरती बंजर हो गई, टिके मशीनी पाँव॥
●●●
गलियाँ सभी उदास हैं, पनघट हैं सब मौन।
शहर गए उस गाँव को, वापस लाये कौन॥
●●●
बदल गया तकरार में, अपनेपन का गाँव।
उलझ रहे हर आंगना, फूट-कलह के पाँव॥
●●●
पत्थर होता गाँव अब, हर पल करे पुकार।
लौटा दो फिर से मुझे, खपरैला आकार॥
●●●
खत आया जब गाँव से, ले माँ का सन्देश।
पढ़कर आंखें भर गई, बदल गया वह देश॥
●●●
लौटा बरसों बाद मैं, बचपन के उस गाँव।
नहीं रही थी अब जहाँ, बूढ़ी पीपल छाँव॥
सहमा-सहमा आज
सास ससुर सेवा करे, बहुएँ करती राज।
बेटी सँग दामाद के, बसी मायके आज॥
कौन पूछता योग्यता, तिकड़म है आधार।
कौवे मोती चुन रहे, हंस हुये बेकार॥
परिवर्तन के दौर की, ये कैसी रफ़्तार।
गैरों को सिर पर रखें, अपने लगते भार॥
अंधे साक्षी हैं बनें, गूंगे करें बयान।
बहरे थामें न्याय की, ‘सौरभ’ आज कमान॥
कौवे में पूर्वज दिखे, पत्थर में भगवान।
इंसानो में क्यों यहाँ, दिखे नहीं इंसान॥
जब से पैसा हो गया, सम्बंधों की माप।
मन दर्जी करने लगा, बस खाली आलाप॥
दहेज़ आहुति हो गया, रस्में सब व्यापार।
धू-धू कर अब जल रहे, शादी के संस्कार॥
हारे इज़्ज़त आबरू, भीरु बुज़दिल लोग।
खोकर अपनी सभ्यता, प्रश्नचिन्ह पर लोग॥
अच्छे दिन आये नहीं, सहमा-सहमा आज।
‘सौरभ’ हुए पेट्रोल से, महंगे आलू-प्याज॥
गली-गली में मौत है, सड़क-सड़क बेहाल।
डर-डर के हम जी रहे, देख देश का हाल॥
लूट-खून दंगे कहीं, चोरी भ्रष्टाचार॥
ख़बरें ऐसी ला रहा, रोज़ सुबह अख़बार।
मंच हुए साहित्य के, गठजोड़ी सरकार।
सभी बाँटकर ले रहे, पुरस्कार हर बार॥
नई सदी में आ रहा, ये कैसा बदलाव।
संगी-साथी दे रहे, दिल को गहरे घाव॥
हम खतरे में जी रहे, बैठी सिर पर मौत।
बेवजह ही हम बने, इक-दूजे की सौत॥
जर्जर कश्ती हो गई, अंधे खेवनहार।
खतरे में ‘सौरभ’ दिखे, जाना सागर पार॥
थोड़ा-सा जो कद बढ़ा, भूल गए वह जात।
झुग्गी कहती महल से, तेरी क्या औक़ात॥
मन बातों को तरसता, समझे घर में कौन।
दामन थामे फ़ोन का, बैठे हैं सब मौन॥
हत्या-चोरी लूट से, कांपे रोज़ समाज।
रक्त रंगे अख़बार हम, देख रहे हैं आज॥
कहाँ बचे भगवान से, पंचायत के पंच।
झूठा निर्णय दे रहे, ‘सौरभ’ अब सरपंच॥
योगी भोगी हो गए, संत चले बाज़ार।
अबलायें मठलोक से, रह-रह करे पुकार॥
दफ्तर, थाने, कोर्ट सब, देते उनका साथ।
नियम-कायदे भूलकर, गर्म करे जो हाथ॥
हारा-थका किसान
बजते घुँघरू बैल के, मानो गाये गीत।
चप्पा-चप्पा खिल उठे, पा हलधर की प्रीत॥
देता पानी खेत को, जागे सारी रात।
चुनकर कांटे बांटता, फूलों की सौगात॥
आंधी खेल बिगाड़ती, मौसम दे अभिशाप।
मेहनत से न भागता, सर्दी हो या ताप॥
बदल गया मौसम अहो, हारा-थका किसान।
सूखे-सूखे खेत हैं, सूने बिन खलिहान॥
चूल्हा कैसे यूं जले, रही न कौड़ी पास।
रोते बच्चे देखकर, होता ख़ूब उदास॥
ख़्वाबों में खिलते रहे, पीले सरसों खेत।
धरती बंजर हो गई, दिखे रेत ही रेत॥
दीपों की रंगीनियाँ, होली का अनुराग।
रोई आँखें देखकर, नहीं हमारे भाग॥
दुःख-दर्दों से है भरा, हलधर का संसार।
सच्चे दिल से पर करे, ये माटी से प्यार॥
लाये सिंघाड़े
ठेले भर लाये सिंघाड़े के।
दिन आए फिर जाड़े के॥
पानी में ये मोती उगता।
सुंदर रूप तिकोना दिखता॥
जाड़े में हर बार ये आता।
सबके मन को ख़ूब भाता॥
बच्चों इसके गुण भरपूर।
कब्ज बदहजमी करता दूर॥
इसमें फ़ाईबर, प्रोटीन रहता।
ब्लड प्रेशर सब ये सहता॥
व्रत त्यौहार इससे मनती।
हलवा रोटी इससे बनती॥
जब भी तुम जाओ बाजार।
सिंघाड़े लाओ हर बार॥
लाकर ख़ूब सिंघाड़े खाओ।
सेहत अपनी अच्छी बनाओ॥
आशाओं के रंग
1
बने विजेता वह सदा, ऐसा मुझे यक़ीन।
आँखों में आकाश हो, पांवों तले ज़मीन॥
2
तू भी पायेगा कभी, फूलों की सौगात।
धुन अपनी मत छोड़ना, सुधरेंगे हालात॥
3
बीते कल को भूलकर, चुग डालें सब शूल।
बोयें हम नवभोर पर, सुंदर-सुरभित फूल॥
4
तूफानों से मत डरो, कर लो पैनी धार।
नाविक बैठे घाट पर, कब उतरें हैं पार॥
5
छाले पांवों में पड़े, मान न लेना हार।
काँटों में ही है छुपा, फूलों का उपहार॥
6
भँवर सभी जो भूलकर, ले ताकत पहचान।
पार करे मझदार वो, सपनों का जलयान॥
7
तरकश में हो हौंसला, कोशिश के हो तीर।
साथ जुड़ी उम्मीद हो, दे पर्वत को चीर॥
8
नए दौर में हम करें, फिर से नया प्रयास।
शब्द क़लम से जो लिखें, बन जाये इतिहास॥
9
आसमान को चीरकर, भरते वही उड़ान।
जवां हौसलों में सदा, होती जिनके जान॥
10
उठो चलो, आगे बढ़ो, भूलो दुःख की बात।
आशाओं के रंग से, भर लो फिर ज़ज़्बात॥
11
छोड़े राह पहाड़ भी, नदियाँ मोड़ें धार।
छू लेती आकाश को, मन से उठी हुँकार॥
12
हँसकर सहते जो सदा, हर मौसम की मार।
उड़े वही आकाश में, अपने पंख पसार॥
13
हँसकर साथी गाइये, जीवन का ये गीत।
दुःख सरगम-सा जब लगे, मानो अपनी जीत॥
14
सुख-दुःख जीवन की रही, बहुत पुरानी रीत।
जी लें, जी भर जिंदगी, हार मिले या जीत॥
15
खुद से ही कोई यहाँ, बनता नहीं कबीर।
सहनी पड़ती हैं उसे, जाने कितनी पीर॥
ठंड हुई पुरजोर
लगे ठिठुरने गात सब,
निकले कम्बल शाल।
सिकुड़ रहे हैं ठंड से,
हाल हुआ बेहाल।।
बाहर मत निकलो कहे,
बहुत ठंड है आज।
कान पकते सुनते हुए,
दादी की आवाज।।
जाड़ा आकर यूं खड़ा,
ठोके सौरभ ताल।
आग पकड़ने से डरे,
गीले पड़े पुआल।।
सौरभ सर्दी में हुआ,
जैसे बर्फ जमाव।
गली मुहल्ले तापते,
बैठे लोग अलाव।।
धूप लगे जब गुनगुनी,
मिले तनिक आराम।
सर्दी में करते नहीं,
हाथ पैर भी काम।।
निकलो घर से तुम यदि,
रखना बच्चों का ध्यान।
सुबह सांझ घर पर रहो,
ढककर रखना कान।।
लापरवाही मत करो,
ठंड हुई पुरजोर।
ओढ़ रजाई लेट लो,
उठिए जब हो भोर।।
ईश विश्कर्मा हमें
विश्वकर्मा जगत बसे, सुन्दर सर्जनकार।
नव्यकृति नित ही गढ़े, करे रूप साकार।।
अस्त्र-शस्त्र सब गढ़े, रचे अटारी धाम।
पूज्य प्रजापति श्री करे, सौरभ पावन काम।।
गढ़ते तुम संसार को, रचते नव औजार
तुम अभियंता जगत के, सच्चे तारणहार।।
तुमसे वाहन साधन है, जीवन के आधार।
तुमसे ही यश-बल बढे, तुमसे सब उपहार।।
ईश विश्वकर्मा करे, कैसे शब्द बखान।
जग में मिलता है नहीं, बिना आपके ज्ञान।।
आप कर्म के देवता, कर्म ज्योति का पुंज।
ईश विश्कर्मा जहाँ, सुरभित होय निकुंज।।
सृष्टि कर्ता अद्भुत सकल, बांटे हित का ज्ञान।
अतुल तेज़ सौरभ भरे, हरते सभी अज्ञान।।
भरते हुनर हाथ में, देकर शिल्प विज्ञान।
ईश विश्कर्मा हमें, देते नव पहचान।।
ईश विश्कर्मा हमें, दीजे दया निधान।
बैठा सौरभ आपके, चरण कमल धर ध्यान।।
एक-नेक हरियाणवी!!
धर्म-कर्म का पालना, गीता का उपदेश !
सच में हरि का वास है, हरियाणा परदेश !!
अमन-चैन की ये धरा, है वेदों का ज्ञान !
भूमि है ये वीर की, रखें देश की आन !!
हट्टे-कट्टे लोग हैं, अलग-अलग है भेष,
पर हरियाणा एक है, न कोई राग द्वेष !!
कुरुक्षेत्र की ये धरा, करें कर्म निर्वाह !
पानीपत मैदान है, ऐतिहासिक गवाह !!
चप्पे-चप्पे है यहाँ, बलिदानी उपदेश,
आंदोलन का गढ़ यही, जिससे भारत देश !!
मर्द युद्धों को पलटते, पदक जीतती बीर !
एक-नेक हरियाणवी, सिखलाते हैं धीर !!
मेल-जोल त्योहार में, गीतों का परिवेश,
मानवता का पालना, गाये प्रेम सन्देश !!
माथे इसके सरस्वती, कहते वेद विशेष !
सच में हरि का वास है, हरियाणा परदेश !!
जलता कैसे दीप
शुभ दीवाली आ गई, झूम रहा संसार।
माँ लक्ष्मी का आगमन, सजे सभी घर द्वार।।
*
सुख वैभव सबको मिले, मिले प्यार उपहार।
सच में सौरभ हो तभी, दीवाली त्यौहार।।
*
दीवाली का पर्व ये, हो सौरभ तब खास।
आ जाए जब झोंपड़ी, महलों को भी रास।।
*
जिनके स्वच्छ विचार हैं, रखे प्रेम व्यवहार।
उनके सौरभ रोज ही, दीवाली त्यौहार।।
*
दीवाली उनकी मने, होय सुखी परिवार।
दीप बेच रोशन करे, सौरभ जो घर द्वार।।
*
मैंने उनको भेंट की, दीवाली और ईद।
जान देश के नाम कर, जो हो गए शहीद।।
*
फीके-फीके हो गए, त्योहारों के रंग।
दीप दिवाली के बुझे, होली है बेरंग।।
*
नेह भरे मोती नहीं, खाली मन का सीप।
सूख गई हैं बातियाँ, जलता कैसे दीप।।
*
बाती रूठी दीप से, हो कैसे प्रकाश।
बैठा मन को बांधकर, अंधियारे का पाश।।
*
दीया माटी का जले, रौशन हो घर द्वार।
जीवन भर आशीष दे, तुम्हे खूब कुम्हार।।
*
दीया बाती ने किया, प्रेमपूर्ण व्यवहार।
जगमग हुई मुँडेर है, प्रकाशमय घर द्वार ।।
*
दीया -बाती- सी परी, तेरी -मेरी प्रीत।
हर्षित हो उल्लास उर, गाये मिलकर गीत।।
*
दीया में बाती जले, पावन ये व्यवहार।
अन्तर्मन उजियार ही, है सच्चा श्रृंगार।।
*
सदा शहीदों का जले, इक दीया हर हाल।
मने तभी दीपावली, देश रहे खुशहाल ।।
*
दीया- बाती- सा बने, आपस में विश्वास।
चिंता सारी दूर हो, खुशियां करे निवास।।
*
तपती बाती रात भर, लिए अटल विश्वास।
तब जाकर दीया भरे, है आशा उल्लास।।
*
दीये सा जीवन करे, इस जगती के नाम।
परहित हेतु जो है मिटे, जीवन उनका धाम।।
*
दीया माटी का जले, रौशन हो घर द्वार।
जीवन भर आशीष दे, तुम्हे खूब कुम्हार।।
दीया माटी का जले
दीया माटी का जले, रौशन हो घर द्वार।
जीवन भर आशीष दे, तुम्हे खूब कुम्हार।।
दीया बाती ने किया, प्रेमपूर्ण व्यवहार।
जगमग हुई मुँडेर है, प्रकाशमय घर द्वार ।।
दीया -बाती- सी परी, तेरी -मेरी प्रीत।
हर्षित हो उल्लास उर, गाये मिलकर गीत।।
दीया में बाती जले, पावन ये व्यवहार।
अन्तर्मन उजियार ही, है सच्चा श्रृंगार।।
सदा शहीदों का जले, इक दीया हर हाल।
मने तभी दीपावली, देश रहे खुशहाल ।।
दीया- बाती- सा बने, आपस में विश्वास।
चिंता सारी दूर हो, खुशियां करे निवास।।
तपती बाती रात भर, लिए अटल विश्वास।
तब जाकर दीया भरे, है आशा उल्लास।।
दीये सा जीवन करे, इस जगती के नाम।
परहित हेतु जो है मिटे, जीवन उनका धाम।।
दीया माटी का जले, रौशन हो घर द्वार।
जीवन भर आशीष दे, तुम्हे खूब कुम्हार।।
दूधवाला
(बाल कविता)
घर-घर आता सुबह शाम,
ड्रम दूध के हाथों में थाम।
दरवाजे पर आवाज लगाता,
संग में लस्सी भी लाता।
सुबह-सुबह जल्दी है उठता,
उठकर दूध इकट्ठा करता।
साफ-सफाई रखता पूरी,
तोल न करता कभी अधूरी।
मिलावट से है कतराता,
दूध हमेशा शुद्ध ही लाता।
आंधी, वर्षा, सर्दी, गर्मी,
भूल सदा समय पर आता।
सही समय पर आता दर पर,
चाय बने तभी तो घर पर।
सबको भाता ये मतवाला,
नाम है इसका दूधवाला।
निष्ठावान कलाम
सदियों में है जनमते,
निष्ठावान कलाम।
मातृभूमि को समर्पित,
किये अनूठे काम।।
धीर वीर थे साहसी,
करते सभी सलाम।
पूत सपूत अनेक हैं,
न्यारे एक कलाम।।
नित शाबाशी मिल रही,
किये अनोखे काम।
खुदगर्जी में डूबकर,
बदले नहीं कलाम।।
जिये मरे हम वतन पे,
करिये ऐसे काम।
बनो विवेकानंद तुम,
या फिर बनो कलाम।।
ज्ञान क्षितिज पर था रहा,
हुआ नहीं अंधकार।
सौरभ आज कलाम से,
जग में है उजियार।।
अपने ज्ञान विज्ञान से,
बदल गये वो दौर।
खोजे सभी कलाम की,
सृजन की सिरमौर।।
खेलें मिलकर खेल
( बाल कविता)
आओ बच्चों हम सभी,
खेलें मिलकर खेल।
मिलती किसको क्या सजा,
किसको मिलती जेल।।
खेल-खेल में आज यूं,
पुलिस बनूं मैं आज।
बुरा न मानो बात का,
चोर बनो तुम राज।।
भागा जल्दी राज सुन,
सीटी की आवाज।
पर राजू के हाथ तब,
लग गए जल्दी राज।।
हथकड़ियाँ अब राज के,
दी हाथों में डाल।
सीना फूला गर्व से,
चला लिए संभाल।।
आयी मम्मी पर तभी,
कड़े सौरभ माथ।
एक हाथ तो माथ था,
दूजे हंटर हाथ।।
सुनकर सहमे हम तभी,
मम्मी की आवाज।
भागे दोनों जोर से,
सौरभ राजू राज।।
बोली मम्मी तब मगर,
कुछ तो कर लो याद।
खेलो चाहे तुम सभी,
फिर तुम उसके बाद।।
दोनों मिलकर अब तभी,
लिखते रहते लेख।
हँसते रहते हैं सदा,
दादू यह सब देख।।
भेद विभीषण ने दिए
दुनिया रखती क्यों नहीं, आज विभीषण नाम।
तुम तो सब कुछ जानते, बोलो मेरे राम।।
वध दशानन कह रहा, ये भी तो इक बात।
करो विभीषण सा नहीं, भाई पर आघात।।
जयचंद, शकुनी, मंथरा, और दुष्ट मारीच।
नीचों के इतिहास में, रहे विभीषण नीच।।
गैरों से ज्यादा कठिन, अपनों की है मार।
भेद विभीषण से गया, रावण लंका हार।।
भेद विभीषण ने दिए, गए दशानन हार।
जीती लंका राम ने, कर भाइयों में रार।।
वैरी से ज्यादा किया, रावण पर यूं घात।
भेद विभीषण ने दिए, कही जिगर की बात।।
सौरभ विषधर से अधिक, विष अपनों के पास।
कभी विभीषण पर नहीं, करना मत विश्वास।।
दुश्मन में ताकत कहाँ, पकड़ सके जो हाथ।
कुंभकर्ण से तुम बनो, दो भाई का साथ।।
हर घर में कैसी लगी, ये मतलब की आग।
अपनों को ही डस रहे, बने विभीषण नाग।।
सत्य धर्म की जंग में, जीत गए थे राम।
मगर विभीषण तो रहे, सदियों तक बदनाम।।
दीवाली का पर्व ये
शुभ दीवाली आ गई, झूम रहा संसार।
माँ लक्ष्मी का आगमन, सजे सभी घर द्वार।।
सुख वैभव सबको मिले, मिले प्यार उपहार।
सच में सौरभ हो तभी, दीवाली त्यौहार।।
दीवाली का पर्व ये, हो सौरभ तब खास।
आ जाए जब झोंपड़ी, महलों को भी रास।।
जिनके स्वच्छ विचार हैं, रखे प्रेम व्यवहार।
उनके सौरभ रोज ही, दीवाली त्यौहार।।
दीवाली उनकी मने, होय सुखी परिवार।
दीप बेच रोशन करे, सौरभ जो घर द्वार।।
मैंने उनको भेंट की, दीवाली और ईद।
जान देश के नाम कर, जो हो गए शहीद।।
फीके-फीके हो गए, त्योहारों के रंग।
दीप दिवाली के बुझे, होली है बेरंग।।
नेह भरे मोती नहीं, खाली मन का सीप।
सूख गई हैं बातियाँ, जलता कैसे दीप।।
बाती रूठी दीप से, हो कैसे प्रकाश।
बैठा मन को बांधकर, अंधियारे का पाश।।
जलते पुतले पूछते
घर-घर में रावण हुए, चौराहे पर कंस ।
बहू-बेटियां झेलती, नित शैतानी दंश ।।
मन के रावण दुष्ट का, होगा कब संहार ।
जलते पुतले पूछते, बात यही हर बार ।।
पहले रावण एक था, अब हर घर, हर धाम।
राम नाम के नाम पर, पलते आशाराम।।
बैठा रावण हृदय जो, होता है क्या भान।
मान किसी का कब रखे, सौरभ ये अभिमान।।
रावण वध हर साल ही, होते है अविराम।
पर रावण मन में रहा, सौरभ क्या परिणाम।।
हारे रावण अहम तब, मन हो जब श्री राम।
धीर वीर गम्भीर को, करे दुनिया प्रणाम।।
झूठ-कपट की भावना, द्वेष छल अहंकार।
सौरभ रावण शीश है, इनका हो संहार।।
अंतर्मन से युद्ध कर, दे रावण को मार।
तभी दशहरे का मने, सौरभ सच त्यौहार।।
राम राज के नाम पर, रावण हैं चहुँ ओर।
धर्म-जाति दानव खड़ा, मुँह बाए पुरजोर।।
चिठ्ठी आई गाँव से
चिठ्ठी आई गाँव से, ले यादों के फूल।
अपनेपन में खो गया, शहर गया मैं भूल।।
सिसक रही हैं चिट्ठियां, छुप-छुपकर साहेब।
जब से चैटिंग ने भरा, मन में झूठ फ़रेब।।
चिठ्ठी-पत्री-डाकिया, बीते कल की बात।
अब कोने में हो रही, चैटिंग से मुलाक़ात।।
ना चिठ्ठी सन्देश है, ना आने की आस।
इंटरनेट के दौर में, रिश्ते हुए खटास।।
सूनी गलियाँ पूछतीं, पूछ रही चौपाल।
कहाँ गया वो डाकिया, पूछे जिससे हाल।।
चिठ्ठी लाई गाँव से, जब राखी उपहार।
आँसूं छलके आँख से, देख बहन का प्यार।।
ऑनलाइन ही आजकल, सपने भरे उड़ान।
कहाँ बची वो चिट्ठियां, जिनमें धड़कन जान।।
ना चिठ्ठी संदेश कुछ, गए महीनों बीत।
चैटिंग के संग्राम में, घायल सौरभ प्रीत।।
अब ना आयेंगे कभी, चिट्ठी में सन्देश।
बचे कबूतर है कहाँ, आज देश परदेश।।
निकलेगा परिणाम कल
आज तुम्हारे ढोल से, गूँज रहा आकाश !
निकलेगा परिणाम कल, होगा पर्दाफाश !!
जिनकी पहली सोच ही, लूट,नफ़ा श्रीमान !
पाओगे क्या सोचिये, चुनकर उसे प्रधान !!
नेता जी है आजकल, गिनता किसके नोट !
अक्सर ये है पूछता ?, मुझसे मेरा वोट !!
जात-धर्म की फूट कर, बदल दिया परिवेश !
नेता जी सब दोगले, बेचे, खाये देश !!
कर्ज गरीबों का घटा, कहे सदा सरकार !
चढ़ती रही मजलुम के, सौरभ सदा उधार !!
सौरभ सालों बाद भी, देश रहा कंगाल !
जेबें अपनी भर गए, नेता और दलाल !!
लोकतंत्र अब रो रहा, देख बुरे हालात !
वोटों में चलते दिखें, थप्पड़-घूसे, लात !!
देश बांटने में लगी, नेताओं की फ़ौज !
खाकर पैसा देश का, करते सारे मौज !!
पद-पैसे की आड़ में, बिकने लगा विधान !
राजनीति में घुस गए, अपराधी-शैतान !!
राजनीति नित बांटती, घर, कुनबे, परिवार !
गाँव-गली सब कर रहे, आपस में तकरार !!
देना किसको वोट
*
बजी दुंदभी वोट की, आये नेता द्वार।
भाईचारा हो सभी से, मन में करो विचार।।
*
इतनी भी ना बहक हो, इस चुनाव मधुमास।
रिश्तों का रोना लिखे, मितवा बारहमास।।
*
धन-बल-पद के लोभ की, छोड़े सौरभ प्रीत।
जो नेता जनहित करे, वोट उसे हो मीत ।।
*
वोट करो सब योग्य को, दाब राग दे छोड़।
जाति-पाति की भावना, के बंधन सब तोड़।।
*
मूल्य वोट का है बहुत, वोट बड़ा अनमोल।
देना किसको वोट है, सौरभ मन से तोल।।
*
सत्ता का ये खेल है, करे प्रपंच हज़ार।
बस अपना मत देखिये, रखे सलामत प्यार।।
*
वोट बड़ा अनमोल है, करो न इसका मोल।
मर्जी है ये आपकी, पड़े न इसमें झोल।।
*
जिनकी-जिनकी वोट हैं, सुनो आज ये बात।
एक दिनी मेहमान पर, क्यों भिड़े दिन रात।।
*
मत पाने की होड़ में, सुन लो मेरे मीत।
भाईचारा बस रहे, मिले हार या जीत।।
*
बूढा पीपल हैं कहाँ !
अपने प्यारे गाँव से, बस है यही सवाल !
बूढा पीपल हैं कहाँ,गई कहाँ चौपाल !!
रही नहीं चौपाल में, पहले जैसी बात !
नस्लें शहरी हो गई, बदल गई देहात !!
जब से आई गाँव में, ये शहरी सौगात !
मेड़ करें ना खेत से, आपस में अब बात !!
चिठ्ठी लाई गाँव से, जब यादों के फूल !
अपनेपन में खो गया, शहर गया मैं भूल !!
शहरी होती जिंदगी, बदल रहा हैं गाँव !
धरती बंजर हो गई, टिके मशीनी पाँव !!
गलियां सभी उदास हैं, सब पनघट हैं मौन !
शहर गए गाँव को, वापस लाये कौन !!
चिठ्ठी लाई गाँव से, जब यादों के फूल !
अपनेपन में खो गया, शहर गया मैं भूल !!
बदल गया तकरार में, अपनेपन का गाँव !
उलझ रहें हर आंगना, फूट-कलह के पाँव !!
पत्थर होता गाँव अब, हर पल करे पुकार !
लौटा दो फिर से मुझे, खपरैला आकार !!
खत आया जब गाँव से, ले माँ का सन्देश !
पढ़कर आंखें भर गई, बदल गया वो देश !!
लौटा बरसों बाद मैं, बचपन के उस गाँव !
नहीं रही थी अब जहाँ, बूढी पीपल छाँव !!
रखता कौन खयाल।
वृद्धों को बस चाहिए, इतनी- सी सौगात।
लाठी पकड़े हाथ हो, करने को दो बात।।
वृद्धों की हर बात का, रखता कौन खयाल।
आधुनिकता की आड़ में, हर घर है बेहाल।।
यश-वैभव- सुख-शांति के, यही सिद्ध सोपान।
घर है बिना बुजुर्ग के, खाली एक मकान।।
होते बड़े बुजुर्ग है, सारस्वत सम्मान।
मिलता इनसे ही हमें, है अनुभव का ज्ञान।।
सब दरवाजे बंद है, आया कैसा काल।
बड़े बुजुर्गो को दिया, घर से आज निकाल।।
बड़े बुजुर्गो से मिला, जिनको आशीर्वाद।
उनका जीवन धन्य है, रहते वो आबाद।।
सुनते नहीं बुजुर्ग थे, जहाँ बहू के बोल।
आज वहाँ हर बात पर, होते खूब कलोल।।
बड़े बुजुर्गो का सदा, जो रखता है ध्यान।
बिन मांगे खुशियाँ मिले, बढ़ता है सम्मान।।
बड़े बुजुर्गों की नहीं, पूछे कोई खैर।
है एकल परिवार में, मात- पिता भी गैर।।
लाल बहादुर धन्य है
जन्मदिवस पर लाल के, सुनें एक फ़रियाद।
सौरभ सदा बहादुर की, सीखों को रख याद ।।
करो-मरो की गूँज से, गूँजा हिन्दुस्तान।
सैनिक औ किसान बढे, बनी शक्ति पहचान ।।
लाल बहादुर ने करी, देश हितों की आस।
मगर कपटियों को कभी, आई ना वो रास ।।
फर्ज निभाते थे सदा, दीन -दुखी -हितकार ।
लाल बहादुर थे यहाँ, सच्चे पहरेदार ।।
छलकी आज किसान के, अंतर्मन की पीर।
लाल बहादुर के बिना, सौरभ आज अधीर ।।
लाल बहादुर धन्य है, नमन तुम्हें सौ बार।
सत्ता से पहले किया, जन्म भूमि से प्यार ।।
भारत माता पूछती, आज कहाँ है लाल।
कृषक बिना बहादुर के, चिंतित है बेहाल ।।
भारत का अभिमान वह, आन-बान- सम्मान।
लाल बहादुर से ही है, आज देश की शान ।।
पैदा क्यों होते नहीं, भगत सिंह से लाल
भगत सिंह, सुखदेव क्यों, खो बैठे पहचान।
पूछ रही माँ भारती, तुम से हिंदुस्तान।।
भगत सिंह, आज़ाद ने, फूंका था शंख नाद।
आज़ादी जिनसे मिले, रखो हमेशा याद।।
बोलो सौरभ क्यों नहीं, हो भारत लाचार।
भगत सिंह कोई नहीं, बनने को तैयार।।
भगत सिंह, आज़ाद से, हो जन्मे जब वीर।
रक्षा करते देश की, डिगे न उनका धीर।।
मरते दम तक हम करे, एक यही फरियाद।
भगत सिंह भूले नहीं, याद रहे आज़ाद।।
मिट गया जो देश पर, करी जवानी वार।
देशभक्त उस भगत को, नमन करे संसार।।
भारत माता के हुआ, मन में आज मलाल।
पैदा क्यों होते नहीं, भगत सिंह से लाल।।
तड़प उठे धरती, गगन, रोए सारे देव।
जब फांसी पर थे चढ़े, भगत सिंह, सुखदेव।।
भगत सिंह, आज़ाद हो, या हो वीर अनाम।
करें समर्पित हम उन्हे, सौरभ प्रथम प्रणाम।।
आशाओं के रंग
●●●
बने विजेता वो सदा, ऐसा मुझे यकीन।
आँखों में आकाश हो, पांवों तले जमीन।।
●●●
तू भी पायेगा कभी, फूलों की सौगात।
धुन अपनी मत छोड़ना, सुधरेंगे हालात।।
●●●
बीते कल को भूलकर, चुग डालें सब शूल।
बोयें हम नवभोर पर, सुंदर-सुरभित फूल।।
●●●
तूफानों से मत डरो, कर लो पैनी धार।
नाविक बैठे घाट पर, कब उतरें हैं पार।।
●●
छाले पांवों में पड़े, मान न लेना हार।
काँटों में ही है छुपा, फूलों का उपहार।।
●●●
भँवर सभी जो भूलकर, ले ताकत पहचान।
पार करे मझदार वो, सपनों का जलयान।।
●●●
तरकश में हो हौंसला, कोशिश के हो तीर।
साथ जुड़ी उम्मीद हो, दे पर्वत को चीर ।।
●●●
बैठा नाक गुरूर !!
●●●●●
नई सदी ने खो दिए, जीवन के विन्यास !
सांस-सांस में त्रास है, घायल है विश्वास !!
●●●●●
रिश्तों की उपमा गई, गया मनों अनुप्रास !
ईर्षित सौरभ हो गए, जीवन के उल्लास !!
●●●●●
कहाँ हास-परिहास अब,और बातें जरूर !
मिलने ना दे स्वयं से, बैठा नाक गुरूर !!
●●●●●
बोये पूरा गाँव जब, नागफनी के खेत !
कैसे सौरभ ना चुभे, किसे पाँव में रेत !!
●●●●●
दीये से बाती रुठी, बन बैठी है सौत !
देख रहा हूँ आजकल,आशाओं की मौत !!
●●●●●
कहाँ सत्य का पक्ष अब, है कैसा प्रतिपक्ष !
हाँक रहा हो स्वार्थ जब, बनकर सौरभ अक्ष !!
●●●●●
सपने सारे है पड़े, मोड़े अपने पेट !
खेल रहा है वक्त भी, ये कैसा आखेट !!
●●●●●
रख दे रिश्ते ताक पर, वो कैसे बदलाव !
षडयंत्रकारी जीत से, सही हार ठहराव !!
●●●●●
पर्दा उठता झूठ का
●●●
वक्त कराता है सदा, सब रिश्तों का बोध।
पर्दा उठता झूठ का, होता सच पर शोध।।
●●●
लौटा बरसों बाद मैं, उस बचपन के गांव।
नहीं बची थी अब जहां, बूढ़ी पीपल छांव।।
●●●
मूक हुई किलकारियां, गुम बच्चों की रेल।
गूगल में अब खो गये, बचपन के सब खेल।।
●●●
धूल आजकल फांकता, दादी का संदूक।
बच्चों को अच्छी लगे, अब घर में बंदूक।।
●●●
स्याही, कलम, दवात से, सजने थे जो हाथ।
कूड़ा-करकट बीनते, नाप रहे फुटपाथ।।
●●●
चीरहरण को देखकर, दरबारी सब मौन।
प्रश्न करे अँधराज से, विदुर बने अब कौन।।
●●●
सूनी बगिया देखकर, तितली है खामोश।
जुगनू की बारात से, गायब है अब जोश।।
●●●
अंधे साक्षी हैं बनें, गूंगे करें बयान ।
बहरे थामें न्याय की, ‘सौरभ’ आज कमान ।।
●●●
अपने प्यारे गाँव से, बस है यही सवाल ।
बूढा पीपल है कहाँ, कहाँ गई चौपाल ।।
●●●
गलियां सभी उदास हैं, पनघट हैं सब मौन ।
शहर गए उस गाँव को, वापस लाये कौन ।।
●●●
छुपकर बैठे भेड़िये, लगा रहे हैं दाँव ।
बच पाए कैसे सखी, अब भेड़ों का गाँव ।।
●●●
नफरत के इस दौर में, कैसे पनपे प्यार ।
ज्ञानी-पंडित-मौलवी, करते जब तकरार ।।
●●●
आज तुम्हारे ढोल से, गूँज रहा आकाश ।
बदलेगी सरकार कल, होगा पर्दाफाश ।।
●●●
सरहद पर जांबाज़ जब, जागे सारी रात ।
सो पाते हम चैन से, रह अपनों के साथ ।।
●●●
दो पैसे क्या शहर से, लाया अपने गाँव ।
धरती पर टिकते नहीं, अब ‘सौरभ’ के पाँव।।
●●●
नई सदी ने खो दिए, जीवन के विन्यास ।
सांस-सांस में त्रास है, घायल है विश्वास ।।
●●●
कौवे में पूर्वज दिखे
●●●
कौन पूछता योग्यता, तिकड़म है आधार ।
कौवे मोती चुन रहे, हंस हुये बेकार ।।
●●●
परिवर्तन के दौर की, ये कैसी रफ़्तार ।
गैरों को सिर पर रखें, अपने लगते भार ।।
●●●
अंधे साक्षी हैं बनें, गूंगे करें बयान ।
बहरे थामे न्याय की, ‘सौरभ’ आज कमान ।।
●●●
कौवे में पूर्वज दिखे, पत्थर में भगवान ।
इंसानो में क्यों यहाँ, दिखे नहीं इंसान ।।
●●●
जब से पैसा हो गया, संबंधों की माप ।
मन दर्जी करने लगा, बस खाली आलाप ।।
●●●
दहेज़ आहुति हो गया, रस्में सब व्यापार ।
धू-धू कर अब जल रहे, शादी के संस्कार ।।
●●●
हारे इज़्ज़त आबरू, भीरु बुजदिल लोग ।
खोकर अपनी सभ्यता, प्रश्नचिन्ह पे लोग ।।
●●●
अच्छे दिन आये नहीं, सहमा-सहमा आज ।
‘सौरभ’ हुए पेट्रोल से, महंगे आलू-प्याज ।।
●●●
गली-गली में मौत है, सड़क-सड़क बेहाल ।
डर-डर के हम जी रहे, देख देश का हाल ।।
●●●
लूट-खून दंगे कहीं, चोरी भ्रष्टाचार ।
ख़बरें ऐसी ला रहा, रोज सुबह अखबार ।।
●●●
सास ससुर सेवा करे, बहुएं करती राज ।
बेटी सँग दामाद के, बसी मायके आज ।।
तेरी क्या औकात
●●●
नई सदी में आ रहा, ये कैसा बदलाव ।
संगी-साथी दे रहे, दिल को गहरे घाव ।।
●●●
हम खतरे में जी रहे, बैठी सिर पर मौत ।
बेवजह ही हम बने, इक-दूजे की सौत ।।
●●●
जर्जर कश्ती हो गई, अंधे खेवनहार ।
खतरे में ‘सौरभ’ दिखे, जाना सागर पार ।।
●●●
थोड़ा-सा जो कद बढ़ा, भूल गए वो जात ।
झुग्गी कहती महल से, तेरी क्या औकात ।।
●●●
मन बातों को तरसता, समझे घर में कौन ।
दामन थामे फ़ोन का, बैठे हैं सब मौन ।।
●●●
हत्या-चोरी लूट से, कांपे रोज समाज ।
रक्त रंगे अखबार हम, देख रहे हैं आज ।।
●●●
कहाँ बचे भगवान से, पंचायत के पंच ।
झूठा निर्णय दे रहे, ‘सौरभ’ अब सरपंच ।।
●●●
योगी भोगी हो गए, संत चले बाजार ।
अबलाएं मठ लोक से, रह-रह करे पुकार ।।
●●●
दफ्तर,थाने, कोर्ट सब, देते उनका साथ ।
नियम-कायदे भूलकर, गर्म करे जो हाथ ।।
●●●
मंच हुए साहित्य के, गठजोड़ी सरकार ।
सभी बाँटकर ले रहे, पुरस्कार हर बार ।।
बने संतान आदर्श हमारी
बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।
सोच रहा हूँ जो बच्चा आये, उसका रूप, गुण सुना दूँ मैं।।
बाल घुंघराले, बदन गठीला, चाल, ढाल में तेज़ भरा हो।
मन शीतल हो ज्यों चंद्र-सा, ओज सूर्य सा रूप धरा हो।।
मन भाये नक्स, नैन हो, बातें दिल की बता दूँ मैं।
बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।।
राह चले वो वीर शिवा की, राणा की, अभिमन्यु की।
शत्रुदल को कैसे जीते, सीख चुने वो रणवीरों की।।
बन जाये वो सच्चा नायक, ऐसे मंत्र पढ़ा दूँ मैं।
बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।।
सीख सिख ले माँ पन्ना की, झाँसी वाली रानी की।
दुर्गावती -सा शौर्य हो, आबरू पद्मावत मेवाड़ी-सी।।
भक्ति में हो अहिल्या मीरा, ऐसी घुटकी पिलवा दूँ मैं।
बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।।
पुत्र हो तो प्रह्लाद-सा, राह धर्म की चलता जाये।
ध्रुव तारा सा अटल बने वो, सबको सत्य पथ दिखलाये।।
पुत्री जनकर मैत्रियी, गार्गी, ज्ञान की ज्योत जलवा दूँ मैं।
बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।।
सोच रहा हूँ जो बच्चा आये, उसका रूप, गुण सुना दूँ मैं।
बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।।
शिक्षक तो अनमोल है
दूर तिमिर को जो करे, बांटे सच्चा ज्ञान।
मिट्टी को जीवित करे, गुरुवर वो भगवान।।
जब रिश्ते हैं टूटते, होते विफल विधान।
गुरुवर तब सम्बल बने, होते बड़े महान।।
नानक, गौतम, द्रोण सँग, कौटिल्या, संदीप।
अपने- अपने दौर के, मानवता के दीप।।
चाहत को पंख दे यही, स्वप्न करे साकार।
शिक्षक अपने ज्ञान से, जीवन देत निखार।।
शिक्षक तो अनमोल है, इसको कम मत तोल।
सच्ची इसकी साधना, कड़वे इसके बोल।।
गागर में सागर भरें, बिखराये मुस्कान।
सौरभ जिनको गुरु मिले, ईश्वर का वरदान।।
शिक्षा गुरुवर बांटते, जैसे तरुवर छाँव।
तभी कहे हर धाम से, पावन इनके पाँव।।
अंधियारे, अज्ञान को, करे ज्ञान से दूर।
गुरुवर जलते दीप से, शिक्षा इनका नूर।।
लुटती जाए द्रौपदी
चीरहरण को देख कर, दरबारी सब मौन।
प्रश्न करे अँधराज पर, विदुर बने वो कौन।।
राम राज के नाम पर, कैसे हुए सुधार।
घर-घर दुःशासन खड़े, रावण है हर द्वार।।
कदम-कदम पर हैं खड़े, लपलप करे सियार।
जाये तो जाये कहाँ, हर बेटी लाचार।।
बची कहाँ है आजकल, लाज-धर्म की डोर।
पल-पल लुटती बेटियां, कैसा कलयुग घोर।।
वक्त बदलता दे रहा, कैसे- कैसे घाव।
माली बाग़ उजाड़ते, मांझी खोये नाव।।
घर-घर में रावण हुए, चौराहे पर कंस।
बहू-बेटियां झेलती, नित शैतानी दंश।।
वही खड़ी है द्रौपदी, और बढ़ी है पीर।
दरबारी सब मूक है, कौन बचाये चीर।।
लुटती जाए द्रौपदी,जगह-जगह पर आज।
दुश्शासन नित बढ़ रहे, दिखे नहीं ब्रजराज।।
छुपकर बैठे भेड़िये, लगा रहे हैं दाँव।
बच पाए कैसे सखी, अब भेड़ों का गाँव।।
नहीं सुरक्षित बेटियां, होती रोज शिकार।
घर-गलियां बाज़ार हो, या संसद का द्वार।।
सजा कड़ी यूं दीजिये, काँप उठे शैतान।
न्याय पीड़िता को मिले, ऐसे रचो विधान।।
लुटती जाए द्रौपदी, बैठे हैं सब मौन।
चीर बचाने चक्रधर, बन आए कौन।।
बोलचाल भी बंद
करें मरम्मत कब तलक, आखिर यूं हर बार।
निकल रही है रोज ही, घर में नई दरार।।
आई कहां से सोचिए, ये उल्टी तहजीब।
भाई से भाई भिड़े, जो थे कभी करीब।।
रिश्ते सारे मर गए, जिंदा हैं बस लोग।
फैला हर परिवार में, सौरभ कैसा रोग।।
फर्जी रिश्तों ने रचे, जब भी फर्जी छंद।
सगे बंधु से हो गई, बोलचाल भी बंद।।
सब्र रखा, रखता सब्र, सब्र रखूं हर बार।
लेकिन उनका हो गया, जगजाहिर व्यवहार।।
कर्जा लेकर घी पिए, सौरभ वह हर बार।
जिसकी नीयत हो डिगी, होता नहीं सुधार।।
घर में ही दुश्मन मिले, खुल जाए सब पोल।
अपने हिस्से का जरा, सौरभ सच तू बोल।।
सौरभ रिश्तों का सही, अंत यही उपचार।
हटे अगर वो दो कदम, तुम हट लो फिर चार।।
रक्षा बंधन ये कहे
रक्षा बंधन प्रेम का, मनभावन त्यौहार।
जिससे भाई बहन में, नित बढ़े है प्यार।
बहनें मांगे ये वचन, कभी न जाना भूल।
भाई-बहना प्रेम के, महके हरदम फूल।।
रेशम की डोरी सजी, बहना की मनुहार।
रक्षा बंधन प्यार का, सुंदर है त्योहार।।
रक्षा बंधन प्यार का, निश्छल पावन पर्व।
करती बहने हैं सदा, निज भाई पर गर्व।।
भाई बहना प्रेम का, सालाना त्यौहार।
बांटे लाड दुलार की, खुशियां अपरम्पार।।
रक्षा बंधन पर करें, बहनें सारी नाज।
देखे भाई कीर्तियाँ, खुशियां झलके आज।।
करती बहने विनतियाँ, सौरभ ये हर साल।
आए कोई भी समय, भैया उनकी ढाल।।
रक्षा बंधन पर्व पर, मन की गांठे खोल।
भाई-बहन स्नेह से, कर दें घर अनमोल।।
रक्षा बंधन ये कहे, बात यही हर बार।
सच्चा पवन प्यार ये, झूठा जग का प्यार।।
आये नेता द्वार
बजी दुंदभी वोट की, आये नेता द्वार।
भाईचारा बस रहे, मन में करो विचार।।
इतनी भी ना बहक हो, चुनाव के मधुमास।
रिश्तों का रोना लिखे, मितवा बारहमास।।
धन-बल-पद के लोभ की, छोड़े सौरभ प्रीत।
जो नेता जनहित करे, वोट उसे हो मीत ।।
वोट करो सब योग्य को, दाब, राग दे छोड़।
जाति-पाति की भावना, के बंधन सब तोड़।।
मूल्य वोट का है बहुत, वोट बड़ा अनमोल।
देना किसको वोट है, सौरभ मन से तोल।।
सत्ता का ये खेल है, करे प्रपंच हज़ार।
बस अपना मत देखिये, रखे सलामत प्यार।।
वोट बड़ा अनमोल है, करो न इसका मोल।
मर्जी है ये आपकी, पड़े न इसमें झोल।।
जिनकी-जिनकी वोट हैं, सुनो आज ये बात।
नेता सारे दोगले, भिड़े न हम बिन बात।।
मत पाने की होड़ में, सुन लो मेरे मीत।
भाईचारा बस रहे, मिले हार या जीत।।
अटल अटल पथ पर रहे
प्रसिद्ध कवि अति लोकप्रिय,पूजनीय इंसान।
अटल बिहारी देश के, रहे विभूति महान।।
अटल बिहारी ने दिए, भारत को प्रतिमान।
मानें उनको आज हम, फिर से बने महान।।
दुश्मन के दिल में बसे, करते हृदय शुद्ध।
देख अटल की शक्तियां, हँस दिए थे बुद्ध।।
रार नहीं ठानी कभी, मानी कभी न हार।
अटल अटल-सी होड़ थे, किये काल पर वार।।
राजनीति का अर्थ नव, शासन के दिनमान।
अटल अटल पथ पर रहे, सतत रहे गतिमान।।
देशहित में लगे रहे, पल-पल किए प्रयत्न।
सत्यमेव थे आप ही, सचमुच भारत रत्न।।
तुंग गिरि के शिखर चढ़े, अटल धीर गम्भीर।
विश्व मंच हिंदी बढ़ी, खींची अटल लकीर।।
अटल हमारे अटल है, अटल रहे निर्बाध।
छाप अटल जो रच गए, दिल में है आबाद।।
ऋणी रहे ये आपका, सौरभ हिंदुस्तान।
मरकर भी हैं कब मरे, अटल सपूत महान।।
उड़े तिरंगा बीच नभ
आज तिरंगा शान है, आन, बान, सम्मान।
रखने ऊँचा यूँ इसे, हुए बहुत बलिदान।।
नहीं तिरंगा झुक सके, नित करना संधान।
इसकी रक्षा के लिए, करना है बलिदान।।
देश प्रेम वो प्रेम है, खींचे अपनी ओर।
उड़े तिरंगा बीच नभ, उठती खूब हिलोर।।
शान तिरंगा की रहे, दिल में लो ये ठान।
हर घर, हर दिल में रहे, बन जाए पहचान।।
लिए तिरंगा हाथ में, खुद से करे सवाल।
देश प्रेम के नाम पर, हो ये ना बदहाल।।
लिए तिरंगा हाथ में, टूटे नहीं जवान।
सीमा पर रहते खड़े, करते सब बलिदान।।
लाज तिरंगा की रहे, बस इतना अरमान।
मरते दम तक मैं रखूँ, दिल में हिंदुस्तान।।
सदा तिरंगा यूं लहराये
दुश्मन को ये धूल चटाये।
विश्व विजेता बनता जाये।
आसमान को छूकर आये,
सदा तिरंगा यूं लहराये।।
वीरों की आन बान है ये।
मातृभूमि की शान है ये।
भारत की पहचान है ये,
बच्चों को ये बात बताये।
सदा तिरंगा यूं लहराये।।
लिए समृद्धि रंग हरा है।
केसरिया कुर्बानी भरा है।
और सफ़ेद शांति धरा है,
चक्र नीला प्रगति लाये।
सदा तिरंगा यूं लहराये।
इस झंडे की साख बड़ी है।
आजादी की बात जुडी है।
झंडे से ही कसम खड़ी है,
इस खातिर सब मर मिट जाये।
सदा तिरंगा यूं लहराये।।
बच्चों झंडा ध्येय हमारा।
ये ही तन मन धन है सारा।
प्यारा भारत देश हमारा,
विश्व विजेता बनता जाये।
सदा तिरंगा यूं लहराये।।
हरियाली तीज
सावन में है तीज का, एक अलग उल्लास |
प्रेम रंग में भीग कर, कहती जीवन खास | |
जैसे सावन में सदा, होती खूब बहार |
ऐसे ही हर घर सदा, मने तीज त्योहार | |
हाथों में मेंहदी रची, महक रहा है प्यार |
चूड़ी, पायल, करधनी, गोरी के श्रृंगार | |
उत्सव, पर्व, समारोह है, ये हरियाली तीज |
आती है हर साल ये, बोने खुशियां बीज | |
अगर हमीं बोते रहे, राग- द्वेष के बीज |
होंगे फीके प्रेम बिन, सावन हो या तीज ||
बोए मिलकर हम सभी, अगर प्रेम के बीज |
रहे न चिन्ता दुख कभी, हर दिन होगी तीज ||
प्यार-प्रेम सिंचित करें, हृदय यूं दे बीज |
हरी-भरी हो जिंदगी, तभी सफल हो तीज ||
भावहीन अब हो रहे, सभी तीज त्यौहार |
लगे प्यार के बीज यदि, मिटे दिलों की रार | |
सावन झूले हैं कहाँ, और कहाँ है तीज |
मन में भरे कलेश के, सबके काले बीज | |
मन को ऐसे रंग लें, भर दें ऐसा प्यार |
हर पल हर दिन ही रहे, सावन का त्यौहार | |

डॉo सत्यवान सौरभ
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
हरियाणा
यह भी पढ़ें :-
डॉ. सत्यवान सौरभ के पच्चास चर्चित दोहे








बहुत सुंदर काव्य संकलन ! हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
आपकी सभी रचनाएं उत्तम हैं । अति सुन्दर!
हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई !