हाल-ए-दिल | Hal-E- Dil | Ghazal
हाल-ए-दिल का मत पूछ मेरे यार
( Hal-e-dil ka mat poochh mere yar )
सीने पे देखु तो दर्द का खबर लगता है
मेरे ज़ख्म-ए-दिल लोगो को तमाशा का नगर लगता है
अब बसेरा कर चूका हूँ बीरान शहर में
जहाँ कहीं यहाँ अपना ही घर लगता है
हाल-ए-दिल का मत पूछ मेरे यार
बताने में बड़ा डर लगता है
इबादत रूह से निकलती है
इसीलिए मुझे हर दर अपना ही दर लगता है
जाना है दूर तो सबर लगता है
वर्ना यूं तो लोगो की नज़र लगता है
मुरीद के क़ुर्ब में मत जा
छोड़ दे ‘अनंत’ वहां पर अपना सर लगता है
शायर: स्वामी ध्यान अनंता