Jhoot ki Daud
Jhoot ki Daud

झूठ की दौड़

( Jhoot ki daud ) 

 

झूठ के मुरब्बों में
मिठास तो बहुत होती है
किंतु,देर सबेर हाजमा बिगड़ ही जाता है
झालर मे रोशनी,और
कागजी फूलों की महक जैसे….

हमाम मे तो नंगे होते हैं सभी
बाहर मगर निकलते कहां हैं
दाल मे नमक बराबर ही हो तो अच्छा
शक्कर बराबर झूठ कहां चलता है…

पहुंच सकें ,दौड़ उतनी ही अच्छी
अंधी दौड़ मे पैर सलामत नही रहते
उपहास का पात्र
व्यक्ति स्वयं से ही बनता है…

समय तो निकल ही जाता है
कम या ज्यादा मे
ईमान बेचकर खरीदी गई चीज
अधिक फायदेमंद नही होती…..

नजरों से गिर जाने पर
नजरें मिला पाना मुश्किल होता है
जो चलते नही संभलकर
उनका संभल पाना मुश्किल हो जाता है….

 

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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