कमलेश विष्णु की कविताएं | Kamlesh Vishnu Hindi Poetry
रो रही है क्यों धरा
रक्षित कवच धरा का देखो,
छिद्रित हुआ ओजोन है!
ग्रहण लगा है नीरवता का,
हुई मनुजता मौन है !!
ना जाने क्यों व्यथा सिंधु में,
डूब रही मानवता है!
पशु प्रवृत्ति के रंग रेचक में,
इतराती क्यों दानवता है !!
लोभी मानव की नादानी ने,
धरती का भूषण लूटा है!
संयम सेवा त्याग तपस्या,
का कंचन घट यह फूटा है!!
सोचो आने वाले कल को,
पवन गमन हो रहा मोन है!
जिज्ञासु जन ऊंचा उठ देखो,
छिद्रित हुआ ओजोन है !!
आओ मिलजुल धरा सजाएं
आओ मिलजुल धरा सजाएं
पर्यावरण बचाना होगा,
घर-घर अलख जागना होगा !
पेड़ कभी कटने ना पाए,
पावस ऋतु में वृक्ष लगाएं !!
आओ मिलजुल धरा सजाएं !
जल को होनें ना दें दूषित,
नदियों को भी स्वच्छ कराएं!
संचित जल को व्यर्थ करें ना,
ऐसा सब में भाव जगाएं !!
आओ मिलजुल धरा सजाएं!
खेती बाड़ी करें मौसमी,
मिश्रित अन्न सदा उपजाएं !
स्वस्थ्य सुखी सारे जन होंगे,
विपदाएं सारी मिट जाएं !!
आओ मिलजुल धरा सजाएं!
वातावरण मनोरम होगा,
धरती का संकट छट जाए !
जिज्ञासु जन संकल्पित हों,
कर्तव्य विमुख न होने पाएं !!
आओ मिलजुल धरा सजाएं!
सच्चाई ई जान ल
बटबा त कटबा भईया,
बतिया अब ई मान ल!
एकता में बल बड़ बडूए,
सच्चाई ई जान ल!
अइरू, गईरु, नत्थू खईरू,
हमनी सबके बांट के!
सत्ता के सुख भोगत हउएं,
देशवा के चाट के!!
देशवा बचाल अबत ,
नाहीं त, ई चरि जई हें !
भारत के बेच के ई,
विदेश जाई बसी हें!!
जागहो “जिज्ञासु” सभे,
नाहीं त पछतईब!
हाल रही इहे त फेर
पराधीन हो जइब!!
समझ बुझ अबत भईया,
बटे न पावे देशवा!
अबत,एकजुट हो के रह,
कटे न पावे शीसवा!!
बटबा त कटबा भईया,
बतिया बाबा के ई मानल!
देश के बढ़ावे खातिर,
एकजुट हो के रह ठान ल!!
जल ही है जीवन का संबल
जल ही है जीवन का संबल,
जल ही जीवन का संचार!
वन्य जीव फसलें जीवित सब,
जल ही है सुख का आधार!!
जल विहीन हो जीना चाहें,
ऐसा संभव नहीं धरा पर!
जल संचय करना हम सीखें,
बर्बादी को रोकें परस्पर!!
पर्यावरण प्रदूषित ना हो,
वृक्ष से करें धारा श्रृंगार!
भावी जीवन मंगलमय हो,
आवर्षण का पड़े न मार !!
जल दोहन से बचना सीखें,
“जिज्ञासु” जन मन सोच प्रखर हो!
धरा स्वर्ग बन जाए अपनी,
नित सुवाष भूषित नभ- सर हो!!
हे विष्णु प्रिये
हे विष्णु प्रिये मां जग जननी,
जग पालिनि भव भय हारणि हे!
स्वीकार करो विनती मेरी,
पय-निधि के लहर विहारणि हे!!
गाऊं यश गान सदा तेरी,
चरणों में शीश झुकाऊं मैं!
भरदो झोली सत्कर्मों से,
सत पथ पर पाँव बढ़ाऊं मैं !!
जीवन में दीन दुखी जन के,
नित काम सदा मां आऊं मैं!
असहाय जनों की सेवा का,
प्रति-पल यह बोझ उठाऊं मैं!!
अपनों की राह धवल करती,
तुम हो दुष्कर्म निवारणि हे !
स्वीकार करो बिनती मेरी,
पय निधि के लहर विहारणि हे !!
मां प्रतिपल राह निहारूं मैं,
तल्लीन रहूं तव चरणन में!
‘जिज्ञासु’ सुधिजन अभिलाषा,
तुम पूर्ण करो नवरागन में !!
सार्थक सक्रिय यह जीवन हो,
अलम्ब तुम्हारी हमें सदा !
निष्कलंक रखो जीवन जननी,
नहिं घेर सके कोई विपदा !!
आशा की डोर गहो जननी,
पारस सा तुम उद्धारणि हो!
स्वीकार करो बिनती मेरी,
पय-निधि के लहर विहारणि हे!!
बनारस
कण कण में हैं शंकर जिसके ,
और मिट्टी है पारस !
तीन लोक से न्यारी नगरी ,
जिसका नाम बनारस !!
आबोहवा यहां का अनुपम,
फिजा में बसती मस्ती !
मोक्ष धाम है महादेव का ,
मानवता की बस्ती !!
स्नेह समन्वय सदाचार संग,
बहती ज्ञान की गंगा!
सुख समृद्धि,शान्ति,शौर्य का,
लहरे सदा तिरंगा!!
तप त्याग तपस्या धर्म ध्यान ,
की ये अनुपम वेणी!
गायन वादन नृत्य विहंगम-
की बहती सदा त्रिवेणी!!
जिज्ञासु जन गण मन आकर,
निहाल हो जाते!
रसराज बनारस का चहुंदिश,
रस बरसाते!!
चिड़िया रानी
चिड़िया रानी चिड़िया रानी
क्यो करती इतना मनमानी!
रोज सवेरे तुम हो आती
आकर पुन:कहां हो जाती !!
चाहूं साथ खेलना तेरे
क्या खेलोगी साथ तुम मेरे !
आना-जाना अब तुम छोड़ो
खेलो साथ में मिलकर मेरे !!
देखो फिर ना फुर हो जाना
नये नये नित गीत सुनाना !
संग अपने परियो को लाना
हम सबको मत कभी भुलाना !!
देखो ऐसे दिल ना तोड़ो
हम बच्चों से मुंह न मोड़ो!
ची ची स्वर में गीत सुना कर
“जिज्ञासु” से नाता जोड़ो!!
दाना पानी खालो पीलो
निर्भय होकर साथ में खेलो !
साथ तुम्हारे अब हम सब हैं
आनंदित हो जीवन जी लो !!
आकुल नयन
आकुल नयन दरस बिन तेरे,
लगा हुआ धुन सांझ सवेरे।
जोहत बाट बहुत दिन बीते,
तबहुँ न आई बारी।।
जननी!
कब सुधि लोगी हमारी।
जो भी हूं मैं बालक तेरा,
दुनियाँ ने मुझसे मुँह फेरा।
मुझसे तुम क्यों रूठ गई मां,
हुई चूक क्या भारी।।
जननी!
कब सुधि लोगी हमारी।
विषयी मन कुछ समझ न पाए,
तूँ हीं बता अब किस पथ जाएं।
तन जर्जर मन टूट रहा अब,
भंवर में नाव हमारी।।
जननी!
कब सुधि लोगी हमारी।
तुम बिन ये जीवन अँधियारा,
‘जिज्ञासु’ को तेरा सहारा।
बालक हूं मां दोष न देखो,
रख लो लाज हमारी ।।
जननी!
कब सुधि लोगी हमारी ।
सिंह वाहिनी अम्बे
सिंह वाहिनी, शत्रुविनाशिनी,
भय हारिणी पालिनी अम्बे!
सदा सहायक जन जन की मां,
दुख दारिद्र विनाशिनी अम्बे!!
कीर्ति सदा तेरी मां गाऊं,
तेरी चरणों में शीश झुकाऊं !
सत्कर्म प्रवृति हो जीवन मेरा,
शत्पथ पर बढ़ता ही जाऊं !!
प्रति दीन दुखी निबलों विकलों के,
सेवा में लीन रहूं मैं !
तेरी ममता छमता से सुख दुख,
ओढ़ सकूं निश दिन मैं!!
अरदास करत है “जिज्ञासु”,
ममतामई करूणा दानी!
निष्कलंक मंयक बनूं मैं,
गुण-दोष न हेर भवानी!!
हे जगदम्ब भवानी
आलोकित हो तम मय पथ यह,
करो कृपा महरानी !
दूर करो दुर्गुण सब मेरे ,
हे जगदंब भवानी !!
लगा हुआ लव चरण तुम्हारे,
राह दिखा दो माता !
चरण शरण अनुगामी पर मां,
बालक जैसा नाता !!
बाह पकड़ कर मुझे चला दो,
हे करुणा-निधि-दानी !
दूर करो दुर्गुण सब मेरे,
हे जगदंब भवानी !!
काम सदा आऊं भयहारिणि,
दीन दुखी निबलों के !
प्रेम पंथ पर चलकर जननी,
तृषा हरुं बिकलों के !!
बनूं न पोषक सुख सुविधा का,
ऐसा दो बरदानी !
दूर करो दुर्गुण सब मेरे,
हे जगदंब भवानी !!
साबरमती के संत
साबरमती के संत को,
शत-शत मेरा प्रणाम!
जन्मदिन पर, उनके सभी,
संकल्प लें महान!!
साबरमती के संत को,
शत-शत मेरा प्रणाम!
सत्य,स्नेह, समदृष्टि का,
भर दे सब में सद्ज्ञान!
लोभ मोह मय मद-मत्सर,
का हम दे दें बलिदान!!
साबरमती के संत को,
शत-शत मेरा प्रणाम!
उंच-नीच,धर्म-मजहब का,
सब मिलकर करें निदान!
भेदभाव न आए मन में,
आएं सदा सभी के काम!!
साबरमती के संत को,
शत-शत मेरा प्रणाम!
सर्वे भवंतु सुखिनः
सर्वे संतु निरामया ,
हो हम सब का पैगाम!!
साबरमती के संत को,
शत-शत मेरा प्रणाम!
काहें को बांसुरी सुनाई
ओ कान्हा मोंहें काहें को,
बांसुरी सुनाई!
जाना था जब तुम्हें द्वारिका,
काहें को लत ये लगाई!
नैनन नींद न, चैन परत तन,
मनको लीन्ह भोराई!!
सूख गई सब लता वल्लरी,
कदंब डार अकुलाई !
अब मधुबन गऊंएं न रंभाती,
तृण नहीं ओंठ दबाई!!
ओ कान्हा मोंहें काहें को,
बांसुरी सुनाई!
खग कुल कलरव करना छोड़ें,
उपवन गयो मुरझाई!
अब तो बता दो कब आओगे,
सहत न बने जुदाई!!
नींद न आए सारी सारी रतिया,
दिन बीते न बिताई!
सौतन बन गई बिरही सेजरिया,
तनिकौं अब न सुहाई!!
ओ कान्हा मोहे काहें को ,
बांसुरी सुनाई!
छेड़ रही मोंहें सखी सहेली ,
है ये कैसी रुसवाई!
कब आओगे अब तो बता दो,
मन बूझे न बुझाई !!
“जिज्ञासु” भई लाकडी सखियां,
श्रवण न सबद अटाई!
ओ कान्हा मोंहें काहें को,
बांसुरी सुनाई!!
भरोसा
भरोसा भाग्य का मतकर,
कृतकर्म साथ जाएगा !
समय कम है समझ लेना,
नहीं तो तूं पछताएगा !!
बेईमानी, दगाबाजी से,
हसिल कुछ नहीं होगा !
सदा सत्कर्म ही तेरे,
जीवन में सफल होगा !!
सिकंदर, नेपोलियन, हिटलर,
नहीं कुछ कर सके हासिल!
समझ लेना ये सच्चाई वरना,
ये जीवन व्यर्थ जाएगा!!
“जिज्ञासु” कहे सुन लो,
सब, धरा रह जायेगा !
मुट्ठी बांध आये थे,
खाली हांथ जायेगा !!
धर्म सनातन
संकट में है धर्म सनातन,
मिलकर इसे बचाना है !
आस्तीन के सांपों से ,
वसुधा को मुक्त करना है !!
निजी स्वार्थ में,खुद अपने ही,
भारत को हैं लूट रहे !
लाज शर्म अब बचा न इनमें,
जनता का लहु चूस रहे !!
जात पात धर्म मजहब में,
हम सबको है बांट रहे !
सत्ता में आने के खातिर,
दुश्मन को है गांठ रहे !!
किंवदंती है, ऐतिहासिक,
घटना को दोहराता है !
जयचंद ने किया था जो कल,
प्रतिपक्ष वही अपनाता हैं !!
जागो देशवासियों अब तो,
वरना सब पछताएंगे !
फिर से सोने की चिड़िया संग,
बंधक हम बन जाएंगे !!
“जिज्ञासु”जन मन भिलाषा,
गौरव पाठ पढ़ाना है !
नई उमंगे नई तरंगे,
विश्व पटल पर लाना है !!
अलंकृत हिंदी
रसमय छंद अलंकृत हिंदी
सब भाषा की प्राण है हिंदी!
संस्कृत की तत्सम अभिलाषा
विश्व पटल की शान है हिंदी!!
मैकाले का छोड़ धरोहर
हिंदी अपनाएं हम घर घर!
लें संकल्प ‘जिज्ञासु’ जन मिलकर
मान बढ़ाएं विश्व पटल पर!!
निज भाषा
***
निज भाषा ही अपनी सबको
मान दिलाती है इस जग में !
दृढ़ संकल्प आत्मबल हो तो
तभी बढ़ोगे तुम जीवन में !!
बोली बोले कोयल अपनी
विचरण करती नील गगन में !
करे अनुसरण अन्य की बोली
तोता बंद रहे पिजड़े में !!
निज भाषा विचार हों अपने
हो विश्वास अटल अपने पर !
लिख दोगे इतिहास अनोखा
“जिज्ञासु”जन विश्व पटल पर !!
प्रथम पूज्य हे विघ्न विनाशक
प्रथम पूज्य हे विघ्न विनाशक
गणपति गज-मुख मंगल दायक
कटुता क्लेश मिटाकर मनसे
मेरे विघ्न हरो ।
हे गणपति !
स्थिर चित्त करो ।
काम वासना जगे न मन में
करूं अर्चना हर पल क्षण में
लोभ मोह मत्सर से स्वामी
मुझको मुक्त करो।
हे गणपति!
स्थिर चित्त करो।
प्रथम पूज्य हे विघ्न विनाशक
निबल जनों के भाग्य विधायक
सुख संपत्ति शौर्य के स्वामी
सब संताप हरो ।
हे गणपति !
स्थिर चित्त करो।
प्रथम पूज्य हो जग में गणपति
भरते स्नेह दूर कर दुर्गति
जिज्ञासु जन-मन अभिलाषा
सबका पूर्ण करो।
हे गणपति!
स्थिर चित्त करो।
सावन बीता जाए
सावन बीता जाए सजनवां,
तुम तब हूं नहीं आए!
कैसे बीतेगी ये उमरिया,
कोई मुझे समझाए!!
सजनवां सावन बीता जाए !
दूर देश में तुम जा बैठे,
चैन न मुझको आए!!
बीती कैसे रैन हमारी,
कैसे तुम्हें समझाएं!!
सजनवां सावन बीता जाए!
कूं कूं बोले काली कोयलिया,
तन मे आग लगाए!
पिहुंक पपीहा बान चलाए,
जियरा बिध बिध जाए!!
सजनवां सावन बीता जाए !
आस लगाये बैठी साजन,
फिर भी नहीं तुम आए!
अब तो आकर गले लगा लो,
मधुर मिलन हो जाए !!
सावन बीता जाए सजनावां,
सावन बीता जाए!
याद तेरी तड़पाती है
देख तुझे दिल की धड़कन ये,
न जाने क्यों बढ़ जाती है !
बिन देखे बढ़ती बेचैनी,
याद तेरी तड़पाती है!!
देखूं तो तन पुलकित हो,
मन हर्षित हो जाता है!
बिन देखे बढ़ती बेचैनी,
याद तेरी तड़पाती है!!
स्मृति में तुम आकर मेरे,
स्पंदित कर जाती हो!
जीवन के इस सूनेपन में
स्नेह सुधा बरसाती हो!!
गूंज रही स्वर लहरी तेरी,
कोयल भी शर्माती है!
बढ़ती है बेचैनी पल पल,
याद तेरी तड़पाती है!!
“जिज्ञासु”जन तेरी अनुपम,
अनुकंपा आभारी हैं!
तरल तरंगित भाव लहर पर
तिरते हम स्वविचारी हैं!!
लोकतंत्र के गलियारे में
राजतंत्र तो चला गया पर,
राजनीति क्यों जारी है !
लोकतंत्र के गलियारे में,
बिहस रहे अनाचारी हैं !!
संशोधन कर, संविधान का,
उल्लू सीधा करते हैं !
संसद में छलकते पायल,
दौलत चूसा करते हैं !!
जनसेवक बन जनता का ही,
शोषण करते रहते हैं !
ठगने से वे बाज न आते,
पोषण करते रहते हैं !!
न्याय तंत्र के अनुयाई ही,
खोद रहे गहरी खाई !
“जिज्ञासु” जन अभिलाषा पर,
काली पोता करते हैं !!
पावस ऋतु का रूप सलोना
जलनिधि के वाष्पित जल से जब ,
जलधर रिमझिम जल बरसाता !
शीतल हरीतिमा की आभा से ,
भूमंडल, आलोकित हो जाता !!
अम्बुद के अमृत बूँदों से,
धरती है पुलकित हो जाती !
अन्न-धन, फल और फूलों से,
सबको है संतृप्त कराती !!
शस्य श्यामला धरती अपनी,
दुल्हन जैसी है सज जाती!
तोता, मैना, बुलबुल, कोयल,
सप्त सुरों में गीत सुनाती!!
पावस ऋतु का रूप सलोना ,
सबके मन को, है भाजाती!
ललनाएं सज धज कर घर-घर ,
कजरी मिल-जुलकर हैं गाती!!
स्वर्ग से सुंदर वसुधा अपनी,
हमसब का है, हिय हर्षाती!
“जिज्ञासु” जन आनंदित कर ,
प्रगति के पथ को दिखलाती !!
समय शिला पर
समय शिला पर रचें गीत कुछ,
हम सब मिलकर ऐसा !
अमिट रहे सदियों तक,
आलोकित हो सूरज जैसा !!
हो शाश्वत और विहायत,
सबके मन को भाए !
आनंदित हो जीवन सबका,
मलय सुगंधित धाए !!
रचनाओं से समाज में,
समानता लाएं !
हो कुरीतियां दूर सभी
समदृष्टि अपनाएं!!
“जिज्ञासु” जन मिलकर सारे ,
गीत सुमंगल गाएं!
आने वाले कल को अपने
सुंदर सफल बनाएं!!
प्यारे मेघा
कहां छुपे हो प्यारे मेघा,
अब तो जल्दी आओ !
वसुधा की प्यासी अधरों को,
अमृत पान कराओ !!
प्यासी धरती, प्यासा अंबर,
सुखी नदियां, ताल, तलैया !
सूख रहे हैं खेत, बाग,वन,
झुलस रहे पशु, पक्षी, गैया !!
कहां छुपे हो प्यारे मेघा,
आकर नीर बहाओ !
गर्मी से संतप्त धरा को
अबतो तृप्त कराओ!!
अवनी के संताप मिटा ओ
तप रहा गगन, तप रहा पवन,
तप रही धरा, तप रहा बदन !
कहां छुपे हो प्यारे जलधर,
ऐसे अब न सताओ !!
जलधर, जल बरसा कर अब तो
अवनी के संताप मिटाओ !
सुख रहे हैं ताल तलैया ,
जीव जंतु अकुलाए !
मुर्झाए सब बाग बगीचे ,
कोयल कैसे गाए !!
हमें खेलना है बागों में ,
झूला कैसे झूलें !
तुम्हीं बताओ पेंग बढ़कर,
नभ को कैसे छूलें !!
कहाँ खो गए प्यारे जलधर ,
आकर जल बरसाओ !
“जिज्ञासु” व्याकुल तन मन को ,
पय से तर कर जाओ !!
जलधर, जल बरसा कर अब तो
अवनी के संताप मिटा ओ!
नभ के बादल
सागर के वाष्पित जल से जब,
बादल रूप सजाता!
दौड़ लगाकर नभ से बादल,
अमृत जल बरसाता!!
धरा पहनती धानी साड़ी,
कौतूहल चहुं छाए !
वन उपवन में लता वल्लरी,
संबल पा इठलाए !!
झींगुर के लय तान से दादुर,
अपना गीत सुनाए !
पायल पाँव छनक उठती है,
युवती राग सधाए !!
प्रीत परोस उठे पुरवाई,
मानव मन हर्षाता !
दौड़ लगाकर नभ से बादल ,
अमृत जल बरसाता !!
त्याग और बलिदान से भूषित ,
सबकी राम कहानी !
सत्यम शिवम सुंदरम सी हो,
जन गण मन की वाणी !!
शिष्टाचारी बने सभी जन,
भ्रष्ट आचरण हानी !
सर्व धर्म समभाव जगाकर ,
बनें नीतिगत ध्यानी !!
पर पीड़ा में जिज्ञासु रत,
होकर सुख है पाता !
दौड़ लगाकर नभ में बादल,
अमृत जल बरसाता !!
जीवन के आधार
प्रकृति पुरुष पर्यावरण
का करना सम्मान !
बिगड़े ना ये संतुलन
रखना होगा ध्यान !!
जीवन के आधार हैं
अनुपम इनका मोल !
बिन इनके जग सून है
ये तो है अनमोल !!
संरक्षण इनका करें
मौसम हो अनुकूल !
प्रगतिशील समाज हो
प्रकृति न हो प्रतिकूल !!
‘जिज्ञासु’ सुधि जन जानलें
हैं ये जीवन के सार !
इनसे ही है हरा-भरा
खुशियों का संसार!!
उन्नतिशील समाज के
हैं येही आधार !
छीर नीर का संभण
जीवन का सिंगार!!
सृजन और संहार
निराकार साकार तुम्हीं हो
हर कण के आकार तुम्हीं हो।
सृष्टि का आधार तुम्हीं हो
इस जग का विस्तार तुम्हीं हो। ।
ब्रम्ह और ब्रम्हाण्ड तुम्हीं हो
सृजन और संहार तुम्हीं हो।
जग के पालनहार तुम्हीं हो
दीन बन्धु साकार तुम्हीं हो। ।
हम-सब हैं तेरे ही बालक
तुम ही हो हम-सबके पालक।
भेदभाव फिर जगमें क्यूँ है
जब तुम हो जगके संचालक। ।
समरसता समदृष्टि ला दो
हिय के सारे कलुष मिटा दो।
‘जिज्ञासु’ जन के अन्तर्मन को
प्रज्ञा से ज्योतिर्मय करदो।।
वसुधैव कुटुंबकम्
ना मजहब की दीवारें हों,
ना धर्म का हो बंधन !
ना जात पात का भेदभाव हो,
ना समाज में हो क्रंदन !!
(तो ? हो)
वसुधैव कुटुंबकम्~ वसुधैव- कुटुंबकम्~ वसुधैव कुटुंबकम्~
मै का मन में बस मर्दन हो,
हम ही हो हम सबका हमदम !
सत पुरुषों का देश हो अपना,
मानवता ही धर्म हो अपना
राष्ट्रधर्म संदेश हो अपना !!
(और ? हो)
वसुधैव कुटुंबकम्~ वसुदेव- कुटुंबकम्~ वसुधैव कुटुंबकम्~
मानवता का मान बढ़ाएं,
भारत का हम शान बढ़ाएं !
दुनिया को हम राह दिखाएं,
आओ मिलकर हम सब गाएं !
(? गाएं)
वसुधैव कुटुंबकम्~ वसुधैव- कुटुंबकम्~ वसुधैव कुटुंबकम्~
प्रेम स्नेह सहयोग समन्वय का,
हम सब में रस बरसाएं !
दीन दुखी निबलों विकलों को, हम-
सब मिलकर गले लगाएं !!
(और गाएं)
वसुधैव कुटुंबकम्~ वसुदेव- कुटुंबकम्~ वसुधैव कुटुंबकम्~
आओ मिलन करें हम सबका,
आओ नमन करें हम सबका !
वसुधा को हम स्वर्ग बनाएं,
एक साथ सब मिलकर गाएं!
वसुधैव कुटुंबकम्~ वसुधैव- कुटुंबकम्~ वसुधैव कुटुंबकम् ~
अवतरित श्री राम
हुए अवतरित श्री राम धरा पर ,
तमसा वृत्ति मिटाने को !
निशिचर का संघार किये हरि ,
मानवता अपनाने को !!
दीन दुखी असहाय जनों के ,
सारे कष्ट मिटाने को !
सत्पुरुषों को निर्भय कर ,
सम्मान दिलाने को !!
हुए अवतरित श्री राम धरा पर ,
तमसा वृत्ति मिटाने को !
ऊंच-नीच का भेद मिटा कर ,
समदृष्टि अपनाने को !
त्याग तपस्या दया धर्म का ,
अविरल मान बढ़ाने को !!
हुए अवतरित श्री राम धरा पर ,
तमसा वृत्ति मिटाने को !
सुख समृद्धि राज-पाट छोड़
अपना वचन निभाने को !
“जिज्ञासु”जन को जाग्रित कर
वसुधा पर स्वर्ग बसाने को !!
हुए अवतरित श्री राम धरा पर
तमसा वृत्ति मिटाने को !
एकता का दीप
विविधता में एकता का दीप,
यूँही जलता रहे !
भाषा अनेक भाव एक हो,
बीज ये खिलता रहे !!
मिलकर बढ़ें हम साथ सबके,
कारवाँ बढ़ता रहे !
विविधता में एकता का दीप,
यूँही जलता रहे !!
मत भिन्नता भी ना रहे,
दिग्भ्रमित भी न हों कभी !
देशद्रोही तकतों का ,
दाल गल ना पाए कभी !!
“जिज्ञासु” जन संकल्प लें सब,
संकीर्णता से मुक्त हों !
जाति धर्म मजहब से हटकर,
देशहित ही प्रयुक्त हों !!
मिलकर बढ़े हम साथ सबके,
कारवाँ बढ़ता रहे !
विविधता में एकता का दीप,
यूँही जलता रहै !!
मोदी के बा राज
मोदी के बा राज ताज तब ,
जनता के पहिनाव !
कमल फूल पर लगा के ठप्पा,
भा. ज. पा. ले आव !!
वंशवाद भ्रष्टाचरियन से ,
अबत छुटकारा पाव !
देके आपन वोट मोदी के ,
विकास के गंगा बहाव !!
हटल 370, 35 ए, अबकी ,
पी.ओ.के.मिल जाई !
भव्य बनल हौ राम के मंदिर ,
रामराज अब आई !!
काशी मथुरा में फेर से अब ,
संस्कृति के सरिता लहराई !
हर घाटन पर बजी बाँसुरी ,
ढोल नगाड़ा के दुन्दुभि सुनाई !!
बनल धाम बाबा विश्वनाथ ,
विन्ध्याचल मईया के !
अबकी अईहन त मथुरा में ,
नचिहें कृष्ण कन्हाई !!
अन-धन से घर भर जाई तब ,
चहुंदिश बजी शहनाई !
मोदी-योगी रहिहन जब तक ,
भारत विश्व गुरु कहलाई !!
मोदी जी के जिताके देख, अबकी
भारत नंबर वन बन जाई !
“जिज्ञासु”जन छईहन चहुंदिश ,
अउर घर-घर बजी बधाई !!
सदुपयोग
सागर, नदी, सरोवर से जल ले,
सूरज सदुपयोग करता है !
उनकी अमृत बूंदों से चहुंदिश ,
वसुधा को सिंचित करता है !!
धरती उनको संचित करके ,
फसलों को सदा उगाती !
बाग बगीचे खुशी खुशी हैं ,
सबको फल-फूल खिलाती !!
वृक्ष सदा मानव विष पीकर ,
प्राणवायु हमें पिलाते !
सूरज के अक्षय ऊर्जा से,
हम शक्तिमान हो जाते !!
त्याग और बलिदान से हैं ये ,
देवतुल्य बन जाते !
मानव को हैं ये सब सुंदर ,
सच्चा मार्ग दिखाते !!
जन-गण से राजस्व प्राप्त कर ,
सदुपयोग हो ऐसा !
सूरज, चंदा, धरती, नदियों ,
और हों वृक्षों जैसा !!
दुरुपयोग करने न पाएं ,
मंत्री या अधिकारी !
जन-मानस शिक्षित सतर्क हों ,
रोकें भ्रष्टाचारी !!
‘जिज्ञासु’ जन सबकी सेवा में ,
तन-मन से लग जाएं !
सर्व धर्म समभाव जगा कर ,
यादों में बस जाएं !!
आओ ऐसा धर्म चलाएं
आओ ऐसा धर्म चलाएं
मानवता का घट भरलाएं
अंतस की पीड़ा को छोड़कर,
प्रकृति विमुख मन मलीन छोड़कर!
ज्ञान सिन्धु के गहन तरंग में ,
अंतर्मन के कलुष डुबाएं !!
आओ ऐसा धर्म चलाएं
मानवता का घट भरलाएं
शस्य श्यामला वसुन्धरा पर,
स्नेह सुधा का रस बरसाएं !
प्यासे अधरों की तृष्णा को,
सद्भावों से तर कर जाएं !!
आओ ऐसा धर्म चलाएं
मानवता का घट भरलाएं
“जिज्ञासु” जन मिलकर सारे,
मानवता का धर्म निभाएं !
अंतस के सारे कलुष छोड़,
वसुधा को मिल स्वर्ग बनाएं !!
आओ ऐसा धर्म चलाएं
मानवता का घट भरलाएं
नफासत में
नफासत में जो रहते हैं,
किनारा कर लिया मैंने!
शराफत में सलीके से,
गुजारा कर लिया मैंने!!
नहीं उनसे मेरी नज़दीकियां
जो जीते हैं सपनों में !
चोट खाकर के पत्थर दिल से,
फलसफा पालिया मैने!
जमी अपना बिछौना है,
और है आसमा चादर !
गमों की उमड़ी दरिया से
सितारा भर लिया मैंने !!
नफा नुकसान का जिम्मा
ले करते जो चुगलखोरी !
उन्हे अब पास रख कर के
पिटारा भर लिया मैंने !!
यही विश्वा है “जिज्ञासु”जन की
है यही आशा !
बने जो राहे-रहजन हैं दुधारा
कर दिया मैंने !!
यादों का क्या करें
बीतेहुए लम्हों को ,
भुलाऊं कैसे !
जो दर्द दिया दिल को,
दिखाऊं कैसे!!
कहना तो बहुत,
आसां है मगर !
दिल-ए-नादा को ,
रिझाऊं कैसे!!
जाऊं तो तुम्हें भूल पर ,
यादों का क्या करें!
बस में नहीं है मेरे,
जज़्बातों का क्या करें!!
कहते हो कि आ जाओ,
मगर आके क्या करें!
दुनियाँ है बड़ी जालिम ,
दिल लगा के क्या करें!!
दिल के जख्मों को ,
जगाना नहीं अच्छा!
भूले हुए ख्वाबों को ,
सजाना नहीं अच्छा!!
पीकर के भी जहर ,
कुछ गुनगुना तो लें!
जाने से पहले मिलकर ,
मुस्कुरा तो लें!!
‘जिज्ञासु’ कि बात छोड़ो ,
है दुनियाँ बहुत बड़ी!
खुद से दिल लगा के ,
खुशियाँ मना तो लें !!
बादल बादल जल्दी आओ
बादल बादल जल्दी आओ ,
यथाशीघ्र पानी बरसाओ !
वसुधा का संताप मिटाकर ,
धरती हरा भरा कर जाओ !!
बादल बादल जल्दी आओ !
व्याकुल हुए पेड़, पक्षी, जन, 15
आकर उनकी प्यास बुझाओ !
रूठ गए हो तुम क्यों हमसे ,
गुस्सा छोड़ो मान भी जाओ !!
बादल बादल जल्दी आओ !
सूख रहे सब बाग बगीचे ,
सूख गए सब ताल तलैया !
सुख रही हैं धरती मइया ,
सूरज का तुम ताप घटाओ !!
बादल बादल जल्दी आओ !
रिमझिम रिमझिम बूँदों के संग ,
खेलेंगे हम साथ तुम्हारे !
बाग बगीचे वृक्षों के संग ,
आकर हम सब को हर्षाओ !!
बादल बादल जल्दी आओ ,
ममता का आंचल
बीज कवच जब धारण करता
तब भूतल पर आता !
ममता के आंचल में पल कर
बढ़ता और सुख पाता !!
जीवन का ये खेल, है कितना
अद्भुत और निराला !
देकर जन्म सभी को जग में
है तुमने ही पाला !!
जिसने जितना खोजा पाया
है वोही यश पाता!
डर कर बैठा दूर है जो नर
उसका नहीं विधाता!!
प्रकृति नियंता से बढ़कर के
है नहीं कोई रखवाला!
संरक्षण हम करें प्रकृतिका
हो यह ध्येय निराला!!
मौसम हो अनुकूल हमारे
जिसने जीवन पाला!
जिज्ञासु रजनी के आंचल में ,
भी भरो उजाला!!
जीव ब्रह्म के सत्संगत में
जीवन ज्योति निराला !
अब न होवे संशय मन में
पीलो ब्रह्म निवाला !!
संवाद का अंत हो रहा
संवाद का अंत हो रहा ,
वाद विवाद अब जारी है !
छूरेबाजी , पत्थरबाजी ,
कट्टेबाजों , की बारी है !!
वंदेमातरम पर, खालिस्तान,
तालिबान क्यौ भारी है !
शांतिदूत थे हम पहले पर,
अब आई क्या लाचारी है !!
धूर्त स्वार्थी मक्कारों की ही,
होती अब अगुवाई है !
न्यायालय भी रात में खुलते,
जज करते सुनवाई हैं !!
सच्चों को दोषी ठहराते,
लुच्चो को देते हैं सम्मान !
लाज नहीं है आरती इनको,
करें देश का ये अपमान !!
अबतो कुछ करना होगा,
नहीं तो होगा देश गुलाम !
‘जिज्ञासु’ जन आओ मिलकर
इन सबका, अबतो करें निदान !!
वर्ना फिर पछताना होगा
कोई न देगा साथ !
खेत चिड़ियां चुग जाएगी
मलना होगा हांथ !!
छटा बसंती
छाई छटा बसंती जबसे,
बिछी छटा है कण-कण !
बौर उठे फिर बाग आम के,
महक उठा बन उपवन !!
तान सुरीली भरती कोयल,
बैठ आम की डाली !
मंद मलय मुस्कान बांटता,
देकर छटा निराली !!
छनक उठी पांवों में पायल,
गूंज उठा नंदनवन !
छाई छटा बसंती जब से,
बिछी छटा है कण-कण !!
मादक हुआ पवन महुआ बन,
बांट उठा मादकता !
नव किसलय से पेड़ सजे हैं,
दूर हुई वीजनता !!
मुग्ध हुए जिज्ञासु देखकर,
राधा कान्हा उपवन !!
आया पर्व बसंत पंचमी ,
सरस हुआ घर आंगन !!
बर्बरता अंत होना चाहिए
बहुत हो चुका, बर्बरता का,
अब अंत होना चाहिए!
आतंकी दहशतगर्दों का,
विध्वंस होना चाहिए!!
सभ्यता के मुंह पर हैं जो,
तमाचा जड़ रहे!
हांथ बांधे हम सभी किसकी,
प्रतीक्षा कर रहे!!
बच्चे बूढ़े निहत्थे अबलाओं
पर, जो कर रहे हैं दरिन्दगी !
मानसिक नपुंसक दरिन्दों को,
सबक सिखाना हि है मर्दानगी!!
‘जिज्ञासु’ जन हों विश्व के हर
देश,उनके खिलाफ!
औकात उनकी अब दिखा दें,
तभी होगा इंसाफ!!
राजनीति छोड़कर विश्व को,
अब एकजुट होना चाहिए!
पाशविकता विस्तार वाद का,
अब अंत होना चाहिए !!
मानवीय गुण से विभूषित,
विश्व होना चाहिए !
बहुत हो चुका,बर्बरता का,
अंत होना चाहिए!!
मंजिल ( मुक्तक )
मंजिल कभी मिलती नहीं ,
आराम से यूँ बैठकर !
संघर्ष कर बीज भी उगता ,
जमीन को फोड़कर !!
महल अपना हवाओं पर ,
खड़ा नहीं कर पाओगे !
नीड तुम अपना बनाओ ,
तिनका-तिनका जोड़ कर !!
फूल खिल सकता नहीं ,
अपनी डाली छोड़कर !
खुश नहीं रह सकता कोई,
अपनो से नाता तोड़कर!!
चाह तुझमें है भला कुछ ,
कर गुजरने की अगर !
कर्म पथ पर बढ़चलो ,
दुष्कर्म से मुंह मोड़ कर!!
संकल्प में शक्ति बहुत है ,
जान लो !
‘जिज्ञासु’ जन बात को तुम ,
मान लो!!
हिम्मत न हारो जिंदगी में ,
तुम कभी !
मंजिल हासिल करके रहोगे ,
ठान लो!!
पावन ज्ञान
सुमधुर हो सत्कर्म विश्व में,
मानवता का हो यशगान !
रहे उपेक्षित कभी न कोई,
जन-जन को देवें सम्मान !!
पावन ज्ञान मिला गीता से,
कर्मशील हो हर प्राणी !
हो चैतन्य सुभाषित तन मन,
सत्कर्मों की होना हानि !!
राम-कृष्ण आदर्श हमारे,
गूंज रही घर-घर गाथा !
खोल मुक्ति का द्वार प्रभाती,
झुका रही अपनी माथा !!
संगम है सत्कर्म ज्ञान का,
करने आते लोग नहान !
रहे उपेक्षित कभी न कोई,
जन जन को देवें सम्मान !!
त्याग तपस्या दया धर्म का,
घर घर अलख जगाना है !
मां गंगा की पावन धारा-
से मन मैल बहाना है !!
पकड़ किरण की डोर सुनहरी,
झूम उठीं धरती मांता !
श्रृष्टि सृजन में मां बेटे का,
जन्म-जन्म से है नाता !!
“जिज्ञासु” आदर्श संभालें,
है अपना साकेत महान !
रहे उपेक्षित कभी न कोई,
जन-जन को देवें सम्मान !!
निर्विवाद हों निर्विकार हों,
सदा मील का हों पत्थर !
आंधी हो या तूफानों में,
दीपक सा हों हम सहचर !!
झूम उठे हर शाम सुनहली,
अपने इन आदर्शों से !
हों आक्रोशित कभी न क्षण में,
डिग न सकें उत्कर्षों से !!
करें सृजन वन उपवन सा नित,
हरियाली का देकर ज्ञान !
रहे उपेक्षित कभी न कोई,
जन-जन को देवें सम्मान !!
ना मैं सुनू बुराई
दूर करो घट- घट से माता
मद- मत्सर की काई
ना मैं करूं किसीकी निंदा
ना मैं सुनू बुराई।
स्नेह लता सिंचित हो अनुदिन
सुरभित मारुति धाये ।
सुलभ साधना हो स्थिर मति
भाव सदा लहराये ।।
वंदन नमन करूं मैं अर्चन
लोभ विकार बिहाई।
दूर करो घट-घट से माता
मद मत्सर की काई।।
जग-मग ज्योति सुधी ‘जिज्ञासु’
आकुल मन नहलाये।
भटके हुए विकल जो मग में
काम उन्हीं के आये ।।
वास करूं तेरि विधि सरिता में
हो हरितिन अमराई ।
दूर करो घट- घट से माता
मद-मत्सर की काई।।
क्या हुआ कैसे हुआ जान लें
ज्ञान की गंगा थी बहती,
था शौर्य का तूफान भी !
धीरज और धैर्य का सागर,
दिल में था विद्यमान भी !!
धन दौलत की कमी नहीं थी,
स्वस्थ सुखी सारे जन थे !
संस्कार से युक्त सभी थे,
मिल-जुलकर सब रहते थे !!
फिर क्या हुआ, कैसे हुआ और
क्यों हुआ यह जान लें ?
देशद्रोही, छद्म वेशियों को,
हम सभी पहचान लें !!
निज स्वार्थ में,भारत को अपने,
पराधीन करवाया !
सोने की चिड़िया को मिलकर,
था कंगाल बनाया !!
चाल में उनके अगर फंसे तो,
हम सब फिर बट जाएंगे !
देश का दौलत पुन: दरिंदे,
फिरसे हड़प कर जाएंगे !!
बचा राह बस यही एक है,
“जिज्ञासु” सतर्क हो जाएं !
बुद्धि विवेक कौशल से ,
इनसे निजात अब पाएं !!
सच्चे कर्मठ योग्य व्यक्ति को,
“मत” दे, सत्तासीन कराएं !
विश्व पटल पर विकसित भारत-
का, मिलकर परचम फहराएं !!
हो विशद चिंतन
हो विशद चिंतन हमारा,
दूर हो संकीर्णता!
मेंट दें हम भेद मन के,
दूर कर निज अज्ञता !!
भाव भूषित अधर से,
नव राग का संचार हो!
मेल के बंधन बंधे हम,
प्रेम का व्यवहार हो!!
फूटे हर घट से सतत् ,
सद्भाव भूषित विज्ञता!
मेंट दें हम भेद मन के,
दूर कर निज अज्ञता!!
कामना ओढ़े कलेवर,
साधुता के भाव का!
खिल उठे जिज्ञासु जन गण,
बंधुता हो लगाव का!!
सज उठे धरती हमारी,
स्नेह युत हो सहिष्णुता!
मेंट दें हम भेद मन के,
दूर कर निज अज्ञता !!
गुजरेहुए लम्हें
गुजरे हुए लम्हें को भुलाया
न जा सका !
जो दर्द मिला दिल को दिखाया
न जा सका !!
अफसोस है कि नादा दिल
मानता नहीं !
रंगत कि चाहतों से गुदगुदाया
न जा सका !!
जाएं तो कहां जाएं बंधन
को तोड़कर !
रिश्तो की डोर थामे आया
न जा सका !!
दुनिया है बड़ा जालिम
कैसे दिलासा दूं !
लखते जिगर को पल भर
मनाया न जा सका !!
बिचरो न ख्वाबेगाह में
जिज्ञासु जन अभी !
पीकर जहर जमाने में
गुनगुनाया न जा सका !!
आतुरता ना दिखलायें
सपनों को पूरा करने में
आतुरता ना दिखलायें !
जीवन है अनमोल बहुत
उसको ना व्यर्थ गवाएं !!
“जिज्ञासु” जन जल्दी बाजी में
मर्यादा लांघ न जाएं !
चादर हो जितनी अपनी बस
उतना ही पग फैलाएं !!
विपदा में भी संयम से
कल को सुखद बनाएं !
जीवन है अनमोल बहुत
उसको ना व्यर्थ गवाएं !!
आय गयो रघुराई
आय गयो रघुराई !
अवध में आय गयो रघुराई
अवध में आए गयो रघुराई !
कोई ढोल मृदंग बजावे
कोई नाचे कोई गावे
कोई रंग अबीर उड़ावे
राह में कोई फूल बिछावे
घर घर बजे बधाई !
अवध में आय गयो रघुराई
अवध में आय गयो रघुराई !
राम लाल का दर्शन होगा
पुलकित तन हर्षित मन होगा
श्रद्धा भक्ति अर्पण होगा
आज सफल यह जीवन होगा
लहर खुशी की छाई !
अवध में आय गयो रघुराई
अवध में आय गयो रघुराई !
कलयुग में ही त्रेता आयो
जन मानस में खुशियां छायो
घर आंगन में दीप जलायो
धरती पर आकाश है आयो
देव पुष्प बरसाई !
अवध में आय गयो रघुराई
अवध में आय गयो रघुराई !
गले मिले सब एक दूजे संग
फरकन लागे सब के शुभ अंग
पुर नर नारी के बदले ढंग
रंगे हुए सब खुशियों के रंग
“जिज्ञासु” देत बधाई !
अवध में आय गयो रघुराई
अवध में आय गयो रघुराई !
अहंकार
अहंकार जब आता है
बुद्धि विवेक मर जाता है!
अपने को श्रेष्ठ समझने का
भ्रम उसको हो जाता है!
औरों को तुच्छ समझने का
उसको लत लग जाता है!!
अहंकार जब आता है
बुद्धि विवेक मर जाता है!
एहसास कमी का होने पर
अपनी वो झेंप मिटाता है!
लोगों को अपमानित कर
वो अपनी कमी छुपाता है!!
अहंकार जब आता है
बुद्धि विवेक मर जाता है!!
सही गलत का होता भान नहीं
अपनों के परामर्श का ध्यान नहीं!
वो मतलब परस्त बन जाता है
दुर्दिन का सूत्रपात हो जाता है!!
अहंकार जब आता है
बुद्धि विवेक मर जाता है!
उम्मीदों का पंख
उम्मीदों का पंख लगा कर
आगे ही बढ़ते जाओ !
बाधाओं को काट छांटकर
नूतन इतिहास बनाओ !!
अपने पर विश्वास अटल हो
आस न करना औरों का !
लिख दोगे इतिहास अनोखा
तुम अपने इस जीवन का !!
डगर हो चाहे जितना दुर्गम
हिम्मत कभी न हारो !
मिल जाएगी मंजिल फिर से
पिछली भूल सुधारो !!
अमोघ अस्त्र है ज्ञानार्जन का
बात मान लो मेरी !
विपदायें सब मिट जाएंगी
पलक झपकते तेरी !!
स्वार्थी हो गए कर्णधार
स्वार्थी हो गए कर्णधार सब
भ्रष्ट हुए अधिकारी!
लूट रहे जनता को मिलकर
देखो भ्रष्टाचारी!!
सत्यमेव जयते के नीचे
विवश हुई सच्चाई !
घोटें गला न्याय तंत्र का
हर्षित आता ताई!!
जाति धर्म मजहब में बांटकर
झोली अपना भरते !
धूल झोक जनता की आँख में,
उल्लू सीधा करते !!
दाल न गलने पाए इनका
व्यूह रचो कुछ ऐसा !
“जिज्ञासु”जन, जनमत से अपने
सबक सिखाओ ऐसा!!
हम थे कितने भोले-भाले
हम थे कितने भोले-भाले,
थे हम कितने नादान !
देश का नायक कैसा हो,
था हमें नहीं ये ज्ञान !!
मक्कारों को ही हम-सब ने,
था अबतक पाला !
बहुरुपीये ही हम-सबको,
लगते थे आला !!
आस्तीन के सांपों की थी,
नहीं हमें पहिचान !
देश का नायक कैसा हो,
था नहीं हमें ये ज्ञान !!
निहित स्वार्थ में नेताओं ने,
बोया समाज में कांटा !
ऊंच-नीच धर्म मजहब में,
हम सबको है बांटा !!
बहुत दिनों के बाद मिला है,
‘जिज्ञासु’ जन ऐसा अवसर !
भेद-भाव सब भूल सभी अब,
नायक, लाएं लायक मिलकर !!
आएगी खुशहाली घर-घर,
स्वस्थ सुखी होंगे प्यारे !
भारत मां का मान बढ़ेगा,
हर्षित होंगे हम सारे !!
मतदान करें
आओ मिलकर मतदान करें ,
जन गण का उत्थान करें !
देकर अपने वोट योग्य को ,
संविधान का मान गढ़े !!
बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय,
हो जिसकी सोच !
ऐसे लोगों को ही डालें ,
हम अपना वोट !!
वंशवाद और जातिवाद पर
मारे मिलकर चोट !
ऐसे प्रयास से, मिट जाएगा
लोकतंत्र का खोट !!
इसीलिए कहते ‘जिज्ञासु’
डालो वोट दबा के !
देशद्रोही, भ्रष्टाचारी
भागेंगे दुंमदबा के !!
आएगी खुशहाली घर-घर ,
देश सबल हो जाएगा !
देखेगी दुनिया सारी फिर
राम राज्य आ जाएगा !!
भारत होगा नंबर वन, तब
होगा दुनियां में सम्मान !
अपना परचम फहराएंगे ,
होगा जन गण मन का गान !!
हम-सब हैं भारतवासी
हम-सब हैं भारतवासी
भारतवर्ष हमारा है !
जननी जन्मभूमि अपनी
प्राणों से भी प्यारा है !!
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे संग
ताजमहल भी न्यारा है !
जाति धर्म मजहब से बढ़कर
मानवता हमें प्यारा है !!
हम-सब हैं भारतवासी
भारतवर्ष हमारा है !
सर्वधर्म समभाव समन्वय सत्य
अहिंसा, आदर्श हमारा है !
सभी सुखी हों सभी स्वस्थ हों
यही संकल्प हमारा है !!
छे ऋतुओं का देश हमारा
सारे जग से न्यारा है !
जननी जन्मभूमि अपनी
प्राणों से भी प्यारा है !!
हम-सब है भारतवासी
भारतवर्ष हमारा है !
होली क्रिसमस ईद दिवाली
दिल हर्षाने वाला है !
विश्व गुरु सरताज बनेंगे
वो दिन आने वाला है !!
जिज्ञासु जन गण उठो सभी
अब शुभ दिन आने वाला है !
आगे बढ़ो तिरंगा अपना
जग में लहराने वाला है !!
हम-सब हैं भारतवासी
भारतवर्ष हमारा है !
समय और समझ
सही समय पर सही समझ
ही अपने काम है आता !
समय निकल जाने पर, समझो
समझ मूल्य हीन हो जाता !!
समय बहुत बलवान न करना
उससे कभी ढीठाई !
समय बीत जाने पर जानो
अक्ल काम नहीं आती !!
साथ समय के चलना सीखो
मिट जाएगी बाधाएं !
धीरज धैर्य और विवेक ही
जीवन भर काम आएं !!
समय, समझ हो साथ तो
समझो शुभ अवसर है !
लाभ उठा सकते हो कितना
ये तुम पर निर्भर है !!
समय के साथ समझ न हो
तो संकट सर पर मडरता !
सफल वाही होता जिज्ञासु
जो अवसर का लाभ उठता !!
अनुशासित जीवन
अनुशासित जीवन धवलधार
संयम सेवा है सद्विचार
नव जागृत प्राची किरण हार
करता जीवन में भोर सखे
ना बने कभी रणछोड़ सखे
हम सभी बने श्रम के साधक
हों मानव सेवा आराधक
भावों की भाव तरल मधुता
छक कर पीलें कर जोड़ सखे
ना बने कभी रणछोड़ सखे
“जिज्ञासु” जन मन चाह प्रबल
हो मुक्त प्रदूषित राह नवल
अनुवांशिक संस्कृति का विचार
भर देता हिय रस घोर सखे
ना बने कभी रणछोड़ सखे
अभिलाषा
सागर के वाष्पित जल से,
मैं बादल बन कर छाऊं!
फसलों और बाग वन उपवन,
की मैं प्यास बुझाऊं!!
नदी सरोवर ताल तलैया में,
इच्छित जल लहरे!
जीव जंतु जड़ चेतन को भी
मैं सरस बनाऊं!!
स्वस्थ सुखी हों जग में सारे,
ऐसा रूप सजाऊं!
शस्य श्यामला हो वसुधा अपनी
सबका मन बहलाऊं!!
‘जिज्ञासु’ तन मन अभिलाषा,
सेवा भाव उठाऊं!
दीन दुखी असहाय जनों का,
जीवन सफल बनाऊं!!
सागर के वाष्पित जल से,
मैं बादल बनकर छाऊं!
स्वर्ग सदृश वसुधा पर,
मैं सब की प्यास बुझाऊं!!
फूल और पत्थर ( मुक्तक )
बिखरे हुए राह में पत्थर,
फूल बिछे हों या हों शूल !
रुकना नहीं न झुकना सिखा,
चाहे हो मौसम प्रतिकूल !!
बाधाओं से टकराना अरु,
लड़ना अरि से सीखा है !
‘जिज्ञासु’ जन रीति यही हो,
भाव समर्पित हो ना भूल !!
गुजरेहुए लम्हें
गुजरे हुए लम्हें को भुलाया
न जा सका !
जो दर्द मिला दिल को दिखाया
न जा सका !!
अफसोस है कि नादा दिल
मानता नहीं !
रंगत कि चाहतों से गुदगुदाया
न जा सका !!
जाएं तो कहां जाएं बंधन
को तोड़कर !
रिश्तो की डोर थामे आया
न जा सका !!
दुनिया है बड़ा जालिम
कैसे दिलासा दूं !
लखते जिगर को पल भर
मनाया न जा सका !!
बिचरो न ख्वाबेगाह में
जिज्ञासु जन अभी !
पीकर जहर जमाने में
गुनगुनाया न जा सका !!
भारत की गरिमा
अभी बना हरि-हर का मंदिर,
धरा तीर्थ बन जाएगी!
आनेवाले कलमें भारत,
की गरिमा बढ़ जाएगी!!
सनातनी श्रृंगार धराके,
कण-कण में लहराएगी !
जिज्ञासु जन विश्व विजयनी,
भारत मां कह लाएगी!!
अमर कीर्ति बलिदान से भूषित,
नव विहान लहराएगा!
जिनपिंग के विस्तार नीतिका,
दाल नहीं गल पाएगा !!
पी. ओ. के. संग सियाचिन में
अमर तिरंगा अंबर में लहराएगा!
जिज्ञासु जन गण मन वाणी से,
वसुधा पर स्नेह सिन्धु लहराएगा!!
सूना घर है सूखी धरती
सूना घर है सूखी धरती,
रूठ गई हरियाली !
हुए गांव वीरान मनुज बिन,
क्यौ ऐसी बदहाली!!
समझ न आए फिर गांवों में,
खुशियां लौटाएं कैसे!
करने को कुछ बचा नहीं ,
युवाओं को बुलाए कैसे!!
विवश हुई है आज ये धरती,
कैसे इसे बचाएं !
आओ ‘जिज्ञासु’ जन मिलकर
ये संकल्प उठाएं!!
कौशल का करके विकास,
बच्चों को सबल बनाएं!
हरित,स्वेत,स्वरोजगार की,
फिर सरिता यहां बहाएं!!
गंगा,वरुणा,सरयू,यमुना से,
इनका मिलन कराएं!
तब सप्त सिंधु बनकर ये ,
सुख समृद्धि यहां छलकाएं!!
तब होगा सूनापन खाली,
फिर रौनक होगी पुनःयहां!
धरती हरी भरी तब होगी,
आएगी खुशहाली यहां!!
लहराएंगी फसलें सारी बागों में,
होगी कोयल की कूॅक यहां!
गौरैया,तोता,मैना के कलरव से,
गूंजेगी सुबहो शांम यहां!!
देखेंगे नित नाच मोर का,
होगा विहंगम दृश्य यहां!
रामराज्य आएगा अपना,
सपना होगा साकार यहां!!
है नमन् तुमको को
वीर शिरोमणि राणा प्रताप को ,
सत् सत् नमन् हमारा!
स्वाभिमान और आजादी का था ,
अनुपम लक्ष्य तुम्हरा!!
तुम जैसे वीरों का, इतिहास
ऋणी होता है!
आनेवाली पीढ़ी को भी ,
गौरव होता है!!
राष्ट्र भक्ति होता है क्या ,
ये हमने तुमसे सीखा!
देश की खातिर हंसते हंसते,
जीना मरना सीखा!!
देशद्रोही गद्दारों को सबक सिखाना,
है तुमसे ही सीखा!
आजादी के लिए विषम परिस्थितियों,
में भी लड़ना सीखा!!
आया समय पुनः वैसा ही,
है गद्दारों ने फूंफकारा !
फिर आया है काम हमें,
दिया गया गुरु मंत्र तुम्हरा!!
“जिज्ञासु” जन हैं सचेत अब,
नहीं करेंगे वो नादानी!
सबक सिखादेंगे उन सबको ,
जिसने भी भौंहें तानी!!
है जनतंत्र महान
है जनतंत्र महान
संविधान की गरिमा न्यारी
है जनतंत्र महान!
सबका साथ विकास सभी का
मूल मंत्र यह मान!
सरिया से ना देश चलेगा
नहीं जेहादी धारा है!
धर्म सनातन विश्व गुरु है
पाता जगत किनारा है!!
वर्ग भेद में सूरज डूबे
प्रलय रात चहुं छाई है!
सिर को तन से जुदा करें हम
क्या औचित्य विचारा है!!
बेशर्मी पर उतर गए क्यूं
कहां गया पहिचान!
सबका साथ विकास सभी का
मूल मंत्र लो मान!!
पद तल रौंद रहे तिनके को
भरी पड़ी यह क्यारी है!
तिनका जब आंखों में पड़ता
छा जाती लाचारी है!!
कहां गया अभिमान हमारा
कहां शक्ति का स्रोत है!
दुखती आंख मूंद लेते हैं
तिनका हम पर भारी है!!
“जिज्ञासु” मन मृगा कुलांचे
मिल्लत का हो ध्यान!
सबका साथ विकास सभी का
मूलमंत्र लो मान!!
रेल
चलना रुकना रुक कर चलना,
हमें सिखाती रेल!
जीवन में मंजिल पाने की ,
दिशा दिखाती रेल!!
आंधी पानी धूप या वर्षा,
में भी चलते जाना!
लक्ष्य प्राप्ति के लिये सदा तुम,
दृढ़संकल्प जगाना!!
ऊंच-नीच में भेद न करना,
समदृष्टि अपनाना!
सदा रेल सिखलाती हमको,
सबका भार उठाना!!
रेल सदृश बच्चों खुदको,
इतना सबल बनाओ!
विपदा में संयत रह अपना-
तुम कर्तव्य निभाओ!!
सत्य अहिंसा दया धर्म का,
सबको मार्ग दिखाओ!
आने वाले कल में तुम भी ,
यादों में बस जाओ !!
लेकर साथ सभी को उनके,
मंजिल तक पहुंचाओ !
जिज्ञासु जन हर्षित हों,सबको
आनंदित कर जाओ!!
समय आ गया है
समय आ गया है अब
आईना दिखाने का!
जो भी सच है जन-जन को
उसे बताने का!!
अपने लिए तो जीते हैं
कीड़े मकोड़े भी!
हम तो इंसान हैं यारों
यह बताने का!!
हांथों पे रख के हांथ
बैठना नहीं अच्छा!
अवसर है अपना अपना
कर्तव्य निभाने का!!
न हताश होने का
न निराश होने का!
मौका है देश हित में
करके,कुछ दिखाने का!!
सत्य सनातन की गरिमा
को बताने का !
खुद भी जगने और
औरों को जगाने का!!
समय आ गया है अब
आईना दिखाने का!
जीवन का अमृत
अनुशासन जीवन का अमृत,
है अनुपम उपहार सखे।
अतिरेक मोह की मधुशाला,
मत करना मधुपान सखे ।।
भेदभाव को मिटा, करो
समता का सिंगार सखे ।
अमृत पीकर अनुशासन का,
रच डालो इतिहास सखे ।।
मन चंचल है अति वेगवान,
विजई होता है धीरवान ।
‘जिज्ञासु’ जन रखना प्रति-पल ,
मन पर सदा लगाम सखे ।।
अनुशासन जीवन का अमृत
है अनुपम उपहार सखे ।
सबको हंसना सिखा दो
खुद भी जिओ, सबको जीना सिखा दो
तुम हो सभी के, सभी हैं तुम्हारे !
हकीकत ये सारे, जहां को बता दो
खुद भी हंसो, सबको हंसना सिखा दो!!
जहां में नहीं कोई अपना पराया
नफरत न आए फिर कभी अब दुबारा
दिल में खुशी हो, गम को भुला दो
खुद भी हंसो, सबको हंसना सिखा दो
करें सब भलाई, बुराई मिटा दो
यही राज है, जिंदगी का बता दो
“जिज्ञासु” अपने अहमको मिटा कर
खुद भी हंसो सबको हंसना सिखा दो
कमलेश विष्णु सिंह “जिज्ञासु”
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