अंतिम यात्रा | Kavita antim yatra
अंतिम यात्रा
( Antim yatra )
जीवन की प्रचंड धूप में मनुज तपता रहा दिन रात
नयन कितने स्वप्न देखे कितनी शामें कितने प्रभात
भाग दौड़ भरी जिंदगी में बढ़ता रहा वो निष्काम
चलता रहा मुसाफिर सा अटल पथिक अविराम
जीवन सफर में उतार-चढ़ाव सुख-दुख के मेले
हंसते-हंसते जीवन बिता आज चले राही अकेले
होकर जुदा सबसे चल पड़ा राही अंतिम यात्रा को
शून्य में होकर विलीन मिलाने स्वर हर मात्रा को
देखकर उसकी अर्थी फिर बोल पड़ा जब श्मसान
धन दौलत जमीन जायदाद छोड़कर आया मकान
जिंदगी गुजार दी मंजिल तक तुमने आते आते
था यही अंतिम ठिकाना जान जरा पहले जाते
धरती के हर वासी का एक जीवन सफर होता है
सांसों की सरगम चलती एक माटी का घर होता है
माटी के हर पुतले को माटी में मिल जाना होता है
हर मुसाफिर का एक अंतिम यही ठिकाना होता है

कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )







