हृदय मेरा पढ़ पाए | kavita
हृदय मेरा पढ़ पाए
( Hriday mera padh paye )
अन्तर्मन में द्वंद बहुत है, जाकर किसे दिखाए।
ढूंढ रहा हूँ ऐसा मन जो, हृदय मेरा पढ़ पाए।
मन की व्याकुलता को समझे,और मुझे समझाए।
राह दिखे ना प्रतिद्वंदों से, तब मुझे राह दिखाए।
बोझिल मन पर मन रख करके,हल्के से मुस्काए।
मत घबराना साथ हूँ तेरे, कह कर धीर धराए।
जिसको देख शेर मन बोझिल, हुए बिना मुस्काए।
ढूंढ रहा हूँ ऐसा मन जो, हृदय मेरा पढ़ पाए।
चिन्ताओं से बिखर रहा मन, संसय बढ़ता जाए।
जब कोई भी राह दिखे ना, तब वो सामने आए।
जिसको देखते ही नयनों में,चमक स्वंय बढ़ जाए।
ढूंढ़ रहा हूँ ऐसा मन जो, हृदय मेरा पढ़ पाए।
मित्र सुदामा नही कृष्ण अर्जुन संग राह दिखाए।
प्रतिघातों के कुरूक्षेत्र में, रूप विराट दिखाए।
कभी सारथी कभी सहायक, स्वामी बन समझाए।
ढूंढ़ रहा हूँ ऐसा मन जो, हृदय मेरा पढ़ पाए।
स्वार्थ विरत हो दोनों का, जब साथ हो दुख न आए।
सारी दुनिया एक तरफ, जब मित्र साथ हो जाए।
शेर हृदय और व्याकुल मन के,हर तरंग पढ़ पाए।
ढूंढ रहा हूँ ऐसा मन जो, हृदय मेरा पढ़ पाए।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )