लघुदीप | Kavita Laghudeep
लघुदीप
( Laghudeep )
सघन तिमिर में
तिरोहित कर देती है कक्ष में
नन्हीं-सी लौ लघुदीप की।
टहनी में आबद्ध प्रसुन
बिखर जाते है धरा पर
सान्ध्य बेला तक
पर असीम तक
विस्तार पाती है–
उसकी गंध।
रहता है गगन में चन्द्र
पर, ज्योत्सना ले आती है उसे
इला के नेहासिक्त अंचल तक
बाँध उसके स्निग्ध भुजपाश में।
जड़ बांस की नन्हीं-सी बासुंरी
मधुर स्वरों से
गुंजित कर देती है
अनन्त के उस पार तक।
सीमाओं से निबद्ध
महासागर बन घनश्याम
चूम लेता है—-
उतुंग गिरि-शिखरों के
स्वेत कपोलों को
छू लेता है अनन्त ऊंचाइयां
आकाश को
और चुपके से दे जाता है
श्रंगार जीवन को।
स्थिर कगार शैलजा के
नहीं पहुँच पाते कहीं भी
पर उन पर पड़े धूलकण
पहुँच जाते है जल-निधि तक।।
डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल, मप्र